मध्य
प्रदेश के बालाघाट, छिन्दवाड़ा, मण्डला, डिण्डौरी आदि आदिवासी जनसंख्या
बहुल ज़िलों में आए दिन आदिवासी बालिकाओं के अचानक ग़ायब हो जाने की खबरें अब
सामान्य घटना हो गई हैं. पुलिस ज़्यादातर घटनाओं की रिपोर्ट दर्ज़ नहीं करती
और मजबूरी में यदि रिपोर्ट दर्ज की जाती है तो गुमशुदगी के मद में रिपोर्ट
दर्ज़ कर उसे काग़ज़ों में ही द़फन कर दिया जाता है. मण्डला ज़िले में
कार्यरत् एक स्वयंसेवी संस्था निर्माण के स्वतंत्र अध्ययन से पता चला है
कि पांच वषों में 600 से अधिक अवयस्क आदिवासी बालिकाएं लापता हुई हैं और
इनमें से 80 प्रतिशत का आज तक कहीं कोई सुराग तक नहीं लगा है. श्रम और
सेक्स के लिए आदिवासी बालाओं को इस क्षेत्र में सक्रिय दलाल बहला-फुसलाकर
नगरों, महानगरों में ले जाते हैं और उनका सौदा करते हैं. पुलिस भी क्षेत्र
में सक्रिय दलालों की मौजूदगी से इंकार नहीं करती है.
मण्डला, बालाघाट,
डिण्डौरी ज़िलों में पिछले पांच वर्षों में 600 से अधिक अवयस्क युवतियां
ग़ायब हुई हैं और इनमें से 80 प्रतिशत का आज तक कोई पता नहीं चला है.
कहानी छुन्नी की
आमगांव में रहने वाली छुन्नी (परिवर्तित नाम) भोपाल अपने भाई के साथ
मज़दूरी करने आई थी. गत वर्ष फरवरी माह में जब वह अपने ठिकाने से पाखाना
करने घर से निकली, तो दो माह तक वापस नहीं आई. बताते हैं कि भोपाल में उसके
भाई के साथ काम कर रहे हीरा नामक व्यक्ति उसे बहला-फुसलाकर राजस्थान के
डोकरखेड़ा कस्बे में ले गया. वहां उसे 60 हज़ार रूपए में रमेश को बेच दिया.
रमेश ने दो माह तक छुन्नी को अपनी पत्नी बनाकर रखा. घर के कामकाज के अलावा
छुन्नी को राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के तहत मज़दूरी भी करनी
होती थी और मज़दूरी का पैसा उसका कथित पति रमेश छीन लेता था. एक दिन छुन्नी
एक स्थानीय व्यक्ति अंगद की सहायता से रमेश के चंगुल से निकलने में सफल हो
गई. यहां भी दुर्भाग्य ने उसका पीछा नहीं छोड़ा. उसका मुक्तिदाता अंगद भी
उसे किसी और के हाथों उसे बेचने की कोशिश करने लगा था. छुन्नी एक रात उसके
चंगुल से छूटकर निकल भागी और किसी तरह अपने घर आमगांव लौट आई. ऐसा ही
डिण्डौरी ज़िले के समनापुर गांव की कलावती के साथ हुआ. कलावती और छुन्नी तो
घर लौट आईं, पर सैकड़ों ऐसी अभागी बालिकाएं हैं, जो अब तक वापस नहीं लौटीं.
दलालों का जाल
इन आदिवासी क्षेत्रों में गरीबी, प्रशासनिक लापरवाही, भ्रष्टाचार तथा
अशिक्षा के कारण ग़रीब जनता रोज़ी-रोटी के लिए हमेशा संघर्षरत् रहती है.
इसका फायदा कुछ दलाल उठा रहे हैं. दलाल गांव के किसी व्यक्ति को अपना एजेंट
बनाकर मजबूर ग़रीब परिवारों की जानकारी लेते हैं, फिर उनसे मेलजोल बढ़ाते
हैं. इसके बाद शहर में अच्छा रोज़गार दिलाने, अमीर घर में घरेलू नौकर का काम
दिलाने या अच्छे खाते-पीते घर में विवाह करा देने का लालच देकर बालिकाओं
को अपने साथ ले जाते हैं. कुछ मामलों में तो दलाल परिवार वालों को पैसा भी
देते हैं. अक़्सर सौतेली मां या नजदीकी रिश्तेदार पैसे के लालच में बालिकाओं
को दलालों के साथ भेज देते हैं.
सीधी ज़िले में कुसमी जनपद पंचायत क्षेत्र में पिछले तीन वर्षो में डेढ़
दर्ज़न से ज़्यादा अवयस्क युवतियों के ग़ायब होने के पीछे यही कारण रहे हैं.
लिंगानुपात असंतुलन के कारण भी बढ़ा है यह व्यापार
महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तरप्रदेश और हरियाणा राज्यों में लिंगानुपात
असंतुलन बहुत ज़्यादा है. इन राज्यों में कई जातियों और समाजों में तो
युवकों के विवाह के लिए युवतियां ही नहीं मिलती हैं. इसलिए विवाह हेतु भी
अवयस्क बालिकाओं और कम उम्र की युवतियों की मांग सदा बनी रहती है. इस मांग
को पूरा करने के लिए ज़िन्दा गोश्त के व्यापारी ग़रीबी बहुल इलाक़ों में
सक्रिय बने रहते हैं. बालाघाट पुलिस ने कुछ माह पूर्व ही चार अवयस्क
बालिकाओं को शहर से बाहर ले जाते हुए दलालों के चंगुल से मुक्त कराया है.
लेकिन छिन्दवाड़ा कुंवर सिंह पुसाम को दु:ख है कि 2004 से ग़ायब उसकी बेटी की
तलाश आज तक पुलिस ने नहीं की है. एक-दो नहीं, मण्डला, बालाघाट, डिण्डौरी
ज़िलों में पिछले पांच वर्षो में 600 से अधिक अवयस्क युवतियां ग़ायब हुई हैं
और इनमें से 80 प्रतिशत का आज तक कोई पता नहीं चला है. पुलिस केवल गुमशुदगी
की रिपोर्ट दर्ज़ करती है और चैन से बैठ जाती है यदि कोई ग़ायब हुई युवती
वापस आ जाती है तो पुलिस अपनी पीठ खुद थपथपा लेती है. वास्तव में एक संगठित
गिरोह इस इला़के में अपना जाल बिछाए हुए है. और पुलिस इनसे बे़खबर है.
छुन्नी, भोपाल से ग़ायब हुई थी और भोपाल में उसकी रिपोर्ट दर्ज़ कराई गई
थी. लेकिन पुलिस ने उसकी तलाश के लिए कोई प्रयास नहीं किए. जब वह लौट आई तो
जांच कार्यवाही के लिए पुलिस ने बग़ैर किसी अपराध के उसे तीन दिन तक महिला
थाने में रखा. बाद में उसे छोड़ा. इस मामले में ज़िम्मेदार पुलिस अधिकारी
मानते हैं कि अपराध गंभीर क़िस्म का है और ऐसे मामले में 10 वर्ष तक की सज़ा
हो सकती है, लेकिन पुलिस का रवैया संवेदनहीन ही रहा. राजस्थान के एक वरिष्ठ
पुलिस अधिकारी ने तो यहां तक कह दिया कि छुन्नी को वधूशुल्क चुकाकर रमेश
ने खरीदा और उससे विवाह किया. यह परंपरा राजस्थान में कई पिछड़े समाजों में
है. छुन्नी मध्यप्रदेश की है और उसे रमेश ने खरीदा फिर विवाह किया. इसलिए
पुलिस इस मामले में सामाजिक रिवाज़ों के कारण बीच में नहीं पड़ना चाहती.
अधिकारी यह भी कहते हैं कि दो माह तक रमेश ने छुन्नी को घर में अच्छे से
रखा, इसलिए प्रताड़ना का मामला भी नहीं बनता है और देह शोषण या बलात्कार का
मामला तो बनता ही नहीं है, क्योंकि छुन्नी रमेश की विवाहिता पत्नी है.
छुन्नी के अवयस्क होने पर पुलिस का तर्क है कि राजस्थान में बाल विवाह
प्रचलन में है और छुन्नी की आयु इतनी कम भी नहीं हैं कि वह पत्नी का
शारीरिक सुख देने का धर्म पूरा करने में अक्षम हो. कुल मिलाकर छुन्नी के
मामले में कुछ भी नहीं हुआ और छुन्नी का सौदा करने वाले और उसका देह शोषण
करने वाले चैन से बैठे हुए हैं. इस संवेदनहीन रवैये के कारण ही ग़रीब और
अशिक्षित महिलाओं की खरीद-फरोख्त का कारोबार जारी है.
घरेलू नौकरों का शोषण
स़िर्फ मुम्बई, दिल्ली ही नहीं, छोटे-छोटे शहरों में भी घरेलू नौकरों की
कमी महसूस की जा रही है. इसके लिए ग़रीब और आदिवासी परिवारों की युवतियों
को पसंद किया जाता है. कई बार तो मामूली जान पहचान पर ही उनके परिवार वाले
घरेलू नौकर बनने के लिए उनके मालिकों को सौंप देते हैं. विशेषकर आदिवासी
क्षेत्रों में पदस्थ सरकारी अधिकारी और कर्मचारी अपनी जान पहचान वालों के
आग्रह पर घरेलू नौकर के रूप में आदिवासी बालिकाओं को उनके हवाले करा देते
हैं. इन बालिकाओं के परिवार वाले भोले-भाले और अशिक्षित होते हैं, इसलिए
सरकारी कर्मचारियों पर भरोसा भी कर लेते हैं. कई मामलों में नतीजे अच्छे
मिलते हैं तो कई मामलों में धो़खा भी होता है.
बैतूल ज़िले के ठेसका गांव का खेतीहर मज़दूर हल्के खुश है कि साहब के साथ
उसकी बेटी शहर गई है. गांव में 8वीं कक्षा तक पढ़ी उसकी बेटी ने पांच साल
में 12वीं पास कर ली और नर्सिंग कॉलेज में उसे एडमिशन भी मिल गया. वह साहब
गुणगान करता रहता है. कुछ लोग ऐसे प्रचार का अनुचित लाभ उठाते हैं.
डिण्डौरी के पास के सूखा गांव की कलिया बताती है कि भिलाई में उसकी बेटी
साहब के घर काम करती थी और साहब ने उसका विवाह अपने ड्राइवर से करा दिया.
दामाद के पास पक्का मकान, टीवी और स्कूटर भी है. वह साहब की इस कृपा का जब
तब बखान करती रहती है, लेकिन हल्के और कलिया भाग्यशाली हैं, जो उन्हें
अच्छे और नेक लोग मिले. पर ज़्यादातर मामलों में बालिकाओं के साथ धो़खा ही
होता है.
भारत सरकार और मध्यप्रदेश सरकार ने आदिवासी क्षेत्रों के विकास के लिए
करोड़ा रूपया खर्च कर अनेक कार्यक्रम शुरू किए हैं. इसके अलावा अगर रोजगार
गारंटी योजना के तहत मजदूरों को रोज़गार मिले और नियमित मज़दूरी का भुगतान
हो, तो शायद ही कोई आदिवासी गांव छोड़कर जाए. इसी प्रकार यदि सस्ते राशन का
पर्याप्त और नियमित वितरण होता तो भी आदिवासी पेट भरने के लिए गांव छोड़कर
नहीं जाते. इसी कारण असामाजिक तत्व आदिवासी क्षेत्रों में महिला एवं बाल
व्यापार का जाल फैलाए हुए हैं और यह जाल भी सरकार के संवेदनहीन पुलिस और
प्रशासन तंत्र की उदासीनता और एक हद तक मिली भगत के कारण मज़बूत होता जा रहा
है.
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