गीताश्री ने अपने इस कथन के समर्थन में कई उदाहरण दिए हैं. यह हमारे समाज की एक कड़वी हक़ीक़त है कि पुरुष चाहे जितनी स्त्रियों के साथ संबंध बनाए, उसकी इज़्ज़त पर बट्टा नहीं लगता है, बल्कि वह फख्र से सीना चौड़ा कर इसे एक उपलब्धि की तरह से पेश करता है. लेकिन वहीं अगर स्त्री ने अपनी मर्जी से अपने पति के अलावा किसी और मर्द के साथ संबंध बना लिया तो उसका चरित्र, उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि, उसकी शिक्षा-दीक्षा सभी सवालों के घेरे में आ जाते हैं.इन्हीं चुनौतियों के बीच रामनाथ गोयनका अवॉर्ड से नवाज़ी गई पत्रकार गीताश्री की किताब नागपाश में स्त्री का प्रकाशन हुआ है. गीताश्री ने इस किताब का संपादन किया है, जिसमें पत्रकारिता, थिएटर, साहित्य एवं कला जगत से जुड़ी महिलाओं ने पुरुषों की मानसिकता और स्त्रियों को लेकर उनके विचारों को अपनी कसौटी पर कसा है. गीताश्री की छवि भी स्त्रियों के पक्ष में मज़बूती से खड़े होने की रही है और पिछले कुछ वर्षों से उन्होंने अपने लेखन से स्त्री विमर्श को एक नया आयाम दिया है. अपनी इस किताब की भूमिका में लेखिका ने लिखा, आज बाज़ार के दबाव और सूचना-संचार माध्यमों के फैलाव ने राजनीति, समाज और परिवार का चरित्र पूरी तरह से बदल डाला है, मगर पितृसत्ता का पूर्वाग्रह और स्त्री को देखने का उसका नज़रिया नहीं बदला है, जो एक तरफ स्त्री की देह को ललचाई नज़रों से घूरता है तो दूसरी तऱफ उससे कठोर यौन शुचिता की अपेक्षा भी रखता है. पितृसत्ता का चरित्र भी वही है. हां, समाज में बड़े पैमाने पर सक्रिय और आत्मनिर्भर होती स्त्री की स्वतंत्र चेतना पर अंकुश लगाने के उसके हथकंडे ज़रूर बदले हैं.
गीताश्री ने अपने इस कथन के समर्थन में कई उदाहरण दिए हैं. यह हमारे समाज की एक कड़वी हक़ीक़त है कि पुरुष चाहे जितनी स्त्रियों के साथ संबंध बनाए, उसकी इज़्ज़त पर बट्टा नहीं लगता है, बल्कि वह फख्र से सीना चौड़ा कर इसे एक उपलब्धि की तरह से पेश करता है. लेकिन वहीं अगर स्त्री ने अपनी मर्जी से अपने पति के अलावा किसी और मर्द के साथ संबंध बना लिया तो उसका चरित्र, उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि, उसकी शिक्षा-दीक्षा सभी सवालों के घेरे में आ जाते हैं. लेकिन अब हालात तेज़ी से बदलने लगे हैं, स्त्रियां भी अपने मन की करने लगी हैं. इसी किताब के अपने एक लेख में उपन्यासकार मैत्रेयी पुष्पा ने कहा है कि औरत करती वही है, जो उसका दिल करता है, दिखावा चाहे वह जो करे. समाज के लिए स्त्री के प्रेम संबंध अनैतिक हो सकते हैं, मगर स्त्री के लिए नैतिकता की पराकाष्ठा है.
मैत्रेयी पुष्पा ने माना है कि आवारा लड़कियां ही प्यार कर सकती हैं. अपने लेख में मैत्रेयी पुष्पा ने इस बात का ख़ुलासा नहीं किया कि वह किस प्यार की बात करती हैं, दैहिक या लौकिक? क्योंकि उन्होंने लिखा है कि मेरे पांच-सात प्रेमी रहे, जो उम्र के अलग-अलग पड़ाव पर मुझे मिले. लेकिन लेख में नायब साहब और एदल्लला के साथ तो प्यार जैसी कोई चीज थी, देह तो बीच में कभी आई ही नहीं. इस किताब में बुज़ुर्ग लेखिका रमणिका गुप्ता का भी एक बेहद लंबा और उबाऊ लेख है. रमणिका गुप्ता ने बेवजह अपने लेख को लंबा किया है. अपने इस लंबे और उबाऊ लेख के अंत में उन्होंने भारतीय समाज में स्त्रियों की बदतर हालत के लिए धर्म और सामाजिक परंपरा को ज़िम्मेदार ठहराया है. अपने इस तर्क़ के समर्थन में उन्होंने दो उदाहरण भी दिए हैं. पहला उड़ीसा और दूसरा मध्य प्रदेश का है, जहां अट्ठारह-बीस साल की लड़कियों का विवाह बालकों से कर दिया जाता है. परंपरा की आड़ में तर्क़ यह दिया जाता है कि खेतों और घर का काम करने के लिए जवान लड़की चाहिए. लेकिन इस तरह के विवाह में योग्यता ससुर की परखी जाती है. पति के जवान होने तक बहू ससुर के साथ देह संबंध बनाने के लिए अभिशप्त होती है. मनुस्मृति में भी कहा गया है पति की पूजा विश्वसनीय पत्नी द्वारा भगवान की तरह होनी चाहिए. यदि वह अपनी सेवाएं देने में किसी तरह की भी कोई कोताही बरते तो उसे राजा से कहकर कुत्तों के सामने फेंकवा देना चाहिए. अपने इसी लेख में रमणिका गुप्ता ने यह भी कहा है कि दलित स्त्रियां सवर्ण स्त्रियों की तुलना में ज़्यादा स्वतंत्र होती हैं. इस बात को साबित करने के लिए भी रमणिका के अपने तर्क़ हैं.
जैसा कि ऊपर बताया गया है कि इस किताब में साहित्य के अलावा अन्य क्षेत्र की महिलाओं के भी लेख हैं. आमतौर पर सारे लेख व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर लिखे गए हैं. मशहूर गायिका विजय भारती का भी एक दिलचस्प लेख इस किताब में संग्रहीत है. विजय भारती ने अपने लेख में यह साबित करने की कोशिश की है कि समाज और परिवार में किस तरह से बचपन से ही लड़कियों को यौन शुचिता की घुट्टी पिलाई जाती है. जब बचपन में लड़कियां खेलने जाती हैं तो उनसे यह कहा जाता है कि सुन लो पहले ही, लड़कों के साथ मत खेलना, क्योंकि लड़कों के साथ खेलने से उनकी शुचिता नष्ट हो जाएगी. बचपन की बात क्यों, जवान लड़कियां भी जब घर से बाहर निकलती हैं तो परिवार के लोग उनके साथ छह-सात साल के उनके भाई को लगा देते हैं, जो उनकी रक्षा करेगा.
इनके अलावा फायर ब्रांड और अपनी लेखनी को एके-47 की तरह इस्तेमाल करने वाली पत्रकार मनीषा ने अपनी खास शैली में अपनी बात कही है. मनीषा लिखती हैं कि भारत में चालीस साल के ऊपर के लगभग नौ करोड़ आदमी स्वीकृत रूप से नपुंसक हैं, ज़ाहिर तौर पर उनकी सेक्स क्षमता जाती रही हो, पर सामाजिक-पारिवारिक दबावों में उनकी पत्नियां चूं तक नहीं कर पाती और अगर स्त्री बच्चा नहीं जन सकती तो भी उसकी शारीरिक संरचना पुरुष को भरपूर यौनानंद देने के काबिल तो रहती ही है. मनीषा की जो शैली है, वह बेहद तीखी और खरी-खरी कहने की है. वह लिखती हैं कि लड़की बिन ब्याह के अगर किसी लड़के का लिंग छू ले तो वह भ्रष्ट हो जाएगी, पर आप अपनी कोहनियां उसके स्तनों में खोंसते फिरें तो यह धार्मिकता मानी जाएगी. इसके अलावा जयंती, निर्मला भुराड़िया एवं असीमा भट्ट के भी पुरुष सत्ता के ख़िला़फ आग उगलते लेख इस किताब में हैं.
कुल मिलाकर अगर हम स्त्री विमर्श के प्रथम पुरुष राजेंद्र यादव को समर्पित इस किताब पर समग्रता से विचार करें तो यह लगता है कि राजेंद्र यादव की पीढ़ी ने जिस विमर्श की शुरुआत की थी, वह अब विरोध से आगे बढ़कर विद्रोह की स्थिति में जा पहुंचा है. इस लिहाज़ से गीताश्री की यह किताब अहम है कि युवा लेखिकाओं के विचार बेहद उग्र और आक्रामक हैं. जो बात स्त्री विमर्श का झंडा बुलंद करने वाली लेखिकाएं खुलकर नहीं कह पा रही थीं, वह बात अब युवा लेखिकाओं के लेख में सामने आने लगी है. इन युवा लेखिकाओं के तेवरों से यह लगता है कि स्त्री विमर्श ने एक नए मुकाम के साथ नई शब्दावली भी तैयार कर ली है. लेकिन लाख टके का सवाल यही है कि क्या सदियों पुरानी परंपराओं और मानसिकता को बदलना इतना आसान है? जवाब है नहीं. लेकिन इस वजह से प्रयास तो छोड़ नहीं सकते और उसी का नतीजा है नागपाश में स्त्री…
(लेखक आईबीएन-7 से जुड़े हैं)
No comments:
Post a Comment