Wednesday, March 29, 2023

रोजाना वाकिआत-परम गुरु हुज़ूर साहबजी महाराज!*

रा धा स्व आ मी




*29-0323-आज शाम सतसंग में पढ़ा गया बचन-कल से आगे:-*




 *(6-10-31-मंगल)* 




*जो भाई दयालबाग़ में दिलचस्पी(रूची) रखते है वह प्लेटै(अफलातून) के हस्ब जैल कलमात(निम्नलिखित  बचनों) को गौर(ध्यान) से पढ़ें जिक्र यह हो रहा है कि जो आदर्श रियासत कायम(स्थापित) करनी है वह कैसे मक़ाम(स्थान) पर क़ायम की जाये। लिखा है:-                                                            " दरअसल (वास्तव में) मुकाबले की तिजारत(व्यापार)एक किस्म की जंग(युध) है। अमन महज़ जबानी जमा खर्च है। इसलिये मुनासिब होगा कि हम अपनी आदर्श रियासत को समन्दर से फासले(दूरी) पर क़ायम करें ताकि उसके अन्दर किसी क़िस्म की गैर-मुल्की(दूसरे देश की) तिजारत के क़ायम होने का इमकान(सम्भावना) न हो। समन्दर के जरीये मुल्क के अन्दर तिजारती माल,और तहसील-जर(धन प्राप्ति), व नफ़ा(लाभ) कमाने की हवस(लालसा) भर जाती है जिससे लोगों के दिलों में रुपये की हिर्स(हवस) और बेईमानी की आदत पैदा हों जाती है।"                                                          क्या यह हमारी खुशकिस्मती नहीं है कि दयालबाग समदंर से इतनी दूर वाक्रे(स्थित) है? अंग्रेजी अल्फ़ाज (शब्द) यह हैं                                                              It will be well then to situate our ideal state considerably inland, so that it shall be shut out from any high development of foreign commerce. The sea fills a country with merchandise & money-making & bargaining; it breeds in mens' minds habits of financial greed & faithlessness.                                                                रात के सतसंग में दान के मजमून(विषय) पर बातचीत हुई। जमाना सल्फ़(पुराने) के लोग दान को बड़ी अहमियत(महत्तव) देते थे और राजा महाराजा तलाश करके सच्चे ब्राह्मनों को दान पेश करते थे और उसके मंजूर होने पर अपना भाग सराहते थे। और सच्चे ब्राह्मन भी अपनी लंगोटी में मगन रहते थे और बिला अशद(अत्यधिक)  जरूरत के किसी के सामने हाथ न फैलाते थे। और ग़रीबी में दिन काटकर अपने ब्रह्म ज्ञान का रस लेते थे। और चूंकि वह ज़्यादातर गुरबत(निर्धनता) की हालत में दिन काटते थे इसलिये होते होते गरीबों को दान देने की महिमा क़ायम हो गई हत्ता कि लंगड़ों लूलों कोढ़ियों को बढ़िया खाने खिलाना और उन (को) बस्त्र देना निहायत बढ़ कर दान समझा जाने लगा। और चूंकि सच्चे ब्राह्मन नापैद(लुप्त) होते गये इसलिये अपाहिजों की खिदमत का आम रवाज हो गया। करीबन 30 बरस हुए शिमाली(उत्तरी) हिन्द में साधुओं व फुंकरों(फ़कीरों) की मंडलियां चक्कर लगाती थीं। लोग अपाहिजों के बजाय ऐसे लोगों को दान देकर व खाना खिलाकर निहायत खुश होते थे। उसके बाद आर्य समाज ने कालेज के लिये आम चन्दा मांगने का सिलसिला कायम किया। रुपये की सख्त जरूरत होने से लफ़्ज़ दान का इस्तेमाल होने लगा। आर्य समाज की कामयाबी देखकर हर एक सोसायटी दान मांगने पर उतर आई और कांग्रेस कमेटियों के क़ायम होने पर दान मांगना दाल रोटी हो गई। इसमें शक नहीं कि ज्यादातर लोगों ने चन्दों से वसूलशुदा(प्राप्त की हुई) रक्कमों का निहायत अच्छा इस्तेमाल किया है और उसके प्रताप से उस रुपये का एक हिस्सा जो पण्डों व पुजारियों के शिकम(पेट) में जाता था, मुफीद(लाभप्रद) संस्थाओं पर सर्फ होने लगा है। लेकिन यह अफ़सोस से कहा जाता है कि लोगों के दिल से दान की श्रद्धा जाती रही है। जब किसी के घर हर रोज कोई न कोई चन्दा मांगने के लिये आ जाये तो उसके दिल में श्रद्धा क्योंकर रह सकती है? लोगों ने दान की पवित्र संस्था का नामुनासिब इस्तेमाल करके उसको बदनाम कर दिया और लोगों के दिलों में उसके मुतअल्लिक उल्टे खयालात कायम कर दिये। लोग चन्दा वसूल करते वक़्त न यह देखते हैं कि उस शख्स की कमाई किस तरह की है, और न यह कि उसके दिल में हमारे काम के लिये श्रद्धा भी है या नहीं है। उन्हें रुपया वसूल करने से मतलब है । देने वाले के खयालात पर क्या असर पड़ता है और ख़राब के कमाये ढंग से उनके काम पर क्या असर पड़ता है, इन बातों से उन्हें मुतलक(तनिक भी) वास्ता(सम्बन्ध) नहीं है। बरखिलाफ़(विपरीत)इसके सतसंग में इन बातों का खास तौर लिहाज(ध्यान) रखा जाता है। सतसंग में भेंट का रवाज है। लेकिन यह मामला श्रद्धा का है। जिसके दिल में प्रेम व श्रद्धा हो वह भेंट करे और जिसके दिल में न हो वह न करे और जो भेंट करे वह हक़ व हलाल(परिश्रम व ईमानदारी)  की कमाई का धन भेंट करे। वरना अपने घर में रखे। शुक्र है कि शुरू से लेकर आज दिन तक इस उसूल पर बराबर अमल हो रहा है जिसका नतीजा यह है कि सतसंगियों के दिल श्रद्धा से भरे हैं। बेचारे हरचन्द(यद्दपि)गरीब हैं लेकिन श्रद्धा के बड़े धनी हैं। और सतसंग में इस कदर(इतना) रुपया आता है कि सभी काम निकल जाते हैं। लोग दरयाफ्त करते हैं कि अगर सतसंग में रुपया आना बन्द हो जावेगा तो क्या करोगे? मैं कहता हूँ कि जिस गालिक के नाम पर रुपया खर्च किया जाता है उससे अजमारूज(प्रार्थना) करेंगे। वह पूछते है अगर वह भी मदद न करे तो क्या करोगे? मैं जवाब देता हूँ कि वह सब काम जिन पर सतसंग का रुपया सर्फ़(व्यय) होता है बन्द कर दिये जायेंगे। अगर वह मालिक चाहता है कि उसके बंदों की कुछ सेवा हमारी मार्फत हो तो हम दिल व जान से करने को तैयार है लेकिन सेवा के लिये जराये(साधन) बहम(उपलब्ध) पहुंचाना उस मालिक का काम है। और अगर वह जराये बन्द कर देता है तो जाहिर है कि वह हमसे या किसी से सेवा लेना नहीं चाहता। फिर हम भी उसी में राजी हैं जो उसकी रजा(मौज) है। गर्जेकि मौजूदा(वर्तमान) चन्दा मांगने का ढंग नापसन्दीदा(नापसन्द) है और नौजवानों को मेहनत व मशक्कत(परिश्रम) करने के बजाय भीख मांगने के लिये उकसाना है। इसलिये जितनी जल्दी यह रवाज बन्द हो जाये उतना ही अच्छा है।*  


     



*🙏🏻रा धा स्व आ मी🙏🏻*

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