Thursday, March 2, 2023

नीलकण्ठ भगवान शंकर


*मुक्तिदाता भगवान शंकर* 


*भगवान शंकर साक्षात् मुक्तिदाता है। वे मुक्तिदाता न केवल अपने ब्रह्मविद्या के उपदेशों के कारण है; बल्कि अपनी तप, भक्ति एवं योग के प्रति निष्ठा, तथा सर्व प्रथम अपनी विलक्षण आकृति के कारण भी मुक्तिदाता हैं।*


*दुल्हे की तरह से आते हुए महादेवजी को देखकर पहले तो कुछ लोग हँसे; लेकिन जैसे जैसे वे निकट आए, लोगों की प्रतिक्रिया में सतत परिवर्तन होता गया। सर्पों से एवं भस्म से युक्त शरीर को देखकर डर लगने लगा। जो लोग महादेवजी को निकटता से जानते हैं, उनके अन्दर तो प्रभु के दर्शन से अत्यंत धन्यता एवं कृतार्थता उत्पन्न होती है। सांसारिक दृष्टि से देखने पर उनकी वेशभुषा अत्यन्त विलक्षण, डरावनी तथा अमंगलकारी प्रतीत होती है, लेकिन ये अमंगल रूपी भगवान जब किसी पर कृपादृष्टि मात्र डालते हैं तो वह मंगल का थाम हो जाते हैं।*


*भगवान शिव उन समस्त वस्तुओं से युक्त हैं जिन्हें हम सांसारिक दृष्टिकोण से निकृष्ट, अमंगल एवं हेय समजते हैं, लेकिन इसके बावजूद वे आनन्द, शक्ति, विद्या, भक्ति आदि समस्त गुण एवं ऐश्वर्य की मूर्ति है। यह विरोधाभास किसी के भी मन को झकझोर देता है। हम सब देखा-देखी में इन मान्यताओं से युक्त होकर जीते रहते हैं कि हमारी वेशभूषा एवं रहन-सहन अगर विशिष्ट ऐश्चर्य से युक्त नहीं है तो हम बहुत छोटे असहाय एवं असमर्थ व्यक्ति हैं। हम पहले किसी वस्तु पर महत्व आदि आरोपित करते हैं, तदुपरान्त इसकी प्राप्ति में प्रसन्न एवं अप्राप्ति में दुःखी होते रहते हैं। मूल समस्या अपनी इष्ट वस्तु की अप्राप्ति नहीं है, बल्कि अपनी निराधार मान्यताओं की। हम लोगों ने जीवन में अनेकों बार अपनी इष्ट वस्तुओं की प्राप्ति करी है एवं अनिष्ट को दूर रखने में भी सफल हुए हैं, लेकिन तब भी ब्राह्मी कृतार्थता से दूर हैं। महादेवजी की वेशभूषा एवं रहन-सहन हमें अपनी मान्यताओं के बारे में झकझोर देती है और पुनरालोकन की प्रेरणा देती है। जो मनुष्य अपनी निराधार मान्यताओं से मुक्त हो जाता है वे ही वस्तुतः मुक्त होते हैं। अतः शास्त्र ये कहते हैं कि 'मन एव मनुष्याणां कारण बन्ध मोक्षयोः ।' निवृत्ति के मूर्तिमान भगवान शिवजी का समस्त जीवन हमारी मिथ्या मान्यताओं पर प्रहार करते हुए हमें उनसे मुक्ति की प्रेरणा एवं मार्ग दिखाता है।*


*प्रवृत्ति  मनुष्य को निवृत्ति की आवश्यकता एवं प्रेरणा देता हुआ भगवान का रूप एवं धाम सर्व प्रथम हम सब को तपस्या, एकान्त वास एवं प्रकृति प्रेम की प्रेरणा देता है। भगवान शंकर प्रकृति के बहुत बड़े प्रेमी हैं अतः वे कैलास जैसे स्थान में वास करते हैं। जो भी मनुष्य प्रकृति से दूर होगा वह संसार में उलझता ही चला जाएगा। भगवान शंकर के भक्त प्राकृतिक सौंदर्य से युक्त स्थानों में जाकर न केवल उसका दिव्य आनन्द लेते हैं बल्कि ऐसे स्थानों में तपस्थी की तरह से रहते हुए अपने शरीर की अनेको पराधीनता से युक्त आदतों से मुक्त होते हैं। ऐसे संवेदनशील तपस्वी भक्त अपने मन में गहराई तक भिन्न भिन्न चीजों से मुक्त होकर रहते हैं। प्राकृतिक स्थानों में तपस्थी की तरह रहने से मनुष्य निडर एवं अहिंसक हो जाता है। यह ईश्वर का प्रगाढ़ भक्त एवं आत्मसंतोषी भी होने लगता है। जिन जीव-जन्तु एवं जानवरों से हम डरा करते थे वे भी हमारे सखा जैसे हो जाते हैं। भगवान शंकर के शरीर में लिपटे हुए सर्प हमें इसी की शिक्षा देते है। सर्पों को भगवान की जितेन्द्रियता का भी प्रतीक बताया जाता है। उनके शरीर में लिपटे सभी सर्पों का मुख बाहर की तरफ होता है, अर्थात् वैराग्य रूपी धन से युक्त होने के बाद ये सर्प तुल्य इन्द्रियाँ हमें किसी भी प्रकार की पीडा नहीं देती हैं। अत्यंत प्रेम एवं आत्मीयता से लिपटे हुए ये सर्प अपना फन बाहर की तरफ मोड़े हुए ऐसे स्थित रहते हैं जैसे मानो किसी अति विशिष्ट खजाने की रक्षा कर रहे हो। महादेवजी निश्चित रूप से अतिविशिष्ट खजाना ही है। वे ऐसे ज्ञान से युक्त है, जिसकी वजह से दूषण भी भूषण हो जाय। उनकी तीसरी आँख ज्ञान-चक्षु का प्रतीक है। वे प्रतिक्षण जीवन के तत्व के ज्ञान से युक्त रहते हैं। वे ज्ञानरूपी गंगा को अपने सिर पर धारण करते है और समस्त विश्व के कल्याणार्थ अपनी एक लट से इस ज्ञानगंगा को इस लोक में प्रवाहित भी करते हैं।*


*तत्त्वज्ञान एवं कृतार्थता के धाम शिवजी की लोककल्याण की भावना तो इस प्रकार की है कि वे दूसरों के सुख के लिए अपने जीवन का भी मोह नहीं रखते हैं। उनका नीलकण्ठ उनके इस ही स्वभाव का योतक है।*


*भगवान शंकर प्रत्येक मनुष्य को निवृत्ति की प्रेरणा देते रहते हैं। इसके लिए ये कभी-कभी अपने विलक्षण शस्त्र त्रिशूल का भी प्रयोग करते हैं। त्रिशूल अर्थात् तीन ऐसे काँटे की तरह चूमने वाले शुल जो हमें सतत अपनी मूलभूत मान्यताओं का पुनरालोकन करवाने वाले निमित्त है। ये तीन शूल जीवन के तीन प्रसिद्ध संताप है अथवा माया के तीन गुण है। हम अपने आप को कितना भी सुरक्षित एवं व्यवस्थित करने का प्रयास करें तो भी आध्यात्मिक, आधिभौतिक अथवा आधिदैविक निमितों से हमें कुछ न कुछ संताप प्राप्त होता ही रहेगा। हमें त्रितापों एवं माया के गुणों से तब तक पीड़ा मिलती रहेगी जब तक हम मायापति के भक्त नहीं बन जाते है। भगवान शंकर कठोर दिखते हैं, लेकिन अत्यन्त कोमल स्वभाव के हैं। वे हमारे सच्चे हितैषी हैं। हमें अपनी तरह भगवान निर्भीक, उदात्त एवं धन्य बना देते हैं।*



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