देश-दुनिया…
देश और दुनिया में हो रही राजनीतिक उठापटक पर एक नजर…
कहां गये नेताजी?
इसे बेफिक्री कहें या बड़े लोगों की व्यस्तता कि पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी से लेकर संसदीय राज्यमंत्री बी के हांडिक, ज्योतिरादित्य सिंधिया, नवजोत सिंह सिद्धू, राज बब्बर, जया प्रदा जैसे कई नामी गिरामी सांसदों के पास गांव के लिए समय की कमी है। हाल यह है कि इन जैसे कई सांसदों ने विगत वर्ष में अपने अपने क्षेत्र में ग्रामीण विकास की समीक्षा के लिए गठित जिला निगरानी समिति की एक भी बैठक नहीं की है। जबकि कानूनन उन्हें वर्ष में चार बैठकें करने की जिम्मेदारी दी गई है और यह भी साफ कर दिया गया है कि बैठकें न करने पर उस क्षेत्र में योजनाओं के लिए केंद्रीय फंड रोका जा सकता है।
संसद में आम तौर पर सदस्यों की ओर से योजनाओं के क्रियान्वयन में जन प्रतिनिधि की भागीदारी बढ़ाने की मांग भले ही की जाती रही हो, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि वस्तुत: उनकी रुचि कम ही है। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय ने सांसदों को जिला निगरानी समिति की कमान दी लेकिन उसका प्रदर्शन निराशाजनक है। दरअसल, संबंधित सांसदों की अध्यक्षता में यह बैठक हर तीन माह पर किए जाने का निर्देश है। इस नाते 2006-07 में कुल 595 जिलों में लगभग 2400 बैठकें की जानी थीं, लेकिन सिर्फ 753 बैठकें हो सकी हैं। अधिकतर सांसदों ने महज एक-दो बैठकें कर औपचारिकता निभा दी हैं।
जबकि लगभग सौ सांसदों ने पिछले वर्ष एक भी बैठक नहीं की है। आंकड़े बताते हैं कि आडवाणी के क्षेत्र गांधीनगर में कोई बैठक नहीं हुई है। हालांकि आंकड़ों में केंद्रीय रेल मंत्री लालू प्रसाद के क्षेत्र छपरा (सारण) में भी बैठक की कोई जानकारी नहीं है, लेकिन उनके समर्थकों का कहना है कि उन्होंने संभवत: 2007 के फरवरी में एक बैठक ली थी। जल संसाधन राज्य मंत्री व राजद सांसद जयप्रकाश नारायण यादव ने भी जमुई जिले में कोई समीक्षा बैठक नहीं की। अहमदाबाद से आने वाले भाजपा के तेज तर्रार नेता हरिन पाठक और शब्दों के जाल फैलाने वाले अमृतसर के सांसद नवजोत सिंह सिद्धू ने भी कभी बैठक की सुध नहीं ली। कांग्रेस के युवा नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया, रामपुर से आने वाली सपा सांसद व पूर्व सिने तारिका जयाप्रदा, अपने भाषणों में उग्र व संवेदनशील दिखने वाले राज बब्बर, झारखंड से आनेवाले राजद के धीरेंद्र अग्रवाल, अकाली दल के सुखबीर सिंह बादल जैसे कई नेताओं के पास जिला निगरानी समिति के लिए समय का अभाव रहा।
सबसे बुरी स्थिति जम्मू-कश्मीर की है। यहां 14 में से 12 जिलों में कोई बैठक नहीं हुई। सबसे अच्छा प्रदर्शन पश्चिम बंगाल का है। यहां प्रारंभिक विरोध के बावजदू सांसदों ने एक बैठक ले ली है। सूत्रों का कहना है कि अब केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री डा. रघुवंश प्रसाद सिंह ने इन सभी नेताओं को पत्र लिखकर चौकन्ना करने का मन बनाया है। इसके साथ ही आगामी संसदीय सत्र के दौरान लगभग एक सप्ताह तक सभी सांसदों के साथ बैठक भी की जाएगी।
पैसा और ग्लैमर के पेज थ्री
एक समय पाठकों के बीच बहुत कम लोकप्रियता वाली ब्रिटिश पत्रिका ‘द सन’ के संपादक लैरी लैम्ब ने जब युवती स्टीफनी रान की टॉपलेस तस्वीर पेज तीन पर छापने का निर्णय लिया होगा तो उनकी मंशा अपने बॉस रूपर्ट मर्डोक को मुश्किल में डालना नहीं बल्कि पत्रिका को लोकप्रियता दिलाना और उसका प्रसार बढ़ाना था। दरअसल यह शुरूआत थी उस दुनिया की, जिसे आज सेलिब्रिटीज की दुनिया कहते हैं और इस दुनिया के भीतर झांकने की ललक आम लोगों में बढ़ती जा रही है।
समाज में खास और महान लोगों के समानांतर यह नई कतार उन लोगों की है, जिन्हें सेलिब्रिटीज कहते हैं और यही उन्हें कहलाना भी पसंद है। दिलचस्प है कि भारत जैसे देश में, जहां बाजार की धमक बाकी दुनिया के मुकाबले थोड़ी बाद में महसूस की गई वहां आज इस समानांतर कतार में एक तरफ राखी सावंत खड़ी हैं तो दूसरे छोर पर डॉ नरेश त्रेहन जैसे नामी सर्जन। ये वो लोग हैं जिन्हें लत लग चुकी है चर्चा में रहने की और जिन्हें भय लगता है अपने जैसों की दुनिया से बाहर निकलने में। यही कारण है कि उन्होंने अपनी रोजमर्रा की जिदगी के बीच से कई ऐसे मौके निकालने सीख लिए हैं जब वे साथ मिल बैठ सकें, गपशप कर सकें और अपनी खुशी और तसल्ली के लिए पीने-पिलाने तक की हसरत पूरी कर सकें। यह कहना भी पूरी तरह सही नहीं है कि मिल-जुलकर ऐसे मौके, जिन्हें पेज थ्री पार्टी के तौर पर ज्यादा जानते हैं, वहां सिर्फ ग्लैमर और चकाचौंध की दुनिया से सरोकार रखने वाले लोग ही पहुंचते हैं। मुजफ्फर अली, प्रसून जोशी, प्रह्लाद कक्कड़, शोभा डे, जावेद अख्तर जैसे ‘क्रिएटिव’ कहे जाने वाले लोग भी आज बेतकल्लुफी से इन पार्टियों में अपने मन की कहते और करते देखे जाते हैं। दरअसल महानगरों में मेल-जोल के मौके बिल्कुल खत्म हो गए हैं और यही कारण है कि अलग हटकर करने वाले लोग इन पार्टियों में आते-जाते हैं।
इन पार्टियों में अपनी लक-दक दिखाने के लिए भी कई लोग जाते हैं या वैसे लोग, जिनकी आदत में यह शामिल हो गया है। पेज थ्री पर छपी इन पार्टियों की झलक देख लोगों के मन में लालसा जगती होगी कि आखिर इन पार्टियों में होता क्या है। टीवी एंकर एवं शो होस्ट गीतिका गंजू कहती हैं, ‘पार्टी र्सिकल के पुराने लोग मानसिक रूप से संभले हुए हैं जबकि नये लोगों का व्यवहार मूर्खतापूर्ण है। इनमें गहराई नहीं है, ये ज्यादा पीते हैं। कम उम्र के लोग हैं, खुद को बड़ा समझते हैं। इनमें गर्मजोशी नहीं होती। ये संवेदनशील भी नहीं होते।’ गीतिका के कथन से पैसे वालों की जबरदस्ती रखी गई पार्टियों की मानसिकता का खुलासा होता है। ये पार्टियां भी अलग-अलग किस्म की होती हैं। कुछ में केवल फैशन र्सिकल के लोग ही जाम उठाते नजर आते हैं। दिल्ली में होने वाली पार्टियों में मिस इंडिया रह चुकीं मॉडल नेहा कपूर, फैशन डिजाइनर रोहित बल, शिवानी वजीर पसरिच, मेकअप आर्टिस्ट अंबिका पिल्लई कुछ ऐसे नाम हैं जो आए दिन अखबार के पेजों पर दिख जाते हैं। फैशन प्रीव्यू के नाम पर भी ऐसी पार्टियों का आयोजन जमकर किया जाता है। एक ऐसी ही पार्टी में नेहा कपूर मीडिया का ध्यान अपनी आ॓र आर्किषत करने के लिए टेबल पर चढ़ गईं और लगी बोलने- मैं उड़ रही हूं, मैं मजे कर रही हूं।’ जाहिर है, लोगों का ध्यान उनकी आ॓र गया। इस तरह की चोंचलेबाजी इन पार्टियों में खूब होती है।
अखबार के पेजों पर दूसरी तरह की खास पेज थ्री पार्टियों की भी रपट छपती है, जिनमें शामिल होता है वह वर्ग जिससे हम प्रभावित रहते हैं। इस तरह की पार्टियां पुस्तक विमोचन, संगीत पुरस्कार आदि के उपलक्ष्य में आयोजित की जाती हैं। सुषमा सेठ, अमजद अली खां और शोभा डे सरीखे लोग इसका हिस्सा बनते हैं। दिल्ली में काफी समय से रह रहे जाने-माने साहित्यकार विष्णु प्रभाकर कहते हैं कि पहले हमारा जमावड़ा कॉफी हाउस में लगता था पर अब उसकी जगह ले रही है यह पार्टी संस्कृति। अब कमी भी हो गई है कॉफी हाउस की, अधिकतर तो बंद ही हो गए हैं। ऐसे में ये र्पािटयां ही नए समय के क्रिएटिव लोगों के मेल-जोल की जगह ले रही हैं। अब तो कई छोटे शहरों- जैसे पटना में कॉफी हाउस बंद हो गए हैं जहां रेणु का आना-जाना लगातार होता था।’
इन सबके अलावा पेज थ्री पार्टियों की चुहल का हिस्सा होता है एक ऐसा वर्ग, जो न तो ग्लैमर की दुनिया का हिस्सा है और न ही क्रिएटिव वर्ग का। हां, यह जरूर है कि यह वर्ग धीरे-धीरे इस आ॓र बढ़ जरूर रहा है। दिल्ली-मुंबई के व्यवसायियों की एक कतार इन पेज थ्री पार्टियों में नजर आने लगी है, बल्कि यह कहना ज्यादा उचित होगा कि ये खुद ही ऐसी पार्टियां आयोजित करते हैं। पेज थ्री पर छपने की इनकी ललक इस कदर बढ़ी है कि ये लोग सी-डी ग्रेड के बॉलीवुडिया सितारों को बतौर रकम पेश करके अपनी पार्टी में आमंत्रित करने लगे हैं ताकि इनकी तस्वीर किसी तरह अखबार के में छप सके। पायल रोहतगी, प्रीति झंगियानी, अमृता अरोड़ा, मेघना नायडू जैसी अभिनेत्रियों के अलावा आइटम नंबर करने वाली लड़कियों को भी यहां आमंत्रित किया जाता है। मीडिया ने भी इसका फायदा उठाना शुरू कर दिया है। कई अखबार और चैनल वाले स्पेस बेचने लगे हैं। एक आ॓र जहां इनकी बिक्री बढ़ती है वहीं चैनलों की टीआरपी बढ़ती है और इन पार्टियों का क्रेज भी।
महिला मुक्ति के लिए स्वतंत्र महिला आंदोलन की जरूरत
महिलाओं के सशक्तीकरण को देखने के पहले सशक्तिकरण के विभिन्न रूपों को देखना जरूरी है। यह सही है कि राजनीति से लेकर तमाम क्षेत्रों में महिलाओं का हस्तक्षेप बढ़ा है। कई राजनीतिक पार्टियों की मुखिया महिलाएं हैं। रोजगार के क्षेत्र में भी महिलाओं की उपस्थिति में उल्लेख्नीय वृद्धि हुई है। आज प्रत्यक्ष रूप से अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी है। समाज में महिलाओं के प्रति सोच में बदलाव आया है। महिलाओं के ऊपर होने वाले अत्याचारों पर अब पहले जैसी खमोशी नहीं रहती। मीडिया से लेकर प्रशासन तक ऐसी घटनाओं पर नोटिस लेता है। एक तरह से जमीन से लेकर आसमान तक महिलाओं अपनी कामयाबी का झंडा बुलंद किया है।
कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है जिसमें जाने से महिलाओं को कोई रोक सके। उनके लिए अवसर के सारे दरवाजे खुले हैं। प्रत्येक जगह वह पुरूष समाज को कड़ी चुनौती पेश कर रही हैं। लेकिन यह पूरी तस्वीर का सिर्फ एक पहलू है। दूसरा पक्ष कुछ और ही बयां करता है। आर्थिक स्तर पर रोजगार में शामिल महिलाओं के ऊपर दबाव बढ़ गया है। कार्यस्थल पर शोषण बढ़ा है। मातृत्व अवकाश बंद कर दिया जा रहा है। महिलाओं को घर-परिवार की जिम्मेदारी के साथ नौकरी करनी पड़ रही है। शिशु-पालन केंद्र न होने से उन्हें और कठिनाई का सामना करना पड़ता है।
बिहार जैसे प्रांत में महिलाओं की जीत के पीछे वही पितृसत्तात्मक शक्तियां हैं, वही कुर्सी संभाल रहे हैं। बिहार स्थानीय निकाय चुनाव के पोस्टर को देखा जाए तो तस्वीर और साफ हो जाती है। महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों की प्रचार सामग्री पर पुरूषों के ही चित्र छपे थे। जहां पतियों की फोटो भारी-भरकम थी वहीं महिला प्रत्याशी के चित्र छोटे तो थे ही, उसके साथ उनका किसी की पत्नी, बहन और मां के रूप का जिक्र था। चुनाव प्रचार में महिलाएं कहीं नहीं दिख रही थीं। ऐपवा की प्रत्याशी जब चुनाव प्रचार में उतरीं तब जाकर दूसरी महिला प्रत्याशियों को उनके घर वालों को भारी मन से भेजना पड़ा। आज बिहार में ऐसे पदों पर जीतकर आई महिलाओं के बगल में उनके पतियों को बैठने की पूरी छूट शासन-प्रशासन से मिली हुई है। ऐपवा जैसे महिला संगठनो के द्वारा संघर्ष के बाद कुछ स्थानों पर यह व्यवस्था खत्म हुई है।
बिहार में राबड़ी देबी के मुख्यमंत्री रहने पर भी लोग उनके पति लालू प्रसाद को ही वास्तविक मुख्यमंत्री मानते रहे। पूरे कार्यकाल तक राबड़ी मात्र कठपुतली बनी रहीं। महिला सशक्तीकरण का यह मॉडल स्वतंत्र अस्तित्व के बिना बेकार है। देश में राजनीति के शीर्ष पर बैठी महिलाओं की बात की जाए तो यह कहा जा सकता है कि जितनी भी महिलाएं राजनीति में हैं वे अपने संघर्ष के बल पर कम और विरासत की राजनीति के बल पर ज्यादा हैं। जयललिता, सोनिया गांधी, मेनका गांधी इसके उदाहरण है। मायावती की राजनीतिक समझ और संघर्ष एक रूप में उन सबसे अलग है, पर आज सोनिया, जयललिता, ममता, मेनका और मायावती की पार्टी में दूसरी कतार में महिला नेताओं का अभाव है। कोई भी महिला नेता इतने बड़े राजनीतिक पद पर पहुंचने के बाद दूसरी महिलाओं को अपने जैसा नहीं बना पाई ऐसा क्यों? इसका सीधा सा कारण है कि ऐसी महिलाएं किसी सहारे के बल पर राजनीति के शिखर पर पहुंची है। ऐसी महिलाएं अपने पुरूष सलाहकारों पर ही निर्भर रहती हैं।
कम्युनिस्ट पार्टियों में एक सिस्टम के तहत महिलाएं आगे बढ़ती हैं। वे पग-पग पर पुरूष सत्ता के खिलाफ आवाज बुलंद करती हैं। सोनिया गांधी यूपीए की सरकार में चाहे जितनी बड़ी भूमिका में हों लेकिन वे पुरूष सत्ता के खिलाफ नहीं जा सकती हैं। प्रतिभा पाटिल को तो राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाकर जिता सकती हैं लेकिन पुरूष वर्चस्व के खिलाफ यदि कोई कदम उठाती हैं तो अलगाव में पड़ने का डर है। यही कारण है कि सोनिया भी महिला आरक्षण विधेयक पर सर्वसम्मति का राग अलापती है। चुनाव घोषण पत्र में सारी पार्टियां महिला आरक्षण की बात करती हैं लेकिन संसद में सारे पुरूष सांसदो को अपना वर्चस्व खत्म होने का डर सताने लगता है।
संसद में पहुंची ढेर सारी महिला सांसद भी इस बिल के लिए पहल नहीं करतीं, क्योकि उन्हें लगता है कि ब्राहमणवादी मूल्यों और पुरूष प्रधान समाज में वे अलग-थलग पड़ जाएंगी। महिलाएं आज भी पुरूषों द्वारा निर्धारित मर्यादा के भीतर रह रही हैं। सोनिया गांधी चुनाव प्रचार में आदर्श भारतीय महिला बन कर ही जाती हैं। मेनका, वसुंधरा, सुषमा सबका असली रूप चुनाव के समय पता चलता है। ये सारी महिलाएं पारंपरिक पुरूष वर्चस्ववादी मूल्यों के पक्ष-पोषण में रह कर ही अपनी राजनीति करती हैं। महिला बिल पर उमा भारती ने पिछड़ी महिलाओं को अलग से आरक्षण का मुद्दा उठाकर इस बिल को कमजोर करने में कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ी। उमा भारती को लगता है कि पिछड़ों पर तो राजनीति करना आसान है लेकिन महिला सवालों को केंद्र में रखने पर वह अलग-थलग पड़ सकती है। यह जोखिम कोई भी नेता या पार्टी उठाने को तैयार नहीं है।
महिलाओं को अपने हितो की लड़ाई खुद लड़नी पड़ेगी। कोई पार्टी आसानी से महिला बिल पास नहीं करेगी। इसके लिए संघर्ष करना होगा। आज सफलता की जिस बुलंदी पर महिलाएं पहुंची हैं, उसकी हकदार वे स्वयं हैं। समाजवादी व्यवस्था में भी महिलाओं को अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक मुक्ति के लिए संघर्ष करना होगा। किसी पार्टी से जुड़े महिला संगठन या सरकारी महिला आयोग से महिलाओं की मुक्ति संभव नहीं है। महिला मुक्ति के लिए भारत में एक स्वतंत्र महिला आंदोलन की जरूरत है।
कानून 17, फिर भी बेहाल हैं असंगठित मजदूर
अगर केंद्र सरकार और इसकी एजेंसियों ने अपने कानूनों को सही तरीके से लागू किया होता तो देश के असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की स्थिति आज इतनी खराब नहीं होती। असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की सामाजिक, आर्थिक व व्यक्तिगत सुरक्षा के लिए अभी तक 17 कानून बनाए जा चुके हैं लेकिन इनमें से किसी भी कानून को सही तरीके से लागू नहीं किया जा सका है। इस बात का खुलासा असंगठित क्षेत्र में उद्यमशिलता पर गठित राष्ट्रीय आयोग (एनसीईयूएस) ने अपनी रिपोर्ट में की है। हालांकि आयोग ने पुराने कानूनों को सही तरीके से लागू करने के बजाय इन मजदूरों की स्थिति बेहतर बनाने के लिए अलग से एक और व्यापक कानून बनाने का सुझाव दे दिया है। आयोग ने असंगठित क्षेत्र में कार्यरत लगभग 40 करोड़ मजदूरों की स्थिति सुधारने के लिए दर्जनों सुझाव दिए हैं। इसमें इन मजदूरों को पर्याप्त वेतन देने, इनकी सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करने, इनके काम करने के स्थल व वातावरण को सुधारने की बात कही गई है। लेकिन जब आप असंगठित क्षेत्र के मजदूरों से संबंधित मौजूदा कानूनों को देखें तो साफ हो जाता है कि इन सब की व्यवस्था पहले से ही है। यह अलग बात है कि इन कानूनों के बारे में न तो मजदूरों को मालूम है और न ही सरकार इन्हें गंभीरतापूर्वक लागू कर पाई है। उदाहरण के तौर पर एनसीईयूसी ने असंगठित क्षेत्र में कार्यरत महिला मजदूरों को पुरुषों के समान मजदूरी दिलाने के लिए कई सुझाव दिए हैं जबकि हकीकत यह है कि समान पारिश्रमिक कानून, 1978 के तहत इस बारे में पहले से ही प्रावधान हैं। इसमें साफ-साफ कहा गया है कि कोई भी नियोक्ता लिंग के आधार पर अपने मजदूरों के बीच मजदूरी देने में भेद-भाव नहीं कर सकता। इसी तरह से आयोग की रिपोर्ट से साफ होता है कि देश के कई हिस्सों में बंधुआ मजदूरी अभी भी बेधड़क जारी है। आयोग ने इसे समाप्त करने के लिए कई सुझाव दिए हैं। जाहिर है कि वर्ष 1976 में बंधुआ मजदूरी को खत्म करने के लिए बनाए गए कानून को गंभीरता से लागू नहीं किया गया है। इसी तरह से असंगठित क्षेत्र में कार्यरत बाल मजदूरों की सुरक्षा के लिए बाल मजदूर (नियमन व रोक) अधिनियम, 1986 की मदद ली जा सकती है। खतरनाक क्षेत्र में कार्यरत मजदूरों के लिए भी पहले से कानून मौजूद है। आयोग ने पाया है कि खतरनाक माने जाने वाले क्षेत्रों में ज्यादा मजदूर असंगठित क्षेत्र के हैं इसलिए इनकी सुरक्षा के लिए तत्काल उपाय करने की आवश्यकता है। इसी तरह से विस्थापित असंगठित मजदूरों के लिए भी कानून है। यातायात क्षेत्र में कार्यरत मजदूरों की सुरक्षा मोटर ट्रांसपोर्ट वकरर्््स एक्ट, 1961 भी है। दवा उद्योग में कार्यरत श्रमिकों के लिए बिक्री संवर्द्धन कर्मचारी (सेवा शर्त) अधिनियम, 1976 है। मजदूरी भुगतान अधिनियम, 1976, बीड़ी व सिगार वर्कर्स एक्ट, 1966 और कांट्रेक्ट लेबर एक्ट, 1970 जैसे दर्जन भर और कानून हैं जो असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की स्थिति सुधारने में कारगर साबित हो सकते हैं।
जोशीला सेक्स जीवन जीते हैं भारतीय
कामसूत्र’ की धरती भारत में प्रेमी युगल सर्वाधिक जोशीला सेक्स जीवन व्यतीत कर रहे हैं और वह बिस्तर पर एक-दूसरे की सेक्स इच्छाओं और जरूरतों पर बिना हिचक खुलकर बातें करने में यकीन रखते हैं।
‘ड्यूरेक्स सेक्सुअल
वेल बीइंग’ द्वारा विश्व भर के कई देशों में कराए गए एक सेक्स सर्वेक्षण
में यह बात सामने आई है। सर्वेक्षण के मुताबिक दस में से सात भारतीयों का
दावा है कि वह अपने जीवन साथी के साथ जोशीला और सुखमय सेक्स जीवन व्यतीत कर
रहे हैं।
‘इन द बेडरूम’ नाम से
किए गए इस सर्वेक्षण के आँकड़ों के अनुसार भारतीय पुरुषों की औसतन छह
प्रेमिकाए हैं, जबकि भारतीय महिलाओं ने सिर्फ दो पुरुषों में दिलचस्पी
दिखाई। वहीं ब्रिटेन में यह आँकड़ा क्रमश: 16 और 10 है, जबकि विश्व भर के
औसत के मुताबिक पुरुषों के 13 स्त्रियों तथा महिलाओं के सात पुरुषों से
संबंध थे। इन आँकड़ों के लिए ड्यूरेक्स ने 26 देशों में लगभग 26 हजार लोगों
से उनके सेक्स जीवन के बारे में सवाल किए।
सर्वेक्षण के मुताबिक
तीन चौथाई भारतीय अपने साथी के साथ खुश और संतुष्ट थे, जबकि वैश्विक स्तर
पर यह आँकड़ा 58 फीसदी है। हालाँकि 76 फीसदी यूनानी और 80 फीसदी
मेक्सिकोवासी अपने साथियों से संतुष्ट थे, जबकि 49 फीसदी ब्रिटेनवासियों ने
अपने साथियों के साथ बेहतर सेक्स जीवन की बात कही।
ड्यूरेक्स द्वारा कराए
गए इस प्रकार के दूसरे सर्वेक्षण में यह बात सामने आई कि दो तिहाई भारतीयों
का मानना है कि उनका सेक्स जीवन रोमांचक और जोशीला है, जो कि ब्रिटेन में
38 फीसदी और फ्रांस में 36 फीसदी है।
सर्वेक्षण के मुताबिक
71 फीसदी भारतीय सप्ताह में एक बार सेक्स जरूर करते हैं, जबकि 19 फीसदी
सप्ताह में पाँच बार सेक्स क्रीड़ा का आनंद उठाते हैं, लेकिन इसके साथ
सर्वेक्षण में यह भी सामने आया कि 26 फीसदी भारतीय अपने साथी से बात करने
में शर्म महसूस करते हैं।
सर्वेक्षण में कहा गया
कि पूरे विश्व भर में एक समस्या जो सभी जगह सामने आई वह थी सेक्स क्रीड़ा
के दौरान अपने साथी से बातचीत में कमी की।
इस सर्वेक्षण में ऑस्ट्रिया, चीन,
ब्राजील, कनाडा, स्विट्जरलैंड, रूस, स्पेन, मेक्सिको, ऑस्ट्रेलिया, इटली,
ब्रिटेन, फ्रांस और अमेरिका में लोगों से सवाल किए गए।अपराध की राजधानी भी है दिल्ली
सत्ता का केंद्र और सुरक्षा के बेहद मजबूत तंत्र को सोच कर यदि कोई दिल्ली को सुरक्षित माने तो यह उसकी सबसे बड़ी भूल होगी। गृह मंत्रालय के सीधे नियंत्रण में होने के बावजूद दिल्ली में अपराध व अपराधियों के पौ-बारह है। यह तथ्य किसी सर्वे या किसी के बयान पर नहीं, बल्कि खुद गृह मंत्रालय के आंकड़ों से निकला है। अंडर वर्ल्ड के लिए दुनिया भर में बदनाम मुबंई दिल्ली से पीछे दूसरे नंबर पर है। इतना ही नहीं दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के तहत आने वाले 14 प्रमुख शहरों में भी अपराधों में सिरमौर है। चाहे जरूरत रोजी-रोटी की हो या फिर आगे बढ़कर कुछ कर दिखाने की। देश के दूरदराज के लोग महानगरों की तरफ खिंचे चले आते हैं। लेकिन इन महानगरों के हालात वैसे नहीं होते जैसे लोग सोचते हैं। देश के चार प्रमुख महानगरों दिल्ली, मुंबई, कोलकाता व चेन्नई में एक तरह से पूरा भारत बसता है। देश की राजधानी होने के नाते दिल्ली में यह संख्या ज्यादा है, लेकिन कानून-व्यवस्था के मामले में दिल्ली बाकी तीनों महानगरों से बदतर हैं। गृह राज्यमंत्री माणिकराव गावित ने संसद में एक लिखित सवाल के जवाब में जो आंकड़े रखे उनसे लगता कि दिल्ली अपहरणकर्ताओं के लिए सबसे मुफीद महानगर है। यहां पर वर्ष 2004 में 1066 व वर्ष 2005 में 1302 अपहरण के मामले दर्ज किए गए। इसी अवधि में अन्य महानगरों में मुंबई में 178 व 198, कोलकाता में 119 व 82 और चेन्नई में 37 व 55 अपहरण के मामले सामने आए। आगजनी के मामलों में भी दिल्ली सबसे आगे हैं। यहां पर वर्ष 2004 में आगजनी के 36 मामले दर्ज किए गए, जबकि मुंबई में 10 मामले सामने आए। वर्ष 2005 आगजनी के दिल्ली में 42, मुंबई में 10 मामले दर्ज किए गए। इन दोनों ही सालों में चेन्नई व कोलकाता में ऐसा कोई मामला दर्ज नहीं हुआ। केवल डकैती के मामलों में दिल्ली, मुंबई से कुछ पिछड़ी है। वर्ष 2004 में दिल्ली में 27, मुंबई में 42, चेन्नई में चार व कोलकाता में 19 डकैती के मामले सामने आए, जबकि वर्ष 2005 में दिल्ली में 23, मुंबई में 43, चेन्नई में पांच व कोलकाता में 12 मामले दर्ज किए गए। महानगरों की बात छोड़ यदि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) के तहत आने वाले दिल्ली व उसके आसपास के अन्य 13 प्रमुख शहरों की बात की जाए तो यहां भी दिल्ली सभी का सरदार बना हुआ है। 2005 में एनसीआर में अपहरण के 2336 मामले दर्ज हुए इनमें दिल्ली में 1590, गौतमबुद्ध नगर में 51, फरीदाबाद में 91, गाजियाबाद में 103, गुड़गांव में 38, अलवर में 86, बागपत में 33, बुलंदशहर में 81, झज्झर में 14, मेरठ में 139, पानीपत में 35, रेवाड़ी में 20, रोहतक में 16 व सोनीपत में 39 मामले दर्ज किए गए। डकैती के 102 मामलों में भी दिल्ली 27 मामलों के साथ सबसे आगे है। इसके अलावा आगजनी के 137 मामलों में अकेले दिल्ली में 47 मामले दर्ज हुए हैं।
न्यूक्लियर क्लब का हो-हल्ला
जिसे हम विशष्टि नाभिकीय क्लब कहते हैं, व्यवहार में उसकी विशष्टिता धीरे-धीरे ध्वस्त होती रही है एवं यह प्रक्रिया अभी भी जारी है। 6 अगस्त 1945 को हिरोशिमा एवं उसके तीन दिन बाद नागासाकी पर एटमी हमले के साथ अमेरिका एकाएक वैश्विक महाशक्ति का रूतबा पा गया। इस भयावह कदम से युद्ध का पूरा नजारा बदल गया। एक बम पूरे शहर को बरबाद करने के लिए काफी था। निश्चय ही युद्ध के उस डरावने माहौल में अनेक देशों के भीतर एटमी ताकत बनने की आकांक्षाएं कुलबुलाई होंगी। उस समय इस महाविनाशकारी तकनीक पर अमेरिका का एकल अधिकार था। यानी तब एटमी क्लब का वह अकेला सदस्य था। कम्युनिस्ट विचारधारा को दुनिया भर में स्थापित करने के अभियान में लगे सोवियत संघ ने 1949 में धमाका करके अमेरिकी एकल वर्चस्व को चकनाचूर किया एवं वह भी दूसरी महाशक्ति की पदवी पर विराजमान हो गया। दो विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करने वाले इन दोनों देशों के बीच प्रतिस्पर्धा की यह शुरूआत थी एवं सोवियत मानसिकता यह थी कि यदि उसने दुनिया को भयभीत करने वाली इस ताकत का प्रदर्शन नहीं किया तो फिर उसके साथ कोई देश नहीं आना चाहेगा एवं अमेरिका का वर्चस्व स्थापित हो जाएगा। इस प्रकार एटमी क्लब दो सदस्यीय हुई। सोवियत संघ भले दुनिया में आम आदमी के अधिकारों की रक्षा के नाम पर कम्युनिस्ट व्यवस्था को निर्यात करने का अभियान चल रहा था एवं अमेरिका लोकतंत्र के नाम पर उसका विरोध, किंतु दोनों की मनासिकता यही थी कि यदि किसी तीसरे ने इस क्लब में प्रवेश पा लिया तो उनकी महाशक्ति की वर्चस्ववादी छवि लुंठित हो सकती है। चूंकि ब्रिटेन अमेरिका का सर्वाधिक विश्वसनीय देश बन चुका था इसलिए 1952 में उसके धमाके में सहयोग कर उसने उसे भी क्लब में शामिल कर लिया। लेकिन उसके बाद से दोनों महाशक्तियों की कोशिश ऐसी सख्त व्यवस्था कायम करने की रही ताकि कोई भी अन्य देश इस महाविनाशकारी ताकत को हासिल करने की हिमाकत न करे। वैसे अमेरिका एवं सोवियत संघ को आरंभ में शायद यह कल्पना नहीं थी कि दुनिया को भयाक्रांत करने वाले विनाशकारी अस्त्रोें की उसकी क्षमता को चुनौती मिल सकेगी। किंतु, जब शक्ति संतुलन, प्रभाव विस्तार एवं दुनिया में शक्तिशाली होने की यह कसौटी हो गई हो तो सबकी ललचाई आंखें इस आ॓र लग गईं। फ्रांस ने 13 फरवरी, 1960 को विस्फोट कर अपने लिए उस विशष्टि क्लब का दरवाजा खोल लिया। फ्रांस ने उस समय धमाका किया जब अमेरिका एवं सोवियत संघ ने फ्रांस एवं चीन के इरादों का संकेत मिलने के बाद 1958 से परीक्षणों पर एकतरफा रोक लगाकर जिनेवा में परीक्षणों पर रोक के लिए संधि की तैयारी आंरभ कर दी थी। यह सीधे-सीधे अंतरराष्ट्रीय शक्ति संतुलन एवं रियलपोलिटिक अवधारणा को चुनौती थी। लेकिन फ्रांस ने इसे अपनी राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए अपरिहार्य घोषित किया एवं अंतत: पांच वर्षों बाद वह एटमी क्लब में प्रवेश कर गया। इसके बाद चीन ने 31 अक्टूबर 1964 को धमाका कर यह घोषणा की कि वह नाभिकीय शक्ति है तो शेष चारों शक्तियों को यह सूझ ही नहीं रहा था कि क्या करें। वास्तव में चीन के इस कदम के बाद ही इस महाविनाशक ताकत को नाभिकीय अप्रसार संधि के दायरे में कैद करके शेष देशों के प्रवेश का रास्ता बिल्कुल बंद करने की व्यवस्था की गई। इसके अनुसार केवल ये पांच देश नाभिकीय संपन्न हैं एवं शेष 185 गैर नाभिकीय देश। इसके बाद सिद्धांत रूप में इस विशेषाधिकार संपन्न क्लब की सदस्यता न केवल स्थायी रूप से बंद हो गई, बल्कि इसमें प्रवेश करने की कोशिश करने वालों के लिए सजा भी निर्धारित हुई। सामंतवादी सोच वाली यह संधि पांचों देशों के नाभिकीय अस्त्रों पर विशेषाधिकार को मान्यता देती है एवं अन्यों को ऐसा करने से वंचित करती है। इसी के सहयोगी के तौर पर परीक्षणों पर पूर्ण प्रतिबंध संबंधी संधि जिसे सीटीबीटी भी कहते हैं, का विकास हुआ। ये दोनों संधियां नाभिकीय क्लब के चारों आ॓र ऐसी सख्त एवं डरावनी बनकर खड़ी हैं जिसके भीतर प्रवेश करने की हिमाकत तक करने वालों की शामत आ जाती है। किंतु कुछ महत्वांकाक्षी देशों ने इसके बावजूद प्रयास जारी रखा। 1970 के दशक में कई देशों ने एक साथ नाभिकीय शक्ति बनकर इस विशष्टि क्लब में प्रवेश की कोशिश की थी। मसलन, दक्षिण कोरिया, जिसे अमेरिका ने इस धमकी के साथ पीछे हटने को मजबूर कर दिया कि ऐसा करने पर वह प्रायद्वीप से अलग हो जाएगा। इजरायल ने 1981 में एक हवाई हमला कर इराक की कोशिशों को विराम दे दिया। लेकिन दक्षिण अफ्रीका एवं अर्जेंटिना ने यह सार्वजनिक तौर पर स्वीकार किया कि उन्होंने नाभिकीय हथियार बना लिए थे जिसे बाद में नष्ट कर दिया। इजरायल के बारे में तो माना जाता है कि उसके पास नाभिकीय ताकत है। उसके पास नहीं भी हो तो भी वह अमेरिकी नाभिकीय छतरी तले है। लीबिया एवं ईरान उन देशों में हैं जो लंबे समय से नाभिकीय ताकत बनने की जुगत लगा रहे हैं। उत्तर कोरिया 1980 के दशक से ही नाभिकीय ताकत विकसित करने में लगा था। उसके साथ 1984 से ही बातचीत चली एवं 1994 में बातचीत के ढांचे पर सहमति भी हुई। लेकिन उसे मनाना संभव नहीं हुआ। उसने पिछले वर्षो में धमाका करके स्वयं को नाभिकीय ताकत घोषित कर दिया। इसके पहले उसने अप्रसार संधि एवं सीटीबीटी से अपने को अलग करने की घोषणा कर दी। इसका प्रभाव चारों आ॓र दिख रहा है। वास्तव में यह स्वीकार करना चाहिए कि अप्रसार संधि या अन्य भेदभाव कारी व्यवस्थाएं दृढ़ निश्चयी देशों को नाभिकीय ताकत हासिल करने से रोकने में अक्षम है। कम से कम इसका कोई नैतिक प्रभाव तो विश्व मानस पर नहीं ही है।क्लब के विशष्टि सदस्य किस प्रकार का पाखण्ड एवं दोहरा आचरण बरतते हैं उसका एक उदाहरण चीन है। चीन ने धमाके के साथ तीसरी दुनिया के देशों के ऐसे हितैषी नेता की छवि बनाने की कोशिश की थी, जो न केवल भेदभावमूलक अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था का सक्रिय विरोध करता है, बल्कि उन छोटे एवं पिछड़े देशों के हितों की सुरक्षा के लिए भी खड़ा है जिनके पास तकनीकी सामर्थ्य एवं राजनीतिक कौशल का अभाव है। दूसरे शब्दों में उसका संदेश यह था कि उसने तीसरी दुनिया के प्रतिनिधि के नाते विस्फोट कर शक्तिसंपन्न देशों को चुनौती दी है। किंतु इसने भी उसी भेदभावकारी सामंती व्यवस्था को स्वीकार कर 1992 में अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर किया तथा 1995 में इस संधि की आयु सीमा को अनिश्चितकाल तक बढ़ाने के निर्णय का समर्थन कर स्वयं को तीसरी दुनिया में एकमात्र नाभिकीय शक्ति बने रहने की पुख्ता व्यवस्था की। भारत ने पहले 1974 एवं फिर 1998 में पोखरण परीक्षण द्वारा चीन की इस विशष्टि स्थिति को तो ध्वस्त किया ही, पांच सदस्यीय विशष्टि क्लब की दीवार के समानांतर एक अस्पृश्य सदृश छोटा ही सही एकल बसेरा स्थापित किया। विस्फोट के साथ नाभिकीय अस्त्र क्षमता का सबूत देने के बावजूद पाकिस्तान की स्थिति संभ्रम वाली रही। वह यह तय ही नहीं कर पाया कि पुरानी अवधारणा के अनुसार वह इसे इस्लामी बम करार दे या कुछ और। वह अभी तक इस ऊहापोह की मन:स्थिति से गुजर रहा है। बावजूद इसके इन दोनों देशों की भूमिका ने क्लब के दरवाजे पर तो दस्तखत दे ही दी। पोखरण द्वितीय के बाद सबसे आक्रामक देश चीन ही था जिसने विभिन्न तर्कों से यह साबित करने की कोशिश की कि अमेरिका एवं रूस वैधानिक रूप से भारत की नाभिकीय क्षमता को वापस शून्य तक लाने के लिए कार्रवाई करने को बाध्य हैं। यह बात दीगर है कि अमेरिका एवं रूस ने इसके विपरीत धीरे-धीरे भारत के साथ सहयोग की नीति अपनाई है। निश्चित तौर पर चीन को यह अंतर्मन से स्वीकार नहीं है। एशिया एवं अफ्रीकी देशों का नेता बनने का उसका सपना इससे टूट रहा है। लेकिन चीन अतीत के प्रसंगों एवं नाभिकीय शक्ति के संदर्भ में दुनिया के बदलते मनोविज्ञान को शायद नजरअंदाज कर रहा है। यदि दक्षिण कोरिया को अमेरिका रोक सका तो इस कारण कि दक्षिण कोरिया ही नहीं, जापान एवं दक्षिण पूर्व एशिया के अन्य देशों को अमेरिकी रवानगी की संभावना ने भयभीत कर दिया था। शीतयुद्व काल में दोनों खेमों के देश अपनी महाशक्ति से रक्षा के लिए आगे आने की उम्मीद करते थे। द. कोरिया को तो अमेरिका ने वायदा किया था कि किसी विपरीत स्थिति में वह उ. कोरियापर हमला कर देगा। हालांकि उसने चीन के संबंध में ऐसा नहीं कहा है। इसलिए जापान में नाभिकीय हथियार बनाने की मांग उठ रही है। ईरान के अड़ियल रवैये के कारण पश्चिम एशिया के सऊदी अरब, मिस्र जैसे देशों की बेचैनी बढ़ रही है। वास्तव में नाभिकीय क्लब की विशष्टिता के लिए बनाई गई व्यवस्थाएं इतनी एकपक्षीय हैं कि इसके विरूद्ध विद्रोह उबलना स्वाभाविक है। हालांकि अप्रसार संधि का अंतिम लक्ष्य नाभिकीय अस्त्रों का सम्पूर्ण नाश है, किंतु पांचों में से कोई देश इसकी पहल को तैयार नहीं है। सीटीबीटी को इस लक्ष्य की पूर्ति की सीढ़ी बताया गया, लेकिन अमेरिका ही इस संधि का अनुमोदन नहीं कर पाया है। यह बात अलग है कि उसने अपनी आ॓र परीक्षणों पर एकतरफा रोक लगा रखी है। कुछ देशों को नाभिकीय आपूर्ति समूह में शामिल कर विशष्टिता का दर्जा दिया गया। इससे उनके अहं की तुष्टि होती है। लेकिन जो देश इन सबसे बाहर हैं उनके लिए आखिर रास्ता क्या है? पाकिस्तान के अब्दुल कादिर खान जैसे नाभिकीय वैज्ञानिक उनके लिए उम्मीद की किरण हैं, जो चोरी से तकनीक एवं उपाय दोनों प्रदान करने के लिए आगे आते हैं। लीबिया के राष्ट्रपति कर्नल गद्दाफी के पुत्र ने कहा कि उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि नाभिकीय बम बनाने का तरीका कितनी आसानी से हासिल किया जा सकता है। वास्तव में पूरी स्थिति डरावनी है एवं नाभिकीय क्लब के बने रहने से सभ्यता के विनाश एवं भूमंडल के श्मशान व कब्रगाह में तब्दील होने का खतरा बना हुआ है।
देह व्यापार – कानून में बदलाव जरूरी
केंद्र सरकार इमोरल ट्रैफिकिंग पर रोक लगाने के लिए 1956 में बने कानून में संशोधन करने जा रही है। सरकार जहां इस संशोधन को सेक्स वर्करों की समस्याओं को कम करने की दिशा में अहम बता रही है वहीं देश भर के सेक्स वर्कर सरकार के कदम का खुल कर विरोध कर रहे हैं। इस कानून में बदलाव के लिए एक संसदीय समिति ने संसद में 23 नवंबर, 2006 को संशोधन प्रस्ताव रखा। समिति ने कानून में संशोधन संबंधी सुझाव भी दिए। अब महिला और बाल कल्याण मंत्रालय ने भी इसमें कुछ संशोधन कर सरकार को अंतिम मुहर लगाने के लिए भेजा है। हालांकि जिनके लिए यह कानून बनाया जा रहा है उनको सरकार विश्वास में नहीं ले पाई है।
महिला बाल कल्याण मंत्रालय मौजूदा कानून की धारा 2 (एफ) के तहत परिभाषित वेश्यावृति की नई व्याख्या करना चाहता है। वह धारा 2 (जे)और 2 (के) में व्यावसायिक यौन शोषण और शोषण के शिकार की व्याख्या को शामिल करना चाहता है। देश भर के सेक्स वर्करों का विरोध इसी संशोधन को लेकर है। महिला और बाल कल्याण मंत्रालय ने वेश्यावृति की जो नई परिभाषा दी है, उसके मुताबिक पैसे या किसी अन्य कारण से सेक्स को अपराध माना जाएगा। सरकार अगर इन संशोधनों को मान लेती है तो ट्रैफिकिंग और वेश्यावृत्ति एक ही कानून के दायरे में आएंगे। वेश्यावृत्ति फिलहाल देश में अपराध नहीं है लेकिन कानून में संशोधन के बाद वह अपराध के दायरे में होगी। इससे देश की लाखों सेक्स वर्करों की मुश्किलों का अंदाजा लगाया जा सकता है। अपने देश में ऐसी सेक्स वर्करों की संख्या बहुत ज्यादा है जो गरीबी और भुखमरी से बचने के लिए जिस्म का सौदा करने पर मजबूर हैं। महिला और बाल कल्याण मंत्रालय ने इस संबंध में संसदीय समिति के सुझावों को भी नहीं माना है।
नवंबर, 2006 में जब संसदीय समिति ने कानून में संशोधन के प्रस्ताव दिए थे, तब भी सेक्स वर्करों ने संशोधन प्रस्तावों का विरोध किया था। उस प्रस्ताव में एक प्रस्ताव यह भी था कि जो कोई भी वेश्यालय या रेडलाइट इलाके में धरा जाता है उस पर आपराधिक कार्यों में संलिप्तता के तहत कार्रवाई की जाएगी। इस पर काफी हाय तौबा मचने के बाद महिला बाल कल्याण मंत्रालय ने इसे बदला है, मगर बदलाव कोई राहत देने वाला नहीं है। अब जो प्रस्ताव है उसके मुताबिक वेश्यालय या फिर रेड लाइट इलाके में आने वाले ग्राहकों पर आपराधिक मामले बनेंगे। जाहिर है जब ये कानून का रूप लेगा तो बदनामी और मुकदमे से बचने के लिए सेक्स वर्करों के पास ग्राहकों का जाना कम होगा। कोलकाता के सोनागाछी के सेक्स वर्करों की संस्था दरबार महिला समन्वय समिति की अध्यक्ष भारती डे का कहना है, ‘अगर हमारे ग्राहकों को पकड़ा जाएगा तो वो हमारे पास नहीं आएंगे। क्या ये हमारे पेट पर लात मारने जैसा नहीं है?।’दरअसल देश के विभिन्न राज्यों के सेक्स वर्करों की 14 संस्थाएं पिछले एक साल से लगातार महिला बाल कल्याण मंत्रालय से कानून में तर्कसंगत बदलाव की मांग कर रही है, लेकिन अब इन संगठनों को लगता है कि इनके साथ धोखा हुआ है। नेशनल नेटवर्क ऑफ सेक्स वर्कर के डॉ एस जेना सरकार से ट्रैफिकिंग पर रोक लगाने की बात करते हैं लेकिन कहते हैं कि सरकार को समझना चाहिए कि यह लाखों महिलाओं की आजीविका का साधन है। जेना के मुताबिक सेक्स वर्करों के लिए लेबर एक्ट संबंधित कानून बनाया जाना चाहिए ना कि क्रिमनल कानून। जेना बताते हैं कि सेक्स वर्कर खुद इमोरल ट्रिैफकिंग रोकने के लिए काम कर रही हैं। जरूरत है तो सिर्फ उनके भरोसे को मजबूत करने की। जेना कोलकाता के जाधवपुर विश्वविघालय के उस रिसर्च अध्ययन का हवाला देते हैं जिसमें ये उभरा है कि कोलकाता और उसके आसपास सेक्स वर्करों के संगठन दरबार महिला समन्वय समिति ने कई नबालिग बच्चे और बच्चियों को इस दलदल से बाहर निकाला है। कर्नाटक के मैसूर में सेक्स वर्करों के लिए काम कर रहे संगठन आशुद्ध समिति के सलाहकार सुशेना रजा पाल कहती हैं, ‘हाल के सालों में इमोरल ट्रैफिकिंग बहुत बढ़ी है और इसकी मार भी सेक्स वर्करों को झेलनी पड़ रही है, ऐसे में हम सरकार की मदद करने के लिए तैयार हैं। अगर सरकार हमारी मांगों पर ध्यान दे तो हम अपने अपने इलाके में नाबालिगों की इमोरल ट्रैफिंिकंग रोकने के हरसंभव उपाय करेंगे।’इसके अलावा संशोधन में एक प्रस्ताव ये भी है कि पुलिस इंस्पेक्टर के नीचे भी सब इंस्पेक्टर रैंक के पुलिसकर्मी को विशेष अधिकार दिए जाएं ताकि इमोरल ट्रैफिकिंग को कम किया जा सके। इस प्रस्ताव को लेकर भी सेक्स वर्करों में चिंता है। ज्यादातर सेक्स वर्करों का मानना है कि इमोरल ट्रैफिकिंग के ज्यादातर मामलों में स्थानीय पुलिस और माफिया तत्वों की मिलीभगत होती है, लेकिन पुलिस प्रताड़ित सेक्स वर्करों को करती है। सरकार के संशोधन प्रस्ताव के खिलाफ विरोध प्रदर्शन में भाग लेने आंध्र प्रदेश से दिल्ली आई सेक्स वर्कर सत्यवती का कहना है कि कानून बनने के बाद पुलिस को ज्यादा पैसे देने पड़ेंगे। उनकी वसूली बढ़ेगी तो लालच में वो हमें बार-बार तंग करने पहुंचेंगे। पता नहीं सरकार इस कानून के जरिए किस मदद की बात कर रही है।
इसके अलावा सेक्स बाजार और रेडलाइट इलाकों के समाजिक आर्थिक तानबाने पर नजर रखने वालों का मानना है कि कानून में संशोधन से एचआईवी एडस के खिलाफ चलाए जा रहे अभियानों को धक्का पहुंचेगा। बजाहिर है कि मौजूदा प्रस्तावों के कानून बनते ही सेक्स वर्कर चोरी छुपे धंधा करेंगी। ऐसे में उन तक एड्स रोकथाम संबंधी जानकारी और जागरूकता पहुंचाना संभव नहीं होगा। इस संकट को भांपते हुए भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय ने मौजूदा प्रस्तावों से अपनी असहमति जताई है। नेशनल एड्स कंट्रोल आर्गनाइजेशन ने अपनी आपत्ति जताई है।हालांकि अब यह सरकार को तय करना है कि वह मौजूदा प्रस्ताव को कानून का रूप दे दे या फिर से संशोधन के लिए महिला बाल कल्याण मंत्रालय को लौटा दे। हालांकि यह जरूरी है कि सरकार सेक्स वर्करों की मांगों को भी सुने। नहीं तो मुंबई बार-बालाओं का उदाहरण सामने है। महाराष्ट्र सरकार ने बिना किसी वैकल्पिक व्यवस्था के डांस बारों को बंद कर दिया। आए दिन बार-बालाओं की गिरफ्तारी से पता चलता है कि यह चोरी-छुपे अब भी जारी है वहीं आकलन यह भी बताता है कि इस रोक के बाद हजारों बार-बालाएं पेट पालने के लिए जिस्मफरोशी के धंधे में उतर पड़ीं। बेहतर तो यही होता कि सरकार किसी कड़े कानून लाने के बदले इन लोगों के लिए रोजगार के अन्य विकल्पों पर विचार करती, हालांकि हर किसी को रोजगार देना व्यावहारिक रूप से असंभव ही है। ऐसे में सरकार को चाहिए को वो सेक्स वर्करों के संगठनों के सुझावों पर भी ध्यान दे। सेक्स वर्करों की सबसे बड़ी मांग ये है कि ट्रैफिकिंग और वेश्यावृत्ति दोनों अलग-अलग हैं और इसके लिए एक समान कानून नहीं होना चाहिए । सेक्स वर्करों का कहना है कि ट्रैफिकिंग के पीछे प्राय: एक गिरोह काम कर रहा होता है जबकि वेश्यावृत्ति आजीविका के चलते महिलाओं के लिए मजबूरी भी है। पिछले सप्ताह दिल्ली में देश भर के सेक्स वर्करों के प्रतिनिधियों ने इक्ट्ठा हो कर इस प्रस्ताव का विरोध किया है। इन प्रतिनिधियों का मानना है कि उनकी रोजी रोटी का सवाल है वो हर संभव संघर्ष जारी रखेंगी।
कैसे चलता है देह व्यापार का धंधा?
कई समय से कालगर्ल के धंधे के बारे में जानने की जिज्ञासा थी कि क्यों हाई सोसाइटी में रहने वाली लड़कियां इसे कर रही हैं? आजकल तो इस धंधे के बढाने में इंटरनेट के योगदान को भी कम नहीं आंका जा सकता। यह माध्यम पूरी तरह से सुरक्षित है। इसमें सारी डीलिंग ई-मेल द्वारा की जाती है। इन्टरनेट पर दिल्ली की ही कई सारी साइटें उपलब्ध है, जिसमें कई माडल्स के फोटो के साथ उनके रेट लिखे होते हैं। एक परिचित के माध्यम से मेरी मुलाकात लवजीत से हुई जो दिल्ली के सबसे बड़े दलाल के लिए काम करता है। उसने एक पांच सितारा होटल में माया से मेरी मुलाकात का समय तय किया। उसका कहना था कि माया एक इज्जतदार घर की लड़की है और इंगलिश बोलती है। बातचीत के दौरान लवजीत का मोबाइल फोन बजता रहता है। एक के बाद एक इंक्वाइरी जारी रहती है। ‘इस धंधे में हमेशा बिजी रहना पड़ता है’, उसका कहना है। चलने से पहले वो मुझे ठीक वक्त पर पहुंचने की ताकीद करता है। अगर जगह या समय बदलना है तो उसे बताना होगा। पीले टॉप और नीली जीन्स में माया बिल्कुल सही वक्त पर पहुंच जाती है। अभिवादन खत्म और उसे यह जानकर हैरत होती है कि मैं सिर्फ उससे जानकारी चाहता हूं। थोड़ा वक्त जरूर लगता है लेकिन वह अपने धंधे के बारे में बात करने के लिए राजी हो जाती है। ‘हां, अब मुझे इस जिंदगी की आदत हो चली है। अच्छा पैसा और मौज मजा।’ उसके अधिकतर ग्राहक बिजनेसमैन हैं और उनमें से कुछ तो वफादार भी। क्या उसे अजनबियों से डील करना अजीब नहीं लगता? वह कहती है, ‘देखिए हम लोग एक स्थापित नेटवर्क के जरिये काम करते हैं जो बिना किसी रूकावट के धंधे में मददगार है। टेंशन की कोई बात ही नहीं’। माया का दावा है कि महज एक सप्ताह के काम के उसे साठ से अस्सी हजार मिल जाते हैं। जब उसने शुरूआत की थी तो अच्छे घरों की लड़कियां इस धंधे में बहुत नहीं थीं, लेकिन अब बहुत हैं, ‘अब तो यह लगभग आदरणीय हो गया है’, वह व्यंग्य करते हुए कहती है। दिल्ली के उच्च वर्ग, पार्टी सर्किल और सोशलाइटों के बीच ‘गुड सेक्स फॉर गुड मनी’ एक नया चलताऊ वाक्य बन गया है। यही वजह है कि दिल्ली पर भारत की सेक्स राजधानी होने का एक लेबल चस्पां हो गया है। आंकड़ों की बात करें तो मुंबई में दिल्ली से ज्यादा सेक्स वर्कर हैं। लेकिन जब प्रभावशाली और रसूखदार लोगों को सेक्स मुहैया करवाने की बात आती है तो दिल्ली ही नया हॉट स्पॉट है। ये प्रभावशाली और रसूखदार लोग हैं राजनेता, अफसरशाह, व्यापारी, फिक्सर, सत्ता के दलाल और बिचौलिए। यहां इसने पांच सितारा चमक अख्तियार कर ली है।पुलिस का अनुमान है कि राजधानी में देह व्यापार का सालाना टर्न आ॓वर 600 करोड़ के आसपास है। पांच सितारा कॉल गर्ल्स पारंपरिक चुसी हुई शोषित और पीड़ित वेश्या के स्टीरियोटाइप से बिल्कुल अलग हैं। न तो ये भड़कीले कपड़े पहनती हैं और न बहुत रंगी-पुती होती हैं और न ही उन्हें बिजली के धुंधले खंभों के नीचे ग्राहक तलाश करने होते हैं। पांच सितारा होटलों की सभ्यता और फार्महाउसों की रंगरेलियों में वे ठीक तरह से घुलमिल जाती हैं। वे कार चलाती हैं, उनके पास महंगे सेलफोन होते हैं। जैसा कि एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी का कहना है कि हाल ही के एक छापे के दौरान पकड़ी गई लड़कियों को देखकर उन्हें धक्का लगा। वे सब इंगलिश बोलने वाली और अच्छे घरों से थीं। कुछ तो नौकरी करने वाली थीं, जो जल्दी से कुछ अतिरिक्त पैसा बनाने निकली थीं।34 साल की सीमा भी एक ऐसी ही कनवर्ट है। उसे इस धंधे में काफी फायदा हुआ है। किसी जमाने में वह फैशन की दुनिया का एक हिस्सा थी लेकिन उसके करियर ने गोता खाया और वह सम्पर्क के जरिये अपनी किस्मत बदलने में कामयाब हो गई। अब वह दिल्ली की एक पॉश कॉलोनी में रहती है और कार ड्राइव करती है। उसे सस्ती औरत कहलाने में कोई गुरेज नहीं है। उसके मां-बाप चंडीगढ मे रिटायर्ड जीवन जी रहे हैं। सीमा हर तीन महीने में उनसे मिलने जाती है, हालांकि उन्हें मालूम नहीं है कि वो क्या करती है। लेकिन कई औरतों के लिए इस तरह की दोहरी जिंदगी जीना इतना सरल नहीं है। सप्ताह के दिनों में पड़ोस की एक स्मार्ट लड़की की तरह रहना और वीकएंड पर अजनबियों के साथ रातें गुजारना- अनेक पर काफी भारी पड़ता है। ‘अगर आप अकेले हैं तो तो ठीक है, लेकिन अगर परिवार के साथ रहते हैं तो काफी मुश्किल हो जाती है। कुछ लड़कियां दकियानूसी परिवारों से आती हैं और रात को बाहर रहने के लिए उन्हें बहाने खोजने पड़ते हैं’, सीमा कहती है। मध्यवर्गीय परिवारों की लड़कियां इस धंधे में किक्स और त्वरित धन की खातिर उतरती हैं। हालांकि कुछ एक या दो बार ऐसा करने के बाद धंधे से किनारा कर लेती हैं पर कई इसमें लुत्फ लेने लगती हैं। जैसा कि माया कहती है, ‘चूंकि पैसा अच्छा है, इसलिए हम बेहतर वक्त बिता सकते हैं, गोआ में वीकएंड या फिर विदेश यात्रा।’कुछ लड़कियां बगैर दलाल के स्वतंत्र रूप से काम करती हैं लेकिन किसी गलत किस्म का ग्राहक फंस जाने का खतरा उनके साथ हमेशा रहता है। हालांकि पुलिस का कहना है कि औरतें दलाल के बगैर बेहतर धंधा करती हैं। गौर से देखें तो दिल्ली के रूझान के हिसाब से कॉल गर्ल्स आजाद हो चुकी हैं। दलालों की संख्या कम हो रही है। दिल्ली में धंधा इसलिए बढ़ा है कि बतौर राजधानी सारे बड़े-बड़े सौदे यहीं होते हैं। राजनेताओं और अफसरशाहों को इंटरटेन किए जाने की जरूरत होती है। इसके अलावा आसपास काफी पैसा बहता रहता है। कनॉट प्लेस के खेरची दूकानदार से लेकर रोहिणी के रेस्टोरेंट मालिक और गुडगांव के रियल एस्टेट डेवलपर तक सब खर्च करने को तैयार हैं। उनकी सुविधा के लिए ऐसे कई गेस्ट हाउस कुकुरमुत्तों की तरह उग आए हैं जो चकलों का काम भी करते हैं। दक्षिण दिल्ली में तो धंधा आवासीय कॉलोनियों से भी चलता है और सामूहिक यौनाचार के लिए किराये पर लिए गए फार्महाउसों पर तो पुलिस के छापे पड़ते ही रहते हैं। हाल ही में दक्षिण पश्चिम दिल्ली के वसंतकुंज में पड़े एक छापे में तीन औरतें और पांच दलाल पकड़े गए थे। उनमें से एक महिला जो बंगलूर से अर्थशास्त्र में स्नातक थी, महीने में पंद्रह दिन दिल्ली में रहती थी और उस दौरान दो लाख रूपया बना लेती थी। बाकी औरतें भी एक रात के दस से पन्द्रह हजार रूपये वसूला करती थीं। उनके ग्राहक बिजनेसमैन और वकील थे। दिल्ली में इस धंधे में सबसे बड़ा नाम क्वीन बी का है जो ग्रेटर कैलाश से सारे सूत्र संभालती है। एक पंजाबी परिवार की यह 44 वर्षीय महिला जिसका उपनाम दिल्ली के एक पांच सितारा होटल से मिलता-जुलता है, लड़कियों की सबसे बड़ी सप्लायर है और इसका नेटवर्क काफी लंबा-चौड़ा है। वो न सिर्फ ‘अच्छी’ भारतीय लड़कियां मुहैया करवाती है बल्कि मोरक्कन, रूसी और तुर्की लड़कियां भी अपने घर में रखती है। नब्बे के दशक की शुरूआत में छापे के दौरान एक पांच सितारा होटल से पकड़ी गई क्वीन बी के नेटवर्क को प्रभावशाली नेताओं और रसूख वाले व्यापारियों का सहारा मिला हुआ है। ‘उसके संबंधों के मद्देनजर उसे तोड़ने में बहुत मेहनत लगेगी’, यह कथन है एक पुलिसकर्मी का, जिसका अनुमान है कि क्वीन बी सिर्फ सिफारिशों पर काम करती है और उसकी एक दिन की कमाई चार लाख रूपया है। फिर दिल्ली में बालीवुड की एक अभिनेत्री भी स‡िय है, जिसके पास अब कोई काम नहीं है। उसके नीचे सात से आठ जूनियर अभिनेत्रियां काम करती हैं। उनका अभिनय करियर खत्म हो जाने के बाद वे सब धंधे में उतर आई हैं। एक दलाल के अनुसार, अफसरशाहों और राजनेताओं में बड़े नाम वाली लड़कियों की काफी मांग है। हाल ही के एक छापे में पकड़ी गई एक युवती दिल्ली की एक फर्म में जूनियर एक्जीक्यूटिव के पद पर थी। गु़डगांव के एक लाउंज बार में एक दलाल की नजर उस पर पड़ गई। उसके चेहरे और व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उसने उसे धंधे में उतार दिया, लेकिन अपने ग्राहक वह खुद तय करती है। वीक एंड को बाहर जाने पर उसे 60 से 70,000 रूपये मिल जाते है। इसके अलावा ग्राहक उसे महंगे तोहफों से भी नवाजते हैं।राजधानी के एक जाने-माने दलाल का कहना है, ‘चुनाव करने के लिए दिल्ली में अनंत लड़कियां हैं। सही सम्पर्क और सही कीमत के बदले आप जो चाहें हासिल कर सकते हैं’। यहां एक पांच सितारा होटल में पकड़ी गई एक 29 वर्षीय युवती और एक दूसरी लड़की केवल अमीरों और रसूख वालों के काम आती थीं। युवती एक स्कोडा कार ड्राइव करती थी और उसका पता दक्षिण दिल्ली का था। उसकी साथी दिल्ली के जाने-माने स्कूल में पढ़ी थी। उनके पास ग्राहकों का एक अच्छा खासा डेटाबेस था। ये मोबाइल फोन के जरिए धंधा करती थीं और संभ्रांत परिवारों से थीं।
लेकिन यह धंधा चलता कैसे है? ‘दलालों और एक सपोर्ट सिस्टम के जरिए सब कुछ सुसंगठित है, जहां
युवावर्ग उठता-बैठता है। ऐसी जगहों पर लोग भेजे जाते हैं। शहर के बाहरी
छोर पर स्थित पब और लाउंज बार इस मामले में काफी मददगार साबित होते हैं।
यहीं पर नई भर्ती की पहचान होती है। सही जगह पर सही भीड़ में आप पहुंच जाइए, आप पाएंगे कि ऐसी कई महिलाएं हैं जो पैसा बनाना और मौज-मजा करना चाहती हैं।’ यह
कथन है एक ऐसे शख्स का जो धंधे के लिए लड़कियों की भर्ती करता है। एक बार
दलाल की लिस्ट में लड़की आई नहीं कि धंधा मोबाइल फोन पर चलने लगता है।
सामान्यतया मुलाकात की जगह होती है कोई पांच सितारा होटल, ग्राहक
का गेस्ट हाउस या फिर उसका घर। पुलिस के अनुसार अधिकतर दलाल केवल उन लोगों
के फोन को तरजीह देते हैं जिनका हवाला किसी ग्राहक द्वारा दिया जाता है।
इससे सौदा न सिर्फ आपसी और निजी रहता है, बल्कि एक चुनिंदा दायरे तक ही सीमित होता है।पांच सितारा कॉल गर्ल्स के साथ ही बढ़ती हुई तादाद में मसाज पार्लर, एस्कॉर्ट
और डेटिंग सेवाएं भी दैहिक आनंद के इस व्यवसाय को और बढ़ावा दे रही हैं। ये
सब सेक्स की दूकानों के दूसरे नाम हैं। दिल्ली के अखबार इन सेवाओं के
वर्गीकृत विज्ञापनों से भरे रहते हैं। कुछ समय पहले इन पार्लरों का सरगना
पकड़ा गया था जिसके दस से अधिक पार्लर आज भी दिल्ली में चल रहे हैं। मजेदार
बात यह है कि यह शख्स इंजीनियरिंग ग्रेजुएट है और आईएएस की परीक्षा में भी
बैठा था। अपने तीन दोस्तों के साथ इसने देह व्यापार के धंधे में उतरना तय
किया और साल भर में उसने शहर में आठ मसाज पार्लर खोल दिए। कुख्यात कंवलजीत
का नाम आज भी पुलिस की निगरानी सूची में है। किसी जमाने में दिल्ली के
वेश्यावृत्ति व्यवसाय का उसे बेताज बादशाह कहा जाता था। जब दिल्ली में उस
पर पुलिस का कहर टूटा तो वह मुम्बई चला गया। पुलिस के अनुसार अभी भी अपनी
दो पूर्व पत्नियों के जरिये उसका सिक्का चलता है। उसके दो खास गुर्गे- मेनन
और विमल अपने बूते पर धंधा करने लगे हैं। पुलिस मानती है कि वेश्यावृत्ति
के गिरोहों की धर पकड़ अक्सर एक असफल प्रयास साबित होता है क्योंकि थोड़े समय
बाद ही यह फिर उभर आती है। चूंकि यह एक जमानती अपराध है और पकड़ी गई औरतें
कोर्ट द्वारा छोड़ दी जाती हैं इसलिए वे फिर धंधा शुरू कर देती हैं। पुलिस
का यह भी मानना है कि चूंकि यह सामाजिक बुराई है इसलिए छापे निष्प्रभावी
हैं। इसे कानूनी बना देना शायद बेहतर साबित हो। लेकिन राजनेता दुनिया के
सबसे पुराने पेशे पर कानूनी मोहर लगाना नहीं चाहते, लिहाजा यह धंधा फल-फूल रहा है।
शारीरिक सुख…पैसे की चकाचौंध या फिर आधुनिकता?
आधुनिकता की चकाचौंध ने सबको अपनी
तरफ आकर्षिक किया है। समाज के हर तबके की मानसिकता बदल गई है। लोगों की
मानसिकता का बदलाव समाज से तालमेल स्थापित नहीं कर पा रहा है। आज लोगों की
महत्वाकांक्षा बढ़ गई है और वह उसे हर हाल में पूरा करना चाहते हैं। कुछ समय
पहले तक किसी भी अपराध या दुराचार को व्यक्तिगत मामला कहकर टाला नहीं जा
सकता था लेकिन आज हर किसी ने अपने को सामाजिक जिम्मेदारी से मुक्त कर लिया
है। रही-सही कसर संयुक्त परिवारों के टूटने से पूरी हो गई। व्यक्ति
आत्मकेंद्रित हो गया है।समाज और
परिवार दो महत्वपूर्ण इकाई थे जो व्यक्ति के लिए सपोर्ट सिस्टम का काम
करते थे। व्यक्ति सिर्फ अपने बीबी-बच्चों के प्रति ही नहीं, बल्कि पूरे परिवार के प्रति जिम्मेदार होता था। पास-पड़ोस से मतलब होता था, आज वह पूरी तरह खत्म हो गया है। आज हमारे पड़ोस में कौन रहता है, इसकी
खबर न तो हमको रहती है और न करना चाहते हंै। आज यदि आप अपने पड़ोसी से
संबंध बनाना भी चाहें तो शायद वह ही संबंध बनाने का इच्छुक न हो। पड़ोस का
डर और सम्मान अब नहीं रहा। अपनी जड़ों, समाज और संस्कृति से हम कट गए हंै। पुराने मूल्यों का टूटना लगातार जारी है।आधुनिकतम जीवनशैली अभी तक कोई मूल्य स्थापित नहीं कर पाई है, जिसकी
मान्यता और बाध्यता समाज पर हो। आज समाज संक्रमण के दौर से गुजर रहा है।
कोई मूल्य न रहने से नैतिक बंधन समाप्त हो चुका है। यह स्वच्छंदता ही गलत
राह पर ले जाने में सबसे बड़ी भूमिका निभा रहा है। आज हर आदमी उच्च वर्ग की
नकल कर रहा है, इसके लिए चाहे जो रास्ता अपनाना पड़े। मेरे पास भी वह कार होनी चाहिए जो पड़ोसी के पास है। दफ्तर में सब के बराबर भले ही वेतन न हो, लेकिन हम किसी से कम नहीं।एक समय था जब समाज के निचले तबके अथवा छल कपट से कोठे पर पहुंचा दी गई महिलाएं ही इस पेशे में थीं, अब
तो समाज के हर वर्ग के लोग इसमें शामिल हैं। खास कर पढ़ी-लिखी उच्च और
मध्यम घराने की लड़कियां तो ज्यादा हैं। अभी दिल्ली के स्कूल की अध्यापिका
ने जो किया वह तो मानवता के लिए कलंक के समान है। संकुचित मानसिकता, परिवारों का विघटन और अल्प लाभ के लिए यह पेशा दिनों दिन बढ़ता जा रहा है। मनोविज्ञान
की भाषा में इसे विकृति कहा जाता है। पहले हम वही सामान खरीदते थे जिसकी
जरूरत होती थी। कुछ लोगों में मालसिंड्रोम होता है। वे दुकानों में घुसने
पर सब कुछ खरीद लेना चाहते हंै। घर-परिवार से तो हर आदमी को एक निश्चित
राशि ही मिलती है। इसके लिए उन्हें गलत रास्ता अख्तियार करना पड़ता है।
छात्रवासों में रहने वाली लड़कियां हमारे पास आती हंै। उनको अपने इस काम से
कोई अपराधबोध नहीं होता है। कुछ तो पैसे के लिए फार्म हाउस में जाती हंै।
फार्म हाउस और कोठियां सबसे सुरक्षित स्थान बन गए हैं। ऐसे स्थानों पर जाने
वाली लड़कियां एक रात में ही हजारों कमा लेती हैं। इसका कारण पूछने पर पता
चलता है कि अपनी असीमित इच्छाओं की पूर्ति के लिए आज बड़े घरों की लड़कियां
भी इस पेशे में उतर आई हैं। विदेशों में तो डॉक्टर और इंजीनियर की सम्मानित
नौकरी पर लात मार कर ढेर सारी महिलाएं इसमें आई हैं। कम समय में ज्यादा
पैसा कमाना ही इसका मुख्य कारण है।
सेक्स की कुंठा से भी कुछ महिलाएं इस पेशे में आती हंै। इस बीमारी को निम्फोमेनिया कहते हैं। ऐसी महिलाएं पैसा तो नहीं लेती हैं, लेकिन
यह भी अनैतिक ही है। सेक्स कारोबार में इनका प्रतिशत सिर्फ आठ है। आज का
सारा सेक्स रैकेट पढ़े-लिखे सफेदपोश लोग संचालित कर रहे हैं। इसका मुख्य
कारण धैर्य की कमी, तात्कालिक लाभ, मानसिक असंतुलन और अमीर बनने की चाहत है।सेक्स रैकेट आज प्रोन्नति, ठेके, पैसे
और बड़े-बड़े कामों में अपनी उपयोगिता सिद्ध कर चुका है। शारीरिक सुख और
पैसा सबसे ऊपर हो गए हैं। आज जिसके पास पैसा नहीं है उसके पास लोगों की
निगाह में कुछ भी नहीं है। पैसे में ही मान-सम्मान, इज्जत
और सारा सुख निहित मान लिया गया है। एक दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि
शहरों की आबादी जिस तरह से बढ़ रही है उसमें देश के एक छोर से दूसरे छोर के
लोग आसपास रहते हुए भी एक दूसरे से घुल मिल नहीं पाते हैं। यही कारण है कि
गांवों की अपेक्षा शहरों में सेक्स रैकेट ज्यादा है।
No comments:
Post a Comment