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आज के समय में विज्ञान का बहुत जोर है। जिससे लोगों का बौद्धिक स्तर काफी बढ गया है।
इसी वजह से बाहरमुखी पूजा, आयोजन, प्रदर्शन और कर्मकाण्ड आदि लोगों को व्यर्थ व फिजूल की बातें लगने लगी हैं और यह सही भी है, क्योंकि ये सब बातें नकल की हैं औऱ इनसे कुछ भी रूहानी फायदा नहीं हो सकता। पर ऐसे विद्यावान लोगों को भी वह उपासना और अभ्यास मंजूर नहीं होती, जिस में कि, मन और उसकी वासनाओं पर जोर व दबाव पड़ता है। तो अंतरी अभ्यास भी उन्हें भारी मेंहनत का काम लगता है।
सभी विद्या के मतों के ज्ञानवान, पढने-पढाने को ही पसंद करते हैं और उसी पर विश्वास भी कर लेते हैं और वाचक ज्ञानी और कथित ब्रह्म-ज्ञानी बनते चले जाते हैं। पर अपनी हालत पर ये भी कभी गौर नहीं करते, बस अपनी बुद्धी की दलीलों से ही नादान, नासमझ और अनजान लोगों की गुटबंदी और फिर अपने हिसाब से ही उन्हें चलाने में लगे रहते हैं।
गौर करनें की बात है कि, जब तक काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार मौजूद है; तब तक पूर्ण ब्रह्म-पद कैसे प्राप्त हो सकता है...? अगर दो - चार ज्ञान के शास्त्र पढ़ और रट लेने का नाम ही ब्रह्म-ज्ञान है, तो ऐसा ज्ञानी बनने में कोई दिक्कत या मेंहनत तो करनी नहीं होती। जो भी थोड़ा बहुत पढा-लिखा व्यक्ति है, वह ब्रह्म वाचक ज्ञानी तो बन ही सकता है।
वास्तविक ज्ञान उसे कहते हैं जब कि ब्रह्म के साक्षात दर्शन हो जाएं। उसका रस व आनन्द ऐसा है कि ग्रहस्थ आश्रम क्या जीव दुनियां की हुकूमत और दौलत को ठोकर मार दे। और ऐसा ही हो जाता है, जिसे अंतर का यह रस मिल जाता है।
संतों के मत में ब्रह्म नाम ईशवर के लक्ष्य स्वरूप का है और यह लक्ष्य स्वरूप ही माया सबल है, पर.... वेदान्ती, ब्रह्म के लक्ष्य स्वरूप को शुद्ध और ईश्वर स्वरूप को वाच और माया सबल कहते हैं। ...पर संत जो कि इन दौनों ही स्वरूपों के पार पहुंचते हैं, वे कहते हैं कि - ब्रह्म के स्वरूप यानी लक्ष्य व वाच, दौनों ही माया सबल हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि एक स्तर पर यानी वाच यानी ईश्वर स्वरूप के स्तर पर माया सघन व प्रकट है और लक्ष्य यानी ब्रह्म स्वरूप पर माया बहुत ही बारीक, सूक्ष्म या गुप्त है, जिसे सुरत-शब्द मार्ग द्वारा, पार ब्रह्म के स्तर पर स्थिर हो कर ही जाना जा सकता है।
और यही पद चौथा या उसकी छाया है।
'सप्रेम राधास्वामी'
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