Tuesday, August 2, 2011

प्रेमचंद पर भी कम लांछन नहीं सलगे


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सुभाष राय : सुनो भाई साधो - 10 : क्या प्रेमचंद एक रचनाकार के रूप में उतने उदार और दृष्टिसंपन्न नहीं थे, जितना उन्हें साहित्य के धुरंधर आलोचकों ने समझा? क्या उनका राष्ट्रवाद हिंदू चेतना से लैस था और वे अपने समूचे चरित्र में एक सांप्रदायिक व्यक्ति थे? क्या वे सवर्ण मानसिकता के अहंकार और दबाव से मुक्त नहीं हो सके थे और इसीलिए दलितों को हेय दृष्टि से देखते थे? क्या महात्मा गांधी के आंदोलन को जनता की आकांक्षाओं से जोड़कर उन्होंने कोई गलती की? क्या वे वैचारिक अंतर्विरोध के शिकार थे? इतने वर्षों बाद ये सवाल अगर उठाये जा रहे हैं तो हम जानते हैं कि इनके जवाब देने प्रेमचंद नहीं आने वाले। सवाल हमने उठाये हैं और जवाब भी हमें ही ढूंढने पड़ेंगे। जातीय राजनीतिक चेतना के इस उदयकाल में दलित साहित्य और दलित लेखन का आंदोलन धीरे-धीरे मुखर होता जा रहा है।
इसी के साथ इस तरह के सवाल उठाये जाने लगे हैं कि दलितों के जीवन की निर्मम सचाई और उनके संघर्ष का चित्र केवल दलित लेखक ही खींच सकता है। कोई भी गैर-दलित उस संवेदन तक पहुंच नहीं सकता, जो उसने जिया ही न हो। इस तर्क के आधार पर गैर-दलित लेखकों के दलित साहित्य की प्रामाणिकता पर भी सवाल उठाये जाने लगे हैं। इस आंदोलन के हिमायतियों में प्रेमचंद को लेकर बहुत गुस्सा है। कई बार तो उनका गुस्सा क्षोभ और घृणा के स्तर तक जाता हुआ दिखायी पड़ता है और वे प्रेमचंद के लेखन को कदाचित एक षड्यंत्र की तरह देखने लगते हैं, उन्हें दलित-विरोधी ठहराते हैं और मांग करने लगते हैं कि दलितों को हीन, निरुपाय और विद्रूप चित्रित करने वाले प्रेमचंद की कहानियों को पाठ्यक्रमों से हटा दिया जाना चाहिए। कई मामलों में आक्रोश की यह आग इतनी गहरी है कि प्रेमचंद पर कुछ दलित सामाजिक कार्यकर्ता थाने और अदालतों के दरवाजे भी खटखटाते दिखायी पड़ते हैं।
इस तरह के चिंतन में कितनी गहराई है? क्या किसी रचना के लिए उसके केंद्रभूत कथ्य की परिस्थितियों को जीना जरूरी है? अगर ऐसा होता तो दुनिया की तमाम महाकाव्यात्मक रचनाएं संभव नहीं हो पातीं। अगर किसी लेखक में जीवन, उसकी विषमताओं, उसके दुख-दर्द, उसके संघर्ष को देखने की दृष्टि है, उसकी सामाजिक और पारिस्थितिक गत्यात्मकता को समझने और उसकी भविष्य दिशा को पहचानने की क्षमता है तो उसकी सर्जनात्मक कल्पनाशीलता यथार्थ को पूरी जीवंतता से पकड़ सकती है। किसी जाति, समाज या समुदाय की पीड़ा को समझने के लिए उस जाति में पैदा होना और उस पीड़ा को भोगना आवश्यक नहीं है। जो सहता है, भोगता है और लड़ता है, कोई जरूरी नहीं कि वह पूरी प्रामाणिकता से अपने भोगे यथार्थ को व्यक्त कर सके। यह कहना भी गलत है कि दूसरे के भोगे हुए सच को कोई और पूरी सचाई से व्यक्त नहीं कर सकता। अगर इस तर्क को बाध्यकारी मान लें तो रचनाकार की असीम संभावना को स्वीकारना संभव नहीं हो सकेगा।
प्रेमचंद पर जितने भी आरोप लगाये जा रहे हैं, उनका कोई अर्थ नहीं है, वे प्रेमचंद की रचनाओं के प्रति संकीर्ण और दुराग्रहपूर्ण नासमझी से उपजे भ्रांतिपूर्ण कथन हैं। दरअसल प्रेमचंद मनुष्य को जाति के खांचों में बांटकर कहानियां या उपन्यास नहीं लिख रहे थे। वे आदमी की पीड़ा देख रहे थे, वे उस पर होने वाले जुल्म, उसका दर्द, उसकी जद्दो-जहद देख रहे थे। पीड़ित पहले एक छटपटाते मनुष्य की तरह सामने आता है, मजदूर, किसान और दलित के रूप में उसकी पहचान बाद में होती है। प्रेमचंद मनुष्य की संघर्ष गाथा लिखते हैं, उसके वर्तमान को देखते हैं और उसके भविष्य की एक आदर्शवादी तस्वीर रचते हैं। वे साहित्यकार के कर्तव्य की चर्चा करते हुए स्वयं एक जगह लिखते हैं कि साहित्यकार का काम केवल पाठकों का मन बहलाना नही है। यह तो भाटों, मदारियों, विदूषकों और मसखरों का काम है। साहित्यकार का काम इससे कहीं बड़ा है। वह हमारा पथ-प्रदर्शक होता है, वह हमारे मनुष्यत्व को जगाता है, हममे सद्भावों का संचार करता है, हमारी दृष्टि को फैलाता है। कम से कम उसका यही उदेश्य होना चाहिए।' और यह सच है कि वे लगातार कोशिश करते हैं कि उन्हें कोई विदूषक, भाट या मसखरा न कहे।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार 'प्रेमचंद शताब्दियों से पद-दलित और अपमानित कृषकों की आवाज थे। परदे में कैद पद -पद पर लांछित और अपमानित, असहाय, नारी जाति की महिमा के जबरदस्त वकील थे।' प्रेमचंद की सफलता इस बात में है कि उन्हें पढ़ते हुए आज भी ऐसा नहीं लगता कि समाज के दलित वर्ग की, चाहे वे किसान हों, मजदूर हों या महिलाएं हों, कठिनाइयां खत्म हो गयी हैं, उनका संघर्ष समाप्त हो गया है, उन्हें उनका हक हासिल हो गया है। आठ दशक बाद उनके पात्र आज भी हमारे चारों तरफ लड़ते, पिटते, जुल्म सहते देखे जा सकते हैं। जो अपने समय को बांचते हुए जितना आगे तक देख पाता है, वह उतना ही बड़ा रचनाकार होता है। प्रेमचंद की कहानियों के बारे में जब मारकंडेय जी लिखते हैं कि हम हिंदी कहानी की यात्रा पर दृष्टि डालते हैं और पिछले 70-80 वर्षों की सामाजिक विकास की व्याख्या करते हैं, तो बहुत सुविधा पूर्ण तरीके से कह सकते हैं कि कहानी अब तक प्रेमचंद से चलकर प्रेमचंद तक ही पहुंची है, तो वे यही कह रहे होते हैं कि प्रेमचंद अपनी पूरी प्रामाणिकता और प्रासंगिकता के साथ अभी भी हमारे सामने खड़े हैं।
ऐसा नहीं कि कहानी आगे नहीं बढ़ी है। कहानी ने अपना शिल्प, अपनी बुनावट, अपना अंदाज बहुत बदल लिया है। बदलते समय के साथ अपनी सत्ता बनाये रखनी है तो उसे बदलना ही पड़ेगा लेकिन इस बदले हुए समय में भी प्रेमचंद की कहानियां अपनी संपूर्ण सार्थकता और सोद्देश्यता के साथ अपनी जगह बनाये हुईं हैं। इसलिए कि इतने समय बाद भी तमाम सामाजिक विषमताएं जस की तस अपनी जगह कायम हैं, वही अंधविश्वास, वही पारंपरिक कुंठाएं, वही अशिक्षा,  वही कुरीतियां। कहने को विकास का उजाला हुआ है लेकिन सतह के नीचे अंधकार और गहरा हुआ है, गरीबी और बढ़ी है, जीवन और दुरूह हुआ है। समाज के किसी कोने से उठने वाले लांछनों के संदर्भ में प्रेमचंद के विशाल रचना संसार को नये ढंग से समझने-समझाने की जरूरत है। यह काम साहित्य के मर्मज्ञों, आलोचकों और विद्वानों का है। उनसे उम्मीद तो की ही जा सकती है।

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सुभाष राय : सुनो भाई साधो - 10 : क्या प्रेमचंद एक रचनाकार के रूप में उतने उदार और दृष्टिसंपन्न नहीं थे, जितना उन्हें साहित्य के धुरंधर आलोचकों ने समझा? क्या उनका राष्ट्रवाद हिंदू चेतना से लैस था और वे अपने समूचे चरित्र में एक सांप्रदायिक व्यक्ति थे? क्या वे सवर्ण मानसिकता के अहंकार और दबाव से मुक्त नहीं हो सके थे और इसीलिए दलितों को हेय दृष्टि से देखते थे? क्या महात्मा गांधी के आंदोलन को जनता की आकांक्षाओं से जोड़कर उन्होंने कोई गलती की? क्या वे वैचारिक अंतर्विरोध के शिकार थे? इतने वर्षों बाद ये सवाल अगर उठाये जा रहे हैं तो हम जानते हैं कि इनके जवाब देने प्रेमचंद नहीं आने वाले। सवाल हमने उठाये हैं और जवाब भी हमें ही ढूंढने पड़ेंगे। जातीय राजनीतिक चेतना के इस उदयकाल में दलित साहित्य और दलित लेखन का आंदोलन धीरे-धीरे मुखर होता जा रहा है।
इसी के साथ इस तरह के सवाल उठाये जाने लगे हैं कि दलितों के जीवन की निर्मम सचाई और उनके संघर्ष का चित्र केवल दलित लेखक ही खींच सकता है। कोई भी गैर-दलित उस संवेदन तक पहुंच नहीं सकता, जो उसने जिया ही न हो। इस तर्क के आधार पर गैर-दलित लेखकों के दलित साहित्य की प्रामाणिकता पर भी सवाल उठाये जाने लगे हैं। इस आंदोलन के हिमायतियों में प्रेमचंद को लेकर बहुत गुस्सा है। कई बार तो उनका गुस्सा क्षोभ और घृणा के स्तर तक जाता हुआ दिखायी पड़ता है और वे प्रेमचंद के लेखन को कदाचित एक षड्यंत्र की तरह देखने लगते हैं, उन्हें दलित-विरोधी ठहराते हैं और मांग करने लगते हैं कि दलितों को हीन, निरुपाय और विद्रूप चित्रित करने वाले प्रेमचंद की कहानियों को पाठ्यक्रमों से हटा दिया जाना चाहिए। कई मामलों में आक्रोश की यह आग इतनी गहरी है कि प्रेमचंद पर कुछ दलित सामाजिक कार्यकर्ता थाने और अदालतों के दरवाजे भी खटखटाते दिखायी पड़ते हैं।
इस तरह के चिंतन में कितनी गहराई है? क्या किसी रचना के लिए उसके केंद्रभूत कथ्य की परिस्थितियों को जीना जरूरी है? अगर ऐसा होता तो दुनिया की तमाम महाकाव्यात्मक रचनाएं संभव नहीं हो पातीं। अगर किसी लेखक में जीवन, उसकी विषमताओं, उसके दुख-दर्द, उसके संघर्ष को देखने की दृष्टि है, उसकी सामाजिक और पारिस्थितिक गत्यात्मकता को समझने और उसकी भविष्य दिशा को पहचानने की क्षमता है तो उसकी सर्जनात्मक कल्पनाशीलता यथार्थ को पूरी जीवंतता से पकड़ सकती है। किसी जाति, समाज या समुदाय की पीड़ा को समझने के लिए उस जाति में पैदा होना और उस पीड़ा को भोगना आवश्यक नहीं है। जो सहता है, भोगता है और लड़ता है, कोई जरूरी नहीं कि वह पूरी प्रामाणिकता से अपने भोगे यथार्थ को व्यक्त कर सके। यह कहना भी गलत है कि दूसरे के भोगे हुए सच को कोई और पूरी सचाई से व्यक्त नहीं कर सकता। अगर इस तर्क को बाध्यकारी मान लें तो रचनाकार की असीम संभावना को स्वीकारना संभव नहीं हो सकेगा।
प्रेमचंद पर जितने भी आरोप लगाये जा रहे हैं, उनका कोई अर्थ नहीं है, वे प्रेमचंद की रचनाओं के प्रति संकीर्ण और दुराग्रहपूर्ण नासमझी से उपजे भ्रांतिपूर्ण कथन हैं। दरअसल प्रेमचंद मनुष्य को जाति के खांचों में बांटकर कहानियां या उपन्यास नहीं लिख रहे थे। वे आदमी की पीड़ा देख रहे थे, वे उस पर होने वाले जुल्म, उसका दर्द, उसकी जद्दो-जहद देख रहे थे। पीड़ित पहले एक छटपटाते मनुष्य की तरह सामने आता है, मजदूर, किसान और दलित के रूप में उसकी पहचान बाद में होती है। प्रेमचंद मनुष्य की संघर्ष गाथा लिखते हैं, उसके वर्तमान को देखते हैं और उसके भविष्य की एक आदर्शवादी तस्वीर रचते हैं। वे साहित्यकार के कर्तव्य की चर्चा करते हुए स्वयं एक जगह लिखते हैं कि साहित्यकार का काम केवल पाठकों का मन बहलाना नही है। यह तो भाटों, मदारियों, विदूषकों और मसखरों का काम है। साहित्यकार का काम इससे कहीं बड़ा है। वह हमारा पथ-प्रदर्शक होता है, वह हमारे मनुष्यत्व को जगाता है, हममे सद्भावों का संचार करता है, हमारी दृष्टि को फैलाता है। कम से कम उसका यही उदेश्य होना चाहिए।' और यह सच है कि वे लगातार कोशिश करते हैं कि उन्हें कोई विदूषक, भाट या मसखरा न कहे।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार 'प्रेमचंद शताब्दियों से पद-दलित और अपमानित कृषकों की आवाज थे। परदे में कैद पद -पद पर लांछित और अपमानित, असहाय, नारी जाति की महिमा के जबरदस्त वकील थे।' प्रेमचंद की सफलता इस बात में है कि उन्हें पढ़ते हुए आज भी ऐसा नहीं लगता कि समाज के दलित वर्ग की, चाहे वे किसान हों, मजदूर हों या महिलाएं हों, कठिनाइयां खत्म हो गयी हैं, उनका संघर्ष समाप्त हो गया है, उन्हें उनका हक हासिल हो गया है। आठ दशक बाद उनके पात्र आज भी हमारे चारों तरफ लड़ते, पिटते, जुल्म सहते देखे जा सकते हैं। जो अपने समय को बांचते हुए जितना आगे तक देख पाता है, वह उतना ही बड़ा रचनाकार होता है। प्रेमचंद की कहानियों के बारे में जब मारकंडेय जी लिखते हैं कि हम हिंदी कहानी की यात्रा पर दृष्टि डालते हैं और पिछले 70-80 वर्षों की सामाजिक विकास की व्याख्या करते हैं, तो बहुत सुविधा पूर्ण तरीके से कह सकते हैं कि कहानी अब तक प्रेमचंद से चलकर प्रेमचंद तक ही पहुंची है, तो वे यही कह रहे होते हैं कि प्रेमचंद अपनी पूरी प्रामाणिकता और प्रासंगिकता के साथ अभी भी हमारे सामने खड़े हैं।
ऐसा नहीं कि कहानी आगे नहीं बढ़ी है। कहानी ने अपना शिल्प, अपनी बुनावट, अपना अंदाज बहुत बदल लिया है। बदलते समय के साथ अपनी सत्ता बनाये रखनी है तो उसे बदलना ही पड़ेगा लेकिन इस बदले हुए समय में भी प्रेमचंद की कहानियां अपनी संपूर्ण सार्थकता और सोद्देश्यता के साथ अपनी जगह बनाये हुईं हैं। इसलिए कि इतने समय बाद भी तमाम सामाजिक विषमताएं जस की तस अपनी जगह कायम हैं, वही अंधविश्वास, वही पारंपरिक कुंठाएं, वही अशिक्षा,  वही कुरीतियां। कहने को विकास का उजाला हुआ है लेकिन सतह के नीचे अंधकार और गहरा हुआ है, गरीबी और बढ़ी है, जीवन और दुरूह हुआ है। समाज के किसी कोने से उठने वाले लांछनों के संदर्भ में प्रेमचंद के विशाल रचना संसार को नये ढंग से समझने-समझाने की जरूरत है। यह काम साहित्य के मर्मज्ञों, आलोचकों और विद्वानों का है। उनसे उम्मीद तो की ही जा सकती है।

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