स्तार
साल 2011: क्या दुनिया में कुछ नया घटेगा?
पुष्पेश पंत, कूटनीतिक विश्लेषक
वर्ष 2010 कई मायनों में महत्वपूर्ण समझा जा सकता है- अमरीका, भारत, रूस, फ़्रांस सबकी विदेश नीति में काफ़ी बदलाव हुए। अब सवाल ये है कि 2011 में दुनिया का हाल क्या होगा? देश-विदेश में होने वाली हलचल हमें किस तरह से प्रभावित करेगी?
अफगानिस्तान
सबसे पहली बात जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए वो ये है कि भले ही अफ़ग़ानिस्तान से अमरीकी फ़ौज की वापसी का जितना भी शोर मचता रहे, ये रणक्षेत्र विस्फोटक बना रहेगा। अफ़ग़ानिस्तान में पश्चिमी नमूने के जनतंत्र को जबरन थोपने या राजनीतिक-सैनिक शल्यचिकित्सा द्वारा कृत्रिम रूप से प्रत्यारोपित करने के सभी प्रयास नाकाम रहे हैं। अफ़ग़ानिस्तान की भूगौलिक स्थिति ऐसी है कि यहाँ का घटनाक्रम ईरान और इराक़ को प्रभावित करता है और उनसे प्रभावित होता है। कुल मिलाकर संकट का ये चंद्र राहुकाल में फँसा रहेगा।
भले ही अफ़ग़ानिस्तान से अमरीकी फ़ौज की वापसी का जितना भी शोर मचता रहे, ये रणक्षेत्र विस्फोटक बना रहेगा। अफ़ग़ानिस्तान ख़ूंखार कबायली अतीत और जोख़िम भरे भविष्य के बीच एक ऐसे वर्तमान में जी रहा है जहाँ अराजकता फैली है। अब झक मारकर अमरीका को ताथकथित ‘अच्छे तालिबान’ के साथ संवाद की पेशकश के लिए मजबूर होना पड़ा है। इस बात को बार-बार रेखांकित करने से भी कुछ हासिल नहीं होने वाला कि कट्टरपंथी तालिबानरूपी इस जानलेवा नासूर को अमरीका ने ख़ुद पैदा किया है।
हक़ीक़त ये है कि आज अफ़ग़ानिस्तान ख़ूंखार कबायली अतीत और जोख़िम भरे भविष्य के बीच एक ऐसे वर्तमान में जी रहा है जहाँ अराजकता फैली है। अफ़ीम की तस्करी हो या हिंसक कट्टरपंथ का निर्यात- अफ़ग़ानिस्तान एक जटिल अंतरराष्ट्रीय संकट का केंद्र है। एक ओर इसके तार पाकिस्तानी फ़ौज से जुड़े हैं तो दूसरी ओर सामंतशाही सऊदी अरब से।
चीन- कभी नरम कभी गरम
विश्व पटल पर भारत-अमरीका के बढ़ते सहयोग के बीच चीन को टटोलना ज़रूरी है. चीन आज दुनियाभर की हलचल की दिशा तय करने वाली महाशक्ति है। भारत समेत अन्य देशों के साथ चीन का रवैया कभी नरम तो कभी गरम चलता रहेगा। उत्तर कोरिया को वो उसी तरह शह देकर इस्तेमाल करता रहेगा जैसे वो पाकिस्तान को करता है।
रूस को लगता है कि अमरीकी शिकंजे में कसा उसका विश्वासपात्र भारत कहीं चीन के निकट तो नहीं जा रहा। वहीं कुछ लोग इस बात से चिंतित हैं कि चीन का उपयोग अमरीका के वज़न को संतुलित करने के लिए किया जा सकता है। लेकिन 2011 में चीन वही करता रहेगा जो उसने 2010 में किया और कोई ख़ुशफ़हमी पैदा करने वाले नतीजे नहीं आएँग- यानी भारत समेत अन्य देशों के साथ चीन का रवैया कभी नरम तो कभी गरम चलता रहेगा।
उत्तर कोरिया को वो उसी तरह शह देकर इस्तेमाल करता रहेगा जैसे वो पाकिस्तान को करता है। इन दोनों ही देशों के संदर्भ में परमाणु अप्रसार और पडो़सी से तकरार की चुनौती जस की तस बनी रहेगी।
आक्रामक रुख़
चीन और विश्वसमुदाय का मत कई मुद्दों पर अलग रहा है। नेपाल के साथ-साथ दक्षिण एशिया में चीन अपना प्रभुत्व बढ़ाने की कोशिश के तहत श्रीलंका से गठजोड़ बढाएगा- कहीं प्रत्यक्ष रूप से कहीं अप्रत्यक्ष रूप से। अगर कोई देश चीन के इस मंसूबे को चुनौती देगा तो उसके प्रति चीन का रुख़ अप्रत्याशित रूप से आक्रामक हो सकता है। मानवाधिकारों का मुद्दा हो या पर्यावरण का, चीन के हित विश्वसमुदाय की आम सहमति से टकराते रहेंगे
बर्मा में तो उसने अपनी जड़ें काफ़ी मज़बूती से जमा ही ली हैं। कभी मज़बूत अर्थव्यवस्था वाले जापान की हालत आज ऐसी नहीं है कि वो दक्षिण कोरिया और ताइवान की मदद से चीन को उग्र आक्रामक तेवर अख़्तियार करने से रोक सके। 2011 में चीन न सिर्फ़ दक्षिण चीन सागर में दवाब बनाए रखेगा बल्कि अफ़्रीका से लेकर लातिन अमरीका में हर जगह संसाधनों पर अपना क़ब्ज़ा बनाए रखने के लिए सक्रिय रहेगा।
कहीं अमरीका न डाले खलल
जहाँ तक अमरीका का सवाल है तो इस बात के कोई आसार नज़र नहीं आ रहे कि आर्थिक मंदी और बढ़ती बेरोज़गारी की चपेट से उसे निकट भविष्य में पूरी तरह निजात मिल सकती है। इसका एक परिणाम तो ये होगा कि अमरीकी राष्ट्रपति और प्रशासन अंतरराष्ट्रीय मंच पर आसाधारण रूप से सक्रिय होकर कोई भी उपलब्धि हासिल करने के लिए उतावला रहेगा।
अतीत का अनुभव यही सिखाता है कि जब कभी ऐसी स्थिति पैदा होती है तो विश्व स्तर पर हालात अस्थिर होने लगते हैं। जाने कब अपने मतदाता का ध्यान भटकाने के लिए अमरीका कहीं हस्तक्षेप कर बैठे।
रूस में पुतिन बने भगवान
पुतिन अपने भरत यानी मेदवेदेव से पादुकाएँ वापस ले ख़ुद अपने पैरों में पहन दोबारा राज-काज संभालने की तैयारी कर सकते हैं। अब कोई संवैधानिक अड़चन आड़े नहीं आ सकती। भले ही चुनाव कुछ दूर हो पर ‘सत्ता परिवर्तन’ की सुगबुगाहट के झटके यूरोप में दूर तक महसूस किए जा सकेंगे। चेचन्या, जॉर्जिया और यूक्रेन.. सभी की निगाहें रूस पर ही अटकी रहेंगी।
वर्ष 2010 कई मायनों में महत्वपूर्ण समझा जा सकता है- अमरीका, भारत, रूस, फ़्रांस सबकी विदेश नीति में काफ़ी बदलाव हुए। अब सवाल ये है कि 2011 में दुनिया का हाल क्या होगा? देश-विदेश में होने वाली हलचल हमें किस तरह से प्रभावित करेगी?
अफगानिस्तान
सबसे पहली बात जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए वो ये है कि भले ही अफ़ग़ानिस्तान से अमरीकी फ़ौज की वापसी का जितना भी शोर मचता रहे, ये रणक्षेत्र विस्फोटक बना रहेगा। अफ़ग़ानिस्तान में पश्चिमी नमूने के जनतंत्र को जबरन थोपने या राजनीतिक-सैनिक शल्यचिकित्सा द्वारा कृत्रिम रूप से प्रत्यारोपित करने के सभी प्रयास नाकाम रहे हैं। अफ़ग़ानिस्तान की भूगौलिक स्थिति ऐसी है कि यहाँ का घटनाक्रम ईरान और इराक़ को प्रभावित करता है और उनसे प्रभावित होता है। कुल मिलाकर संकट का ये चंद्र राहुकाल में फँसा रहेगा।
भले ही अफ़ग़ानिस्तान से अमरीकी फ़ौज की वापसी का जितना भी शोर मचता रहे, ये रणक्षेत्र विस्फोटक बना रहेगा। अफ़ग़ानिस्तान ख़ूंखार कबायली अतीत और जोख़िम भरे भविष्य के बीच एक ऐसे वर्तमान में जी रहा है जहाँ अराजकता फैली है। अब झक मारकर अमरीका को ताथकथित ‘अच्छे तालिबान’ के साथ संवाद की पेशकश के लिए मजबूर होना पड़ा है। इस बात को बार-बार रेखांकित करने से भी कुछ हासिल नहीं होने वाला कि कट्टरपंथी तालिबानरूपी इस जानलेवा नासूर को अमरीका ने ख़ुद पैदा किया है।
हक़ीक़त ये है कि आज अफ़ग़ानिस्तान ख़ूंखार कबायली अतीत और जोख़िम भरे भविष्य के बीच एक ऐसे वर्तमान में जी रहा है जहाँ अराजकता फैली है। अफ़ीम की तस्करी हो या हिंसक कट्टरपंथ का निर्यात- अफ़ग़ानिस्तान एक जटिल अंतरराष्ट्रीय संकट का केंद्र है। एक ओर इसके तार पाकिस्तानी फ़ौज से जुड़े हैं तो दूसरी ओर सामंतशाही सऊदी अरब से।
चीन- कभी नरम कभी गरम
विश्व पटल पर भारत-अमरीका के बढ़ते सहयोग के बीच चीन को टटोलना ज़रूरी है. चीन आज दुनियाभर की हलचल की दिशा तय करने वाली महाशक्ति है। भारत समेत अन्य देशों के साथ चीन का रवैया कभी नरम तो कभी गरम चलता रहेगा। उत्तर कोरिया को वो उसी तरह शह देकर इस्तेमाल करता रहेगा जैसे वो पाकिस्तान को करता है।
रूस को लगता है कि अमरीकी शिकंजे में कसा उसका विश्वासपात्र भारत कहीं चीन के निकट तो नहीं जा रहा। वहीं कुछ लोग इस बात से चिंतित हैं कि चीन का उपयोग अमरीका के वज़न को संतुलित करने के लिए किया जा सकता है। लेकिन 2011 में चीन वही करता रहेगा जो उसने 2010 में किया और कोई ख़ुशफ़हमी पैदा करने वाले नतीजे नहीं आएँग- यानी भारत समेत अन्य देशों के साथ चीन का रवैया कभी नरम तो कभी गरम चलता रहेगा।
उत्तर कोरिया को वो उसी तरह शह देकर इस्तेमाल करता रहेगा जैसे वो पाकिस्तान को करता है। इन दोनों ही देशों के संदर्भ में परमाणु अप्रसार और पडो़सी से तकरार की चुनौती जस की तस बनी रहेगी।
आक्रामक रुख़
चीन और विश्वसमुदाय का मत कई मुद्दों पर अलग रहा है। नेपाल के साथ-साथ दक्षिण एशिया में चीन अपना प्रभुत्व बढ़ाने की कोशिश के तहत श्रीलंका से गठजोड़ बढाएगा- कहीं प्रत्यक्ष रूप से कहीं अप्रत्यक्ष रूप से। अगर कोई देश चीन के इस मंसूबे को चुनौती देगा तो उसके प्रति चीन का रुख़ अप्रत्याशित रूप से आक्रामक हो सकता है। मानवाधिकारों का मुद्दा हो या पर्यावरण का, चीन के हित विश्वसमुदाय की आम सहमति से टकराते रहेंगे
बर्मा में तो उसने अपनी जड़ें काफ़ी मज़बूती से जमा ही ली हैं। कभी मज़बूत अर्थव्यवस्था वाले जापान की हालत आज ऐसी नहीं है कि वो दक्षिण कोरिया और ताइवान की मदद से चीन को उग्र आक्रामक तेवर अख़्तियार करने से रोक सके। 2011 में चीन न सिर्फ़ दक्षिण चीन सागर में दवाब बनाए रखेगा बल्कि अफ़्रीका से लेकर लातिन अमरीका में हर जगह संसाधनों पर अपना क़ब्ज़ा बनाए रखने के लिए सक्रिय रहेगा।
कहीं अमरीका न डाले खलल
जहाँ तक अमरीका का सवाल है तो इस बात के कोई आसार नज़र नहीं आ रहे कि आर्थिक मंदी और बढ़ती बेरोज़गारी की चपेट से उसे निकट भविष्य में पूरी तरह निजात मिल सकती है। इसका एक परिणाम तो ये होगा कि अमरीकी राष्ट्रपति और प्रशासन अंतरराष्ट्रीय मंच पर आसाधारण रूप से सक्रिय होकर कोई भी उपलब्धि हासिल करने के लिए उतावला रहेगा।
अतीत का अनुभव यही सिखाता है कि जब कभी ऐसी स्थिति पैदा होती है तो विश्व स्तर पर हालात अस्थिर होने लगते हैं। जाने कब अपने मतदाता का ध्यान भटकाने के लिए अमरीका कहीं हस्तक्षेप कर बैठे।
रूस में पुतिन बने भगवान
पुतिन अपने भरत यानी मेदवेदेव से पादुकाएँ वापस ले ख़ुद अपने पैरों में पहन दोबारा राज-काज संभालने की तैयारी कर सकते हैं। अब कोई संवैधानिक अड़चन आड़े नहीं आ सकती। भले ही चुनाव कुछ दूर हो पर ‘सत्ता परिवर्तन’ की सुगबुगाहट के झटके यूरोप में दूर तक महसूस किए जा सकेंगे। चेचन्या, जॉर्जिया और यूक्रेन.. सभी की निगाहें रूस पर ही अटकी रहेंगी।
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