बात
अस्सी के दशक के अंत और नब्बे के दशक के शुरुआती वर्षों की है. पुस्तकों
को पढ़ते हुए बहुधा मन में विचार आता था कि उस पर कुछ लिखूं, लेकिन संकोचवश
कुछ लिख नहीं पाता था. ज़्यादा पता भी नहीं था कि क्या और कैसे लिखूं और
कहां भेजूं. मैं अपने इस स्तंभ में पहले भी चर्चा कर चुका हूं कि किताबों
को पढ़ने के बाद चाचा भारत भारद्वाज को लंबे-लंबे पत्र लिखा करता था. फिर
पत्रों में सहमति और असहमतियां भी होने लगीं. इस पत्र व्यवहार से मुझे
समीक्षा का एक संस्कार मिला. जमालपुर में रहता था, वहां के कुछ साहित्यिक
मित्रों के साथ उठना-बैठना होने लगा. फिर विनोद अनुपम के कहने पर जमालपुर
प्रगतिशील लेखक संघ से भी जुड़ा, पदाधिकारी भी बना. प्रगतिशील लेखक संघ से
जुड़ने के बाद कई गोष्ठियों-बैठकों में बोलने का मौक़ा मिलना शुरू हो गया.
लिहाज़ा पुस्तकों और रचनाओं पर तैयारी करने लगा, जिसका फायदा बाद में मुझे
समीक्षा लेखन में हुआ. फिर मित्रों के आग्रह पर लघु पत्रिकाओं में कुछ
समीक्षाएं भेजीं, जो प्रकाशित भी हुईं. इन सबके पहले मैं हिंदी आलोचना के
शिखर पुरुष नामवर सिंह की कई किताबें पढ़ चुका था. सबसे पहले मैंने उनकी
किताब-कहानी नई कहानी पढ़ा, फिर कविता के नए प्रतिमान. उन पर केंद्रित
पत्र-पत्रिकाओं और समीक्षा ठाकुर द्वारा संपादित किताब-कहना न होगा भी पढ़ा.
नामवर जी के लेखन और उनकी समीक्षकीय दृष्टि से गहरे तक प्रभावित था. कहानी
नई कहानी में लिखी नामवर सिंह की एक पंक्ति अब तक याद है आज की ग्राम जीवन
पर लिखी हुई कहानियां प्रेमचंद की स्वस्थ और प्रवृत्त प्रवृत्ति का
अस्वाभाविक, परिवर्तित, कृत्रिम और डिस्टॉर्टेड पुन: प्रस्तुतीकरण है. वेद
में जिस तरह सब कुछ है, उसी तरह प्रेमचंद की कहानियों में सब कुछ है. जगत
ब्रह्म का विवर्त है तो आज की ग्राम कथाएं प्रेमचंद की विकृति हैं. कहानी
नई कहानी में जो लेख संकलित हैं, वे नामवर सिंह ने 1956 से 1965 के बीच
लिखे थे, लेकिन उनका उपरोक्त कथन आज भी पूरी तरह से समीचीन है. आज भी
ग्रामीण जीवन पर लिखी जा रही कहानियों के संदर्भ में इस बात को कहा जा सकता
है और मुझे लगता है कि यह टिप्पणी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी उस
व़क्त थी. ख़ैर मैं वर्तमान कहानी पर चर्चा नहीं कर रहा. बात नामवर सिंह की
हो रही थी. जमालपुर में जब रह रहा था तो नामवर सिंह को पढ़ते हुए यह लगता था
कि काश, उनसे परिचय होता, उनसे बातें कर पाता. कई बार उनको पत्र लिखा,
लेकिन डाक में डालने की हिम्मत नहीं जुटा पाया, लेकिन नामवर और उनसे जुड़ा
कुछ भी मिल जाता तो फौरन पढ़ लेता.
नामवर जी से तक़रीबन
घंटे भर की बातचीत उनको जानने-समझने के लिए काफी थी और यह मेरे लिए एक
लाइफटाइम एचीवमेंट जैसा था. जिनके लिखे को पढ़कर लिखना सीखा हो, उनके सामने
अपनी बात कहना मेरे लिए एक स्वप्न के सच होने जैसा था. नामवर जी से इतनी
लंबी बात करने का अवसर सुलभ कराने के लिए मित्र तजेंद्र लूथरा का आभार.
समय के चक्र ने मुझे देश की राजधानी दिल्ली पहुंचा दिया. एक गोष्ठी में
नामवर जी को सुना तो उनकी वक्तत्व कला से खासा प्रभावित हुआ. फिर
फ्रीलांसिंग का दौर शुरू हुआ. मित्र संजय कुंदन ने राष्ट्रीय सहारा के
रविवारीय पृष्ठ के लिए कई परिचर्चाएं करवाईं. उसी के सिलसिले में एक-दो बार
नामवर जी से बात हुई. जितनी बार उनसे बात होती तो मुझे कुछ न कुछ नया
हासिल हो जाता. नामवर जी से आमना-सामना नहीं हुआ. हिंदी भवन में एक गोष्ठी
में नामवर जी ने अपने भाषण के क्रम में बोलते हुए यह कह डाला कि आजकल हिंदी
साहित्य में अनंत विजय भी तलवारबाज़ी कर रहे हैं. संदर्भ मुझे अब याद नहीं
है, लेकिन इतना याद है कि उसी दौरान आलोचना पर एक परिचर्चा में मैंने नामवर
सिंह की राय को शामिल नहीं किया था. फिर धीरे-धीरे नौकरी की व्यस्तता में
लिखना कुछ कम हो गया. नामवर जी से बात करने की इच्छा मन में बनी रही. कई
बार उन व्यक्तिगत पार्टियों में बैठा, जिसमें नामवर जी थे. उनको और उनके
संस्मरणों और टिप्पणियों को सुनकर हमेशा से उनकी स्मृति और उनके अपडेट रहने
की क्षमता पर ताज्जुब होता था.
हाल ही में एक अनौपचारिक कवि गोष्ठी में नामवर सिंह जी से मुलाक़ात हो
गई. यह कवि गोष्ठी हिंदी कवि तजेंद्र लूथरा की पहल पर हुई थी, जिसमें
वरिष्ठ कवि विष्णु नागर, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, मदन कश्यप, लीलाधर मंडलोई,
पंकज सिंह, सविता सिंह के अलावा राजेंद्र शर्मा, रोहतक की कवयित्री शबनम,
रमा पांडे, हरीश आनंद और ममता किरण भी थीं. कवि मित्र अरुण आदित्य भी. उस
दिन संयोग से विष्णु नागर जी का जन्मदिन भी था. सभी कवियों ने अपनी कविताओं
का पाठ किया. हमेशा की तरह अरुण आदित्य की कविताएं व्यंग्यात्मक लहज़े में
बड़ी बातें कह जाती हैं. उनकी कविता-डर के पीछे कैडर है, सुनकर आनंद आ गया.
तजेंद्र लूथरा ने अपनी बेहतरीन कविता-अंतराल का डर सुनाई. यह कविता मैं
पहले ही पढ़ चुका था. इसमें कवि के अनुभव संसार का व्यापक फलक और उसको
देखने-समझने की उनकी दृष्टि सामने आती है. लक्ष्मी शंकर वाजपेयी और ममता
किरण की ख़ासियत यह है कि वे बिना पढ़े कविता बोलते हैं, सुनाते हैं. उनकी
शैली उनके काव्य पाठ को एकदम से ऊपर उठा देती है. राजेंद्र शर्मा की हुसैन
पर लिखी कविता एकदम से मौजूं थी, लेकिन मंडलोई की दो लाइनों ने महानगरीय
जीवन की त्रासदी को एकदम से नंगा कर दिया, सांप काटने से नहीं हुई है देह
नीली, कल रात मैं अपने दोस्त के साथ था. सभी कवियों ने दो-दो कविताएं
सुनाईं, लेकिन चूंकि विष्णु नागर जी का जन्मदिन था, इसलिए उन्होंने अपने
संग्रह से कई कविताओं का पाठ किया. सविता सिंह ने लंबी कविता सुनाई, लेकिन
दूर बैठे होने की वजह से मैं कविता ठीक से सुन नहीं पाया. संभवत कविता का
शीर्षक था- चांद, तीर और अनश्वर स्त्री. इस कवि गोष्ठी के बाद सबको उम्मीद
थी कि नामवर जी कुछ बोलेंगे. संचालन कर रहे तजेंद्र लूथरा और रमा पांडे
समेत कई लोगों ने उनसे आग्रह किया, लेकिन नामवर जी ने अपने अंदाज़ में मुंह
में पान दबाए स़िर्फ इतना कहा, आनंद आ गया.
गोष्ठी के बाद नामवर जी से मेरी पहली बार बेहद लंबी बात हुई. उन्होंने
यह कहकर मुझे चौंका दिया कि चौथी दुनिया के अपने स्तंभ में तुम अच्छा लिख
रहे हो. चौंकते हुए मैंने कहा कि सर, आप देखते हैं! तो उन्होंने फौरन मेरे
स्तंभों की कई बातें बताकर मुझे अचंभे में डाल दिया. अपनी प्रशंसा सुनना
हमेशा अच्छा लगता है, लेकिन ख़ुद से उसकी चर्चा अश्लीलता हो जाती है. नामवर
जी से फिर हिंदी की रचनाओं पर बात शुरू हुई. हमारी लंबी चर्चा हिंदी के
रचनात्मक लेखन में डिटेलिंग के न होने पर हुई. उन्होंने इस बात पर सहमति
जताई कि हिंदी के लेखक डिटेलिंग नहीं करते हैं, इस वजह से बहुधा रचनाएं
सतही हो जाती हैं. फिर हमारी चर्चा हुसैन पर हुई. नामवर जी ने एक दिलचस्प
किस्सा सुनाया. एक बार वह, श्रीकांत वर्मा, हुसैन और कुछ मित्र दिल्ली में
टी हाउस के बाहर खड़े होकर बातें कर रहे थे, अचानक एक व्यक्ति दौड़ता हुआ आया
और हुसैन को एक थप्पड़ मारकर भाग गया. सारे लोग हतप्रभ. यह दौर वही रहा
होगा, जब हुसैन हिंदू देवी-देवताओं के चित्र बनाकर विवादित हो चुके थे.
इससे हम हुसैन के भारत छोड़ने के डर का सूत्र पकड़ सकते हैं. हालांकि हुसैन
के भारत छोड़ने को लेकर मेरी काफी असहमतियां रही हैं. नामवर जी ने एक और बात
बताई कि कल्पना के हर अंक में हुसैन के रेखाचित्र छपा करते थे और उसके
संपादक बद्री विशाल पित्ती हुसैन के गहरे मित्रों में से थे. हुसैन के बाद
नामवर जी से भारतीय राजनीति, लोकपाल बिल, भ्रष्टाचार आदि पर भी बातें हुईं.
नामवर जी का मानना था कि आज भारतीय राजनीति बेहद ख़तरनाक दौर से गुज़र रही
है. कांग्रेस और भाजपा पर उन्होंने ख्रुश्चेव के बहाने से एक टिप्पणी की,
एक बार ख्रुश्चेव से ग्रेट ब्रिटेन की दोनों पार्टियों यानी लेबर पार्टी और
कंजरवेटिव पार्टी के बारे में उनकी राय पूछी गई. ख्रुश्चेव ने उत्तर दिया
कि एक बाएं पांव का जूता है और दूसरा दाएं पांव का जूता है. कहने का अर्थ
यह कि दोनों आख़िरकार जूते ही हैं.
नामवर जी से तक़रीबन घंटे भर की बातचीत उनको जानने-समझने के लिए काफी थी
और यह मेरे लिए एक लाइफटाइम एचीवमेंट जैसा था. जिनके लिखे को पढ़कर लिखना
सीखा हो, उनके सामने अपनी बात कहना मेरे लिए एक स्वप्न के सच होने जैसा था.
नामवर जी से इतनी लंबी बात करने का अवसर सुलभ कराने के लिए मित्र तजेंद्र
लूथरा का आभार.
(लेखक IBN7 से जुड़े हैं)
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