बाज़ारवाद और बाज़ार को पानी पी-पीकर सोते-जागते गरियाने वाले हिंदी के इन लेखकों से यह पूछा जाना चाहिए कि वे बाज़ार की ताक़तों के हाथों क्यों खेल रहे हैं? क्या व्यक्तिगत फायदे के लिए बाज़ार की ताकतों के आगे घुटने टेक देने में उन्हें कोई गुरेज नहीं है?दरअसल इस पूरे खेल का मक़सद स़िर्फ और स़िर्फ पैसा कमाना है. पैसा कमाने की इस दौड़ में हिंदी के कहानीकार यह भूलते जा रहे हैं कि वे पाठकों के साथ कितना बड़ा छल कर रहे हैं. चमचमाते कवर और नए शीर्षक को देखकर कोई भी पाठक अपने महबूब लेखक-लेखिका की किताबें ख़रीद लेता है, लेकिन जब वह घर आकर उसे पलटता है तो ख़ुद को ठगा महसूस करने के अलावा उसके पास कोई चारा नहीं बचता. पैसे की हानि के साथ-साथ टूटता-दरकता है उसका विश्वास. वह विश्वास, जो एक पाठक अपने प्रिय लेखक पर करता है. पाठकों के इसी विश्वास की बुनियाद साहित्य की सबसे बड़ी ताक़त है और जब उसमें ही दरार पड़ती है तो यह सीधे-सीधे साहित्य का नुक़सान है, जो फौरी तौर पर तो नज़र नहीं आएगा, लेकिन इसके दूरगामी परिणाम होंगे. जल्दी पैसा कमाने की होड़ में हिंदी का कहानीकार यह भूलता जा रहा है कि अगर उसने यह प्रवृत्ति नहीं छोड़ी तो उसे पाठक मिलने बंद हो जाएंगे. अभी ही वे पाठकों की कमी का रोना रोते हैं, लेकिन अगर एक बार पाठकों का भरोसा लेखकों से उठ गया तो क्या अंजाम होगा, इसकी स़िर्फ कल्पना की जा सकती है.
यह घपला स़िर्फ इस रूप में सामने नहीं आया है. हिंदी में कई ऐसे कहानीकार हैं, जिनकी लंबी कहानी किसी पत्रिका में छपी, फिर उसी लंबी कहानी को उपन्यास के रूप में प्रकाशित करा लिया गया. वर्तमान साहित्य के कहानी महाविशेषांक में हिंदी की वरिष्ठ लेखिका कृष्णा सोबती की लंबी कहानी ऐ लड़की प्रकाशित हुई थी, जिसे बाद में स्वतंत्र रूप से उपन्यास के रूप में छापा-छपवाया गया. इसी तरह दूधनाथ सिंह की लंबी कहानी नमो अंधकारम भी पहले कहानी के रूप में प्रकाशित-प्रचारित हुई, लेकिन कालांतर में वह एक उपन्यास के रूप में छपी. यही काम हिंदी के जादुई यथार्थवादी कहानीकार भी कर चुके हैं, जिन्होंने हंस में प्रकाशित अपनी लंबी कहानियों को डबल स्पेस में टाइप कराकर उपन्यास बना दिया. एक ही रचना कहानी भी है और उपन्यास भी, एक ही समय पर यह कैसे संभव है, लेकिन हिंदी में ऐसा धड़ल्ले से हुआ है. यह पाठकों के साथ छल नहीं तो क्या है? अपने फायदे के लिए पाठकों को ठगना कितना अनैतिक है, इसका ़फैसला तो भविष्य में होगा.
बाज़ारवाद और बाज़ार को पानी पी-पीकर सोते-जागते गरियाने वाले हिंदी के इन लेखकों से यह पूछा जाना चाहिए कि वे बाज़ार की ताक़तों के हाथों क्यों खेल रहे हैं? क्या व्यक्तिगत फायदे के लिए बाज़ार की ताक़तों के आगे घुटने टेक देने में उन्हें कोई गुरेज नहीं है? सारे सिद्धांत और सारे वाद क्या स़िर्फ काग़ज़ों या उनके आग उगलते भाषणों में ही नज़र आएंगे या फिर सारी क्रांति पड़ोसी के घर से शुरू होगी? हिंदी में बार-बार नैतिकता की बात उठाने वाले लेखकों-आलोचकों की इस मसले पर चुप्पी हैरान करने वाली है. पिछले लगभग दो-तीन दशकों से कहानीकारों का पाठकों के साथ यह धोखा जारी है, लेकिन कहीं किसी कोने से कोई आवाज़ नहीं उठी, किसी लेखक ने इस प्रवृत्ति पर आपत्ति नहीं की. प्रगतिशीलता और साहित्यिक शुचिता की बात करने वाले वामपंथी लेखकों को भी कहानीकारों का यह छल नज़र नहीं आया, बल्कि वे तो खुले तौर पर इस खेल में शामिल नज़र आते हैं. मार्क्सवाद को अपने कंधे पर ढोने वाले मार्क्सवादी लेखकों-आलोचकों को यह धोखा नज़र नहीं आया या नज़र आने के बावजूद वे आंखें मूंदे बैठे रहे. लेखक संगठनों तक ने इस धोखेबाज़ी पर कुछ न बोलना ही उचित समझा. उनसे कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती है, क्योंकि लेखक संगठन लगभग मृतप्राय हैं और जो बचे हैं, वे भी क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की तरह अपने नेताओं के जेबी संगठन मात्र बनकर रह गए हैं. कुछ कहानीकारों का यह तर्क है कि अलग-अलग प्रकाशकों से अलग-अलग नामों से कहानी संग्रह छपवाने का मूल मक़सद वृहत्तर पाठक समुदाय तक पहुंचना है. कई कहानीकार यह भी कहते हैं कि एक प्रकाशन से संस्करण ख़त्म होने के बाद ही वे दूसरे प्रकाशक के यहां से अपनी कहानियां छपवाते हैं, लेकिन ये दोनों तर्क एक सफेद झूठ की तरह हैं. कई संकलन मेरे सामने रखे हैं, जिनका प्रकाशन वर्ष या तो एक ही है या फिर अगले वर्ष. हिंदी प्रकाशन जगत को नज़दीक से जानने वालों का मानना है कि अभी हिंदी में यह स्थिति नहीं आई है कि किसी कहानी संग्रह का एक संस्करण छह माह या एक साल में ख़त्म हो जाए. इसके पीछे चाहे संग्रह के कम ख़रीददार हों या फिर प्रकाशकों का घपला. जहां तक वृहत्तर पाठक समुदाय तक पहुंचने की बात है तो यह अलग-अलग नाम से अलग-अलग प्रकाशन संस्थानों से छपवाने से कैसे संभव है, यह फॉर्मूला भी अभी सामने आना शेष है. अब व़क्त आ गया है कि हिंदी के तमाम वरिष्ठ लेखक इस बात पर गंभीरता से विचार करें, पाठकों के साथ दशकों से हो रहे छल पर मिल-बैठकर बात करें और उसे रोकने के लिए तुरंत कोई क़दम उठाएं, वरना हिंदी के पाठक ही इस बात का फैसला कर देंगे. और पाठक अगर फैसला करेंगे तो वह दिन हिंदी के कहानीकारों के लिए बहुत अशुभ साबित होगा और फिर उस फैसले पर पुनर्विचार का कोई मौक़ा भी नहीं होगा, क्योंकि जिस तरह लोकतंत्र में मतदाता का फैसला अंतिम होता है, उसी तरह साहित्य में पाठक का फैसला अंतिम और मान्य होता है.
(लेखक आईबीएन-7 से जुड़े हैं)
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