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इन दिनों जयपुर का हाल ऐसा ही है। सरेशाम
बारिश शुरू हो जाती है। बिल्डिंगों, टावर्स, परछत्तियों और बस स्टैंड्स के
अंदर या फिर नीचे सिमटते हुए, बूंदों की फुहार चेहरे से होती दिल तक पहुंच
जाती है... पर कोई भी मौसम क्या करे, जो मन कतरा-कतरा भरा हुआ हो। दिल भारी
है और नसों में विदा का मद्धम शोकगीत बजता ही जा रहा है-- वो तेरे प्यार
का ग़म!
दिल्ली की भीड़ से दूर गुलाबी शहर में आना
हरदम खुशी से भरपूर करता है। इस बार तो खैर, और, और ज्यादा खुशी थी। पहली
वज़ह तो ज़रा पर्सनल-सी है पर दूसरा कारण था--उस शख्स से मिलने की आरज़ू,
जो ज़िंदगी में बड़ी अहमियत रखता है। दान सिंह, खुद्दार और मनमौजी
संगीतकार। महज इसलिए मुंबई छोड़ दी, क्योंकि समझौता करना शान के ख़िलाफ़
था। उनकी कितनी ही कृतियां चोरी हो गईं। मायानगरी में ठगे गए दान सिंह
संकोची भी थे, लेकिन सिर झुका दें, ऐसी विनम्रता उन्होंने कभी नहीं ओढ़ी।
जि़क्र होता है जब कयामत का तेरे जलवों की
बात होती है, तू जो चाहे तो दिन निकलता है, तू जो चाहे तो रात होती
है'...और वो तेरे प्यार का गम, इक बहाना था सनम, अपनी तो किस्मत ही कुछ ऐसी
थी कि दिल टूट गया...ये नग्मे बचपन से जवानी तक हर अहसास के वक्त साथ रहे
हैं, उनको रेशा-रेशा अहसास में लपेटकर वज़ूद में लाने वाले दान सिंह से
मिलने की खुशी चेहरे से टपक रही थी। कवि मित्र दुष्यंत ने भरोसा दिलाया था
कि वो मुझे उस शख्स से मिला देंगे, जिसे बिना देखे ही प्यार कर बैठा था।
ठीक वैसे ही तो, जैसे ता-ज़िंदगी कुछ लोगों के साथ रहते हुए भी हम उनके मन
का क़तरा भी नहीं छू पाते हैं। पर हम कहां मिल पाए। जयपुर आने के चंद रोज
बाद ही पता चला कि वो बहुत बीमार हैं और फिर एक दिन वो चल दिए, ऐसे सफ़र
पर, जहां से कोई लौटकर नहीं आता।
ऐसे मौकों पर शोक की महज रस्म-अदायगी नहीं
होती। होश में रहा नहीं जाता। हज़म नहीं होती ये बात-हाय, वो चला गया, जो
दिल के इतने क़रीब था...यूं, अब भी एक अजीम फ़नकार से
ना
मिल पाने का ग़म तारी है। ऐसे ही मौकों पर याद आते हैं तीन और चेहरे।
ज्यूं, दान सिंह के गानों का ज़िक्र ना हो, तो शायद आम लोग उन्हें पहचान भी
ना पाएं, ऐसे ही तो थे वे तीनों भी। महेश सिद्धार्थ, कॉमरेड फागूराम और
बिरजू चाचा। नहीं, ये सब के सब ऐसे लोग नहीं, जिन्हें दुनिया-जहान जानता था
पर थे सब क़माल के। महेश सिद्धार्थ अपने ज़माने का ऐसा खिलाड़ी, जिस पर
लड़कियां जान देतीं। बाद में थिएटर में पूरी ज़िंदगी लगा दी। कॉमरेड
फागूराम सिद्धांतों में ऐसे रमे कि सर्वहारा समाजवादी क्रांति की फ़िक्र
में कभी दो वक्त की पुरसुकून रोटी की परवाह नहीं की और बिरजू चाचा, यूं तो
बुक स्टॉल चलाते थे, लेकिन पढ़ने-लिखने के संस्कार उन्होंने शहर के सैकड़ों
लड़कों को ज़बरन ही दिए। बिना पैसे लिए। ये सब भी बीते बरसों में नहीं रहे
और अब दान सिंह भी नहीं!
आप सोच सकते हैं कि एक अजीम संगीतकार का
ज़िक्र करते हुए तीन तकरीबन अनजाने लोगों की बात क्यों? सो इसका क्या जवाब
दें। बस यूं ही समझ लीजिए, हर ज़ुदाई कुछ और खाली कर देती है। इन चारों में
एक समानता भी तो थी, ये सब के सब इंसानियत और इंसान को भरपूर बनाने की
ख्वाहिश से भरपूर थे। एक के पास बदलाव के लिए संगीत का सपना था, तो बाकियों
के लिए क्रांति, रंगमंच और किताबों के हथियार और औजार थे। ये सब अब नहीं
हैं, लेकिन उनकी आंखों में देखे सपने तो हम अपनी पुतलियों में सजा सकते
हैं। शोक में डूबे रहकर मैं इस बारिश को दरकिनार करता रहा...पर अब उन सबके
जाने की उदासियों पर परदा डालने के लिए निकलता हूं। कल ही गांव से ख़बर
मिली है, पड़ोस में गाय ने बछिया दी है और चचेरे भाई के घर बेटा जन्मा है।
सच, जीवन कभी नहीं थमता। दान सिंह ने भी तो सत्तर की उम्र में गजेंद्र
श्रोत्रिय की फ़िल्म भोभर के गीत को संगीत से संवारा। उन्हें सही
श्रद्धांजलि तो यही होगी कि हम जमकर भीगें और कोशिश करें...बुन सकें दान
सिंह जैसा एक नग्मा, महेश की तरह का कोई नाटक, फागूराम जैसा एक क्रांति गीत
गुनगुनाएं और बिरजू चाचा के यहां से उठाकर पढ़ लें एक अच्छी-सी क़िताब। ये
सब अकेले नहीं होगा बिरादर। आप साथ आएंगे ना?
लेखक चण्डीदत्त शुक्ल जयपुर में भास्कर मैगजीन डिवीजन में फीचर संपादक के
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