लोक सेवकों को सजा नहीं मिलना और लोक
अर्थात आम लोगों को लगातार उत्पीड़ित होते रहना दो विरोधी और असंवैधानिक
बातें हैं. नौकर मजे कर रहे हैं और नौकरों की मालिक आम जनता अत्याचार झेलने
को विवश है. आम व्यक्ति से भूलवश जरा सी भी चूक हो जाये तो कानून के कथित
रखवाले ऐसे व्यक्ति को हवालात एवं जेल के सींखचों में बन्द कर देते हैं.
जबकि आम जनता की रक्षा करने के लिये तैनात और आम जनता के नौकर अर्थात लोक
सेवक यदि कानून की रक्षा करने के बजाय, स्वयं ही कानून का मखौल उड़ाते
पकडे़ जायें तो भी उनके साथ कानूनी कठोरता बरतना तो दूर किसी भी प्रकार की
दण्डिक कार्यवाही नहीं की जाती. आखिर क्यों? क्या केवल इसलिये कि लोक सेवक
आम जनता नहीं है या लोक सेवक बनने के बाद वे भारत के नागरिक नहीं रह जाते
हैं? अन्यथा क्या कारण हो सकता है कि भारत के संविधान के भाग-3, अनुच्छेद
14 में इस बात की सुस्पष्ट व्यवस्था के होते हुए कि कानून के समक्ष सभी
लोगों को समान समझा जायेगा और सभी को कानून का समान संरक्षण भी प्राप्त
होगा, भारत का दाण्डिक कानून लोक सेवकों के प्रति चुप्पी साध लेता है?
पिछले दिनों राजस्थान के कुछ आईएएस अफसरों
ने सरकारी खजाने से अपने आवास की बिजली का बिल जमा करके सरकारी खजाने का न
मात्र दुरुपयोग किया बल्कि सरकारी धन जो उनके पास अमनत के रूप में
संरक्षित था, उस अमानत की खयानत करके भारतीय दण्ड संहिता की धारा 409 के
तहत वर्णित आपराधिक न्यासभंग का अपराध किया, लेकिन उनको गिरफ्तार करके जेल
में डालना तो दूर अभी तक किसी के भी विरुद्ध एफआईआर तक दर्ज करवाने की
जानकारी समाने नहीं आयी है. और ऐसे गम्भीर मामले में भी जॉंच की जा रही है,
कह कर इस मामले को दबाया जा रहा है. हम देख सकते हैं कि जब कभी लोक सेवक
घोर लापरवाही करते हुए और भ्रष्टाचार या नाइंसाफी करते हुए पाये जावें तो
उनके विरुद्ध आम व्यक्ति की भांति कठोर कानूनी कार्रवाई होने के बजाय,
विभागीय जॉंच की आड़ में दिखावे के लिये स्थानान्तरण या ज्यादा से ज्यादा
निलम्बन की कार्यवाही ही की जाती है. यह सब जानते-समझते हुए भी आम जनता तथा
जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि चुपचाप यह तमाशा देखते रहते हैं. जबकि कानून
के अनुसार लोक सेवकों के विरुद्ध विभागीय कार्रवाई के साथ-साथ भारतीय
आपराधिक कानूनों के तहत दोहरी दण्डात्मक कार्रवाई किये जाने की व्यवस्था
है.
इस प्रकार की घटनाओं में पहली नजर में ही
आईएएस अफसर उनके घरेलू बिजली उपभोग के बिलों का सरकारी खजाने से भुगतान
करवाने में सहयोग करने वाल या चुप रहने वाले उनके साथी या उनके अधीनस्थ भी
बराबर के अपराधी हैं, जिन्हें वर्तमान में जेल में ही होना चाहिये, लेकिन
सभी मजे से सरकारी नौकरी कर रहे हैं. ऐसे में विचारणीय मसला यह है कि जब
आईएएस अफसर ने कलेक्टर के पद पर रहते हुए अपने दायित्वों के प्रति न मात्र
लापरवाही बरती है, बल्कि घोर अपराध किया है तो एसे अपराधियों के विरुद्ध
भारतीय दण्ड संहिता एवं भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम के तहत तत्काल सख्त
कानूनी कार्रवाई क्यों नहीं की जा रही है? नीचे से ऊपर तक सभी लोक सेवकों
के मामलों में ऐसी ही नीति लगातार जारी है. जिससे अपराधी लोक सेवकों के
हौंसले बुलन्द हैं.
इन हालातों में सबसे बड़ा सवाल यह है कि
क्या सरकारी सेवा में आने से कोई भी व्यक्ति महामानव बन जाता है? जिसे
कानून का मखौल उड़ाने का और अपराध करने का 'विभागीय जॉंच' रूपी अभेद्य
सुरक्षा कवच मिला हुआ है. जिसकी आड़ में वह कितना ही गम्भीर और बड़ा अपराध
करके भी सजा से बच निकलता है. जरूरी है, इस असंवैधानिक और मनमानी व्यवस्था
को जितना जल्दी सम्भव हो समाप्त किया जावे. इस स्थिति को सरकारी सेवा में
मेवा लूटने वालों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता, क्योंकि सभी चोर-चोर
मौसेरे भाई होते हैं, जो हमेशा अन्दर ही अन्दर एक-दूसरे को बचाने में जुटे
रहते हैं. आम जनता को ही इस दिशा में कदम उठाने होंगे. इस दिशा में कदम
उठाना मुश्किल जरूर है, लेकिन असम्भव नहीं है, क्योंकि विभागीय जॉंच कानून
में भी इस बात की व्यवस्था है कि लोक सेवकों के विरुद्ध विभागीय कार्रवाई
के साथ-साथ आपराधिक मुकदमें दायर कर आम व्यक्ति की तरह लोक सेवकों के
विरुद्ध भी कानूनी कार्यवाही की जावे. जिसे व्यवहार में ताक पर उठा कर रख
दिया गया लगता है.
अब समय आ गया है, जबकि इस प्रावधान को भी
आम लोगों को ही क्रियान्वित कराना होगा. अभी तक पुलिस एवं प्रशासन कानून
का डण्डा हाथ में लिये अपने पद एवं वर्दी का खौफ दिखाकर हम लोगों को डराता
रहा है, लेकिन अब समय आ गया है, जबकि हम आम लोग कानून की ताकत अपने हाथ में
लें और विभागीय जॉंच की आड़ में बच निकलने वालों के विरुद्ध आपराधिक
मुकदमे दर्ज करावें. जिससे कि उन्हें भी आम जनता की भांति कारावास की
तन्हा जिन्दगी का अनुभव प्राप्त करने का सुअवसर प्राप्त हो सके और जिससे
आगे से लोक सेवक, आम व्यक्ति को उत्पीड़ित करने तथा कानून का मखौल उड़ाने
से पूर्व दस बार सोचने को विवश हों.
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