नीरेन कुमार उपाध्याय
‘गंगे
तव दर्शनार्थ मुक्ति’ का मंत्र जाप कर लाखों वर्षों से हम और हमारी
संस्कृति अभी तक जीवित हैं। गंगा भारतीय संस्कृति का प्राण है। इसकी कल-कल
बहती धारा लोगों के मनों में आनन्द और उल्लास भर देती है। इसके दर्शन मात्र
से ही मुक्ति की कल्पना की गयी है। गंगा विश्व की एकमात्र ऐसी नदी है
जिसके प्रति लोगों की अगाध श्रध्दा है। गंगा से विश्वास, धर्म, संस्कृति और
संस्कार का नाता जन्म-जन्मांतर से बना हुआ है। इसके जल से आचमन कर मन,
शरीर, कर्म और वचन से व्यक्ति अपने अंदर पवित्रता और पूर्णता का अनुभव करने
लगता है। भारत के पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण चहुँओर गंगा, मां की तरह
पूजी जाती है। विश्व भर में गंगा को मानने वाले चाहे वे किसी भी धर्म के
अनुयायी हों उसके गुणों और पवित्र निर्मल धारा के आगे नतमस्तक होते हैं।
विकास की अंधी दौड़ में नीति निर्माताओं के अदूरदर्शितापूर्ण निर्णयों ने
देश की इस सर्वाधिक मान्यताओं वाली नदी के अस्तित्व पर ही संकट खड़ा कर
दिया है। आज गंगा अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए संघर्षरत है।
बूंद-बूंद शुध्द, निर्मल और अविरल धारा के लिए तड़प रही है, कराह रही है।
करोड़ों गंगा पुत्रों की ओर हाथ फैला कर जीवनदायिनी, मोक्षदायिनी एवं
पापनाशिनी गंगा आज अपने जीवन को बचाने की गुहार लगा रही है। देश की
सेक्युलर सरकार और उसके झंडाबरदारों ने पहले तो गंगा को प्रदूषित करने
वालों का ऑंख मूंदकर साथ दिया और बाद में गंगा प्रदूषण नियंत्रण के नाम पर
करोड़ों रूपये डकार गये। गंगा की हालत पहले से भी बुरी हो गयी। विश्व के
तमाम वैज्ञानिक गंगाजल की शुध्दता पर शोध कर रहे हैं, ऐसे में केंद्र और
राज्य सरकारों का मौन रहना चिंताजनक है। गंगा केवल धर्म, आस्था और श्रध्दा
का विषय नहीं है, बल्कि यह भारत की कृषि, उद्योग और रोजगार से भी संबंधित
विषय है। गंगा के आस-पास बसे नगरों के साथ-साथ देश की अर्थव्यवस्था पर भी
गंगा के नष्ट होने का दुष्परिणाम अवश्यम्भावी है। सरकार इस ओर से निश्चिंत
है। राजनीतिक दलों की भूमिका केवल रस्म अदायगी तक ही सीमित हो गयी है। यह
घोर उपेक्षा एक दिन महंगी पड़ने वाली है। क्यों गंगा तथाकथित विकासपुत्रों
के निशाने पर है ? गंगा समाप्त हो रही है, इसका दोषी कौन है ? विचारणीय
प्रश्न यह है कि करोड़ों लोगों की आस्था, विश्वास, श्रध्दा, धर्म,
संस्कृति, अर्थ, कृषि, और रोजगार की घोर उपेक्षा कर गंगा के अस्तित्व पर
संकट उत्पन्न करने वाले विकास का कौन सा मॉडल विकसित करना चाहते हैं?
व्यक्तिगत लाभ के लिए देश, समाज और संस्कृति से समझौता करने का यह उदाहरण
अत्यंत निंदनीय है। गंगोत्री से गंगासागर तक 2525 किमी. लम्बा मार्ग तय
करने वाली गंगा कई बड़े और छोटे जिलों से होते हुए बंगाल की खाड़ी में जाकर
गिरती है। मार्ग में पड़ने वाले जिलों से निकलने वाला सीवर का दूषित जल,
चमड़ा व अन्य उद्योगों के प्रदूषित जल गंगा के स्वरूप को बिगाड़ने के
वास्तविक जिम्मेदार हैं। चमड़ा शोधक कारखानों से निकलने वाला लाल-काला
दुर्गंधयुक्त पानी, चीनी मिल, शराब कारखानें, छोटे ताप विद्युत घर तथा तमाम
कारखानों का रसायनयुक्त पानी के अलावा कई राज्यों में 8,61,404 वर्ग किमी.
क्षेत्र में फैले गंगा के बेसिन में खेतों में कीटनाशकों व रासायनिक खादों
का अंधाधुंध प्रयोग, श्रध्दालुओं द्वारा नदी में फूल-माला, पूजा के बाद
बची हुई सामग्री पॉलीथिन में भरकर फेंकना, गंगा में स्नान करते समय
साबुन-शैम्पू का प्रयोग, जलक्र्रीड़ा के लिए मोटरबोट आदि का प्रयोग कहीं न
कहीं गंगा नदी को प्रदूषित करने में सहायक हैं। सरकारी स्तर पर गंगा को
बांधने का षड्यंत्र 1848 से प्रारम्भ हुआ वह 1912 में हरिद्वार में
भीमगोंडा बांँध और 1978 में टिहरी बांध का निर्माण शुरू कर गंगा को समाप्त
करने का सफल प्रयास किया गया। गंगा को कैद करने के अंग्रेजों के प्रयास को
पं0 मदन मोहन मालवीय व अन्य हिन्दू नेताओं के प्रबल विरोध के कारण टल गया।
अंततः 1916 में मालवीय जी के नेतृत्व में हिन्दू प्रतिनिधियों और अंग्रेज
सरकार के बीच गंगा की अविरल धारा को न रोकने के लिए समझौता हुआ जो कि
अनुच्छेद-32 के पैरा -1 और 2 में स्पष्ट निर्दिष्ट है। यह समझौता आज भी
भारत के संविधान के अनुच्छेद 363 के अंतर्गत सुरक्षित है। इसके बाद भी
टिहरी पर 260 मीटर ऊंचे बांध का निर्माण कर गंगा को बांधा गया। नोएडा से
बलिया तक गंगा एक्सप्रेस-वे गंगा को बांधने का एक और षड्यंत्र है। गंगा के
दाहिने ओर के तट को 8 मीटर ऊंचा किया जायेगा। बाढ़ के समय इसके दुष्परिणाम आ
सकते हैं। गंगा भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार है। मैली होती गंगा से
प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से कृषि, स्वास्थ्य, व्यापार और रोजगार पर असर
पड़ेगा। यह चिंतनीय है। नदियों के किनारे ही संस्कृतियां जन्मीं, पल्लवित
और पुष्पित हुईं। नगर, गांव और बस्तियां नदियों के किनारे या तो बसायी गयीं
या फिर स्वयं बसीं। नदियों के दोनों ओर आबादी बढ़ी, व्यापार बढ़े,
संस्कृतियों का विकास और विस्तार हुआ। भारत में उन्नत कृषि और तीन चक्र की
फसल सिंचाई के लिए नदियों के जल की उपलब्धता के कारण ही संभव हुआ। कृषि
प्रधान देश होने के बावजूद भारत में कृषि और किसान दोनों की उपेक्षा की गई।
विकास के लिए नदियों पर बड़े-बड़े बांध बनाये गए, टिहरी बांध के लिए टिहरी
नगर, कण्डल, भगवंतपुर, जोगियाणा और पडियार जैसे ऐतिहासिक गांवों की बलि दी
गई। इस परियोजना से लगभग 750 मी0 ऊंचाई के 35 गांव हमेशा के लिए तथा 74
गांव आंशिक रूप से डूब जायेंगे। परियोजना के दूसरे चरण में कोटेश्वर बांध
में 2 गांव पूरी तरह से तथा 14 गांव आंशिक रूप से डूब जायेंगे। ऊपजाऊ खेत
जिससे न केवल उस गांव के बल्कि आस-पास के लोग भी अनाज उपभोग करते थे समाप्त
कर दिए गए। इसके अलावा हजारों प्रकार की दुर्लभ जड़ी-बूटियां सदैव के लिए
नष्ट हो गईं। गंगोत्री से निकली गंगा धारा टिहरी में आकर मात्र 200 मीटर
चौड़ी और डेढ़ मी0 गहरी थी को 46 किमी. चौड़े व 800 मी0 गहरे विशाल जलाशय
में कैद कर दिया गया। प्रवाहित रहने वाली गंगा का जल अब झील में बदल
जायेगा। रूके हुए जल का ऊपरी भाग तो प्रवाहित रहेगा लेकिन नीचे का पानी
सालों साल वैसे ही पड़ा रहेगा जिससे उसकी गुणवत्ता और औषधीय गुण समाप्त हो
जायेगा। लोगों का अपने पुरखों की जमीन छोड़ कर दूसरे स्थानों पर विस्थापित
होना पड़ा, उनके जीविकोपार्जन की व्यवस्था कैसे होगी ? इस परियोजना पर अब
तक लगभग 8500 करोड़ रूपये व्यय हो चुके हैं जबकि मात्र एकहजार मेगावाट
बिजली ही इससे उत्पादित होगी। उत्तर प्रदेश सरकार ने नोयडा से बलिया तक
गंगा एक्सप्रेस-वे बनाने के प्रस्ताव को मंजूरी दे चुकी है। गंगा के किनारे
8 लेन का महामार्ग किसानों की ऊपजाऊ भूमि को अधिग्रहीत कर बनाया जायेगा
जिस पर काम तेजी से चल रहा है। खेत तो समाप्त होंगे ही हरे पेड़ों की कटाई
भी होगी। इस परियोजना के कारण लाखों पेड़ों की निर्मम कटाई सरकार के इशारे
पर की जा रही है। नए पेड़ों को लगाने का काम भी सरकारी काम-काज की तरह ही
हो रहा है। ऊपजाऊ जमीन पर तेज रफ्तार गाड़ियां दौड़ाना विकास का पर्याय है।
हास्यास्पद बात है। उ0प्र0 सरकार ने यमुना एक्सप्रेस-वे बनाने के लिए एक
उद्योग समूह को ठेका दिया है। सरकार और उद्योगपतियों की सांठ-गांठ का इससे
अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है। यमुना नदी का हाल दिल्ली जाने वालों ने
अवश्य देखा होगा। विकास का अर्थ यदि प्राकृतिक संसाधनों का दोहन है तो
विनाश के लिए हमे तैयार रहना होगा। उक्त योजनाओं से गंगा नदी, यमुना नदी और
किसानों का सर्वाधिक नुकसान होगा। गंगा नदी पर लाखों लोगों का जीवन आश्रित
है। मल्लाह, तीर्थ पुरोहित, माली, पंडे, नदी किनारे कछार में ककड़ी खीरा,
तरबूज, खरबूजा, मौसम की सब्जियों की खेती करने वाले, नौ परिवहन, मछली
व्यवसायी, धार्मिक मेले व पर्यटन से रोजगार पाने वाले, होटल व धर्मशालाओं
के व्यवसायी, इन अवसरों पर छोटे व फुटकर व्यवसायी जैसे के अलावा अनेकों
प्रकार के व्यवसाय और रोजगार गंगा से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े
हैं। टिहरी बांध की आयु सरकारी तंत्र ने 100 साल बतायी है, जबकि
वैज्ञानिकों ने 30-32 साल ही आंकी है। भूकंपीय क्षेत्र में बने इस बांध के
टूटने पर सुनामी से भी ज्यादा प्रलयंकारी होगा। पूरे जलाशय को खाली होने
में 22 मिनट से ज्यादा समय नहीं लगेगा। ऋषिकेश, हरिद्वार, मेरठ, बुलंदशहर
और हापुड़ 63 मिनट से 12 घंटे के भीतर 250 मीटर से 8.50 मीटर तक पानी में
पूरी तरह डूब जायेंगे। गंगा पर 580 से भी अधिक बांध बने हैं। उत्तराखंड और
केंद्र सरकार के कई प्रोजेक्ट बांध बनाने के प्रस्तावित हैं। गंगा का पानी
हरिद्वार में भी काफी कम मिल रहा है। इलाहाबाद और वाराणसी जैसे नगरों में
तो यह न के बराबर ही उपलब्ध है। या यह कहा जा सकता है कि मिल ही नहीं रहा
है। कुंभ और माघ मेले के अवसरों पर साधु-संतों और अन्य संगठनों को गंगा के
एक-एक बूंद जल के लिए शासन, सत्ता और प्रशासन से दो-दो हाथ करना पड़ता है।
हाईकोर्ट के आदेश के बाद कहीं जाकर गंगा जल लोगों को मिल पाता है। गंगा
एक्सप्रेस वे के लिए की जाने वाले एक तरफ 8 मीटर ऊंचे तट का भयंकर
दुष्परिणाम होने वाला है। यह गांव, गरीब, खेत-खलिहान, पशु-पक्षी, बाग-बगीचे
और जंगलों की बर्बादी की परियोजना है।भारतीयों की आस्था के केंद्र में गंगा केवल एक नदी नहीं है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारतीयों के लिए गंगा मां के रूप में मान्य है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की मान्यतायें गंगा की गोद में दिखााई देती है। गंगा को टिहरी में पूरी तरह से रोक दिया गया है। प्रदूषण ने गंगा की पवित्रता और औषधीय गुणों को प्रभावित किया है। गंगोत्री से गंगासागर तक गंगा संस्कृति विराजमान है। हजारों वर्षों की तपस्या के बाद धरती पर अवतरित गंगा को विलुप्त करने का जो काम अंग्रेज नहीं कर पाये वह काम अंग्रेजों के मानस पुत्रों ने कर दिखाया। यह भारतीय संस्कृति पर सीधा प्रहार है। प्रयाग में लगने वाला कुंभ मेला गंगा के समाप्त होने के बाद कैसे आयोजित होगा। हरिद्वार, काशी और प्रयाग और अन्य तीर्थ स्थलों का क्या होगा ? पितरों का तर्पण, अस्थि विसर्जन, कहां और कैसे होगा? गंगा के न होने से धार्मिक व सांस्कृतिक केंद्र समाप्त हो जायेंगे। भूमंडलीकरण और अंध आधुनिकता के दौर में संस्कृति, संस्कार, समाज, आस्था और विश्वास को भुलाना कहां का विधान है? यह चिंतनीय विषय है। प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करके विकास नहीं विनाश की व्यवस्था हो रही है। हम सभी कहीं न कहीं इस व्यवस्था के लिए जिम्मेदार हैं। आज गंगा की एक-एक बूंद के लिए संघर्ष जारी है। ”यूनान मिस्त्र रोमाँ सब मिट गये जहां से कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी”, हमने बहुत बार दुहराया है। भारतीय संस्कृति को मिटाने का षड्यंत्र चल रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि समाज गंगा को बचाने के लिए स्वयं जागृत हो। देश, समाज, धर्म, संस्कृति, संस्कार, कृषि और रोजगार को प्रभावित करे ऐसे विकास की परिभाषा बंद होनी चाहिए या नहीं निर्णय आने वाला समय करेगा।
* लेखक पत्रकारिता में शोध कर रहे हैं।
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