गांधी को गाली देना अभिव्यक्ति की आजादी का हिस्सा!
“बुड़बक की लुगाई, सारे गाँव की भौजाई”... “सीधे का मुंह कुत्ता भी चाटता है” ...ये दो ऐसे मुहावरे हैं जो मुझे बरबस इस समय फेसबुक पर “आई हेट गाँधी” नाम से चल रहे एक ग्रुप के परिप्रेक्ष्य में दिमाग में आते हैं. साथ ही याद आती है ओज और तेवर के कवि रामधारी सिंह दिनकर की ये पंक्तियाँ- “क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो, उसको क्या जो दंतहीन, विषरहित विनीत सरल हो.”
शायद महात्मा गाँधी को लेकर कई लोगों के मन में यही धारणा होगी, तभी तो कल के लड़के भी, जो ना महत्मा गाँधी को जानते-समझते हैं, ना सरदार भगत सिंह, नेताजी सुभाष बोस और सरदार पटेल को, न इस देश और समाज को, लेकिन परम विद्वत भाव से महात्मा गाँधी को इस देश की सभी गलतियों, कमियों, परेशानियों और बुराइओं के लिए जिम्मेदार करार करते हुए उन्हें वो-वो गालियाँ खुलेआम दे रहे हैं, जो उनके जीवन काल में उनके सबसे बड़े दुश्मनों और शत्रुओं ने भी शायद नहीं दिया हो. माँ की गाली, बहन की गाली, हिंदी और अंग्रेजी के चुनिन्दा गंदे शब्द, ओछी बातें और घटिया जुमलों का इस वीरता और स्वाभिमान के साथ प्रयोग किया गया है मानो ये लोग इस देश के श्रेष्ठतम इतिहासविद हों और इन्होंने अपने अध्ययन और चिंतन से हमारे देश के इतिहास का यह गहन, गूढ़ सत्य गहरे पानी पैठ कर निकाल लिया हो.
फिर तुर्रा यह कि कहाँ तक इस तरह के कृत्यों की भर्त्सना हो, इस तरह से सरेआम गाली देने को एक गलत कार्य माना जाए, हम लोगों में से कुछ ऐसे भी निकल कर सामने आये, जिन्होंने इस काम के लिए मुझे ही हड़काना, औकात दिखाना और भला-बुरा कहना शुरू कर दिया. इनमें से कुछ विद्वानों ने इन गन्दी और भद्दी गाली देने वालों को महिमामंडित करने का काम भी किया. उनकी निगाहों में ये लोग विकीलिक्स वाले असांजे बन गए जो सत्य को सामने ला रहे थे. फिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पुराना हथियार तो था ही.
अब मैं इन साहबों की बातों को आगे बढ़ाने के पहले इस समूह के लोगों की वीरगाथा एक बार फिर बताते हुए मेरे द्वारा इस सम्बन्ध में किये गए प्रयासों को उद्धृत करूँगा. मैंने यह बताया था कि फेसबुक का यह ‘आई हेट गाँधी” ग्रुप कई बातों के लिए महात्मा गाँधी को दोषी मानता है. यहाँ तक तो ठीक है, अपनी बात है, अपने विचार हैं पर गाँधीजी के प्रति दुर्भावना रखने और उनसे घृणा रखने के अलावा ये लोग उनके प्रति सीधे-सीधे गाली-गलौज की भाषा का प्रयोग कर रहे हैं. मैंने यह कहा था कि विचारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता स्वाभाविक तौर पर हर मानव का अधिकार है और अब तो यह स्पष्ट तौर पर हमारे संवैधानिक अधिकार के रूप में “मूलभूत अधिकार” का हिस्सा है. किन्तु साथ ही अनुच्छेद 19 (1) (क), जिसके अंतर्गत अभिव्यक्ति का अधिकार प्राप्त है, यह बंदिशें भी डालता है कि हम इन अधिकारों का बेजा तथा गलत प्रयोग नहीं करें. कारण यह कि यदि किसी भी अधिकार का असीमित ढंग से इस्तेमाल किया जाए तो वह दूसरे व्यक्तियों के अधिकारों का अतिक्रमण करने लगता है, उनकी भावनाओं को गहराई से ठेस पहुंचाता है और कई प्रकार से स्थिति के अनियंत्रित, विद्रूप और घृणित हो जाने का भय रहता है. इन सारी बातों के दृष्टिगत मैंने यह कहा था कि इस प्रकार सीधे-सीधे गाली-गलौज की भाषा का प्रयोग ना हो, ये लोग अपनी भावना व्यक्त करने हेतु माँ-बहन की गालियों, घटिया और ओछी बातों, अशिष्ट भाषा, हिंदी और अंग्रेजी के चुनिन्दा और गंदे शब्दों का प्रयोग ना करें. इसी के आधार पर मैंने यह कहा था कि यद्यपि इन लोगों के ये कृत्य स्पष्टतया आपराधिक कृत्य हैं, पर इन्हें पन्द्रह दिन का समय दिया जाए कि वे अपने इस कार्य के लिए शर्मिंदगी जाहिर करें. ऐसा नहीं होने पर मैंने नियमानुसार इन सभी लोगों और फेसबुक के खिलाफ विधिक कार्यवाही शुरू कराने की बात कही थी.
मेरे इस लेख के बाद मुझे दोनों प्रकार की प्रतिक्रियायें मिली हैं. कई लोगों ने इस कार्य की सराहना की है और इसे आवश्यक बताया है. इस कार्य में संभव मदद करने की बात भी कही है. इसके विपरीत कई लोगों मेरे इस काम से सहमत नहीं दिखे. असहमति जताने वाले लोगों को मैं दो रूप में देखता हूँ. एक तो वे हैं जिनका मानना है कि गांधीजी इतने बड़े आदमी थे जिन्हें इस प्रकार के शब्दों से कोई अंतर नहीं पड़ता- चाँद पर थूकने से आदमी का खुद का चेहरा ही गन्दा होता है. इन लोगों में कुछ ने कहा कि इस मामले में कोई भी विधिक कार्यवाही गाँधी जी के मूल सिद्धांतों के ही खिलाफ होगा क्योंकि वे स्वयं क्षमा करने, प्रेम करने और किसी के प्रति नफरत का भाव नहीं रखने के पक्षधर थे.
जो दूसरा वर्ग है उन बिंदास जवानों, मानव अधिकार के सतत प्रहरियों का, लिबरल विचारधारा से आप्लावित उन शख्सियतों का जिनके लिए ये गाली गलौच, ये माँ-बहन, ये असभ्य भाषा, ये गंदे-भद्दे शब्द अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हैं. और यही वे लोग हैं जिनके प्रति मेरा यह लेख विशेषकर इंगित है.
मेरे साथियों, अभिव्यक्ति की स्वतंतत्रा बहुत अच्छी चीज़ है, बहुत जरूरी भी है, हमारी सभ्यता के विकास की आधारशिला भी है और इसकी निशानी भी. पर समाज में एक व्यक्ति अकेला नहीं रहता, अकेले नहीं चलता, अकेले नहीं बोलता, अकेले नहीं सोचता. हर व्यक्ति देखने में एक तरह का नहीं होता, एक तरह की भाषा नहीं बोलता, हर कोई एक जेंडर का नहीं होता, हर एक के चमड़े का रंग एक सा नहीं होता. हर कोई एक ही भगवान को नहीं पूजता, हर कोई पूजता भी नहीं और धर्मं भी उनके अलग-अलग किस्म के होते हैं. यानी समाज में भारी डायवर्सिटी (विभिन्नता) होती है और इनमे से हर समूह, हर विचार, हर सन्दर्भ की अपनी-अपनी मान्यताएं, रीतियाँ, रूढियां, कमजोरियां भी होती हैं. बहुधा ये समूह अपनी इन बातों को लेकर काफी संवेदनशील भी होते हैं. एक अंग्रेज को शायद एक सिख व्यक्ति के सर पर पगड़ी पहनने की बात कुछ अटपटी लगती हो, पर आप किसी भी सिख धर्म के अनुयायी से पूछें तो उसके लिए यह बहुत महत्व का प्रश्न होगा. वह इसके विषय में बाहरी लोगों द्वारा की गयी टिप्पणी को अपने मामलों में अनधिकृत हस्तक्षेप मानेगा. एक मुस्लिम धर्मावलंबी के सामने कोई मोहम्मद साहब को लेकर अपने ज्ञान-विज्ञान और तार्किकता का बखान करेगा तो वह शायद उसे उसी भाव से नहीं ले. मुझे याद है कुछ दिनों पहले विभूति नारायण जी द्वारा कथित तौर पर महिला लेखिकाओं के लिए किसी अपशब्द के प्रयोग होने पर कितना बवाल मचा था. जाति के नाम पर कतिपय जाति के लोगों को गालियाँ देना तो हमारे देश में बकायदा एक कड़े क़ानून के रूप में घोषित किया जा चुका है. आप भी मानते हैं कि पहले की तुलना में अब स्त्री और पुरुष से अलग थर्ड जेंडर के प्रति काफी संवेदनशीलता बढ़ी है. अमेरिका में ब्लैक वर्ण के लोग अपने वर्ण को लेकर इस्तेमाल किये जा रहे जोक और मजाक को कत्तई मजाक के रूप में नहीं लेते.
मैं इनमे से हर किसी की संवेदनाओं और भावनाओं के प्रति सम्मान रखता हूँ और उन्हें अपनी जगह सही मानता हूँ. कोई व्यक्ति या समूह किसी भी प्रकार की मान्यताएं या प्रतिबद्धताएं रखता हो, यह उसका अधिकार है. जी हाँ, आप यदि महात्मा गाँधी के प्रति सद्भाव नहीं रखते तो आपको इसका हक है. इसकी अभिव्यक्ति का भी आपको अधिकार है पर इस बात का कदापि अधिकार नहीं है कि आप उनके प्रति अशोभनीय भाषा का खुलेआम इस्तेमाल करें. यदि आप किसी धर्म के प्रति गन्दी भाषा का प्रयोग नहीं कर सकते, किसी जाति के प्रति गंदे शब्द नहीं बोल सकते, किसी दूसरे समूह को नहीं गरिया सकते, किसी नेता को उसके अनुयायियों की भावना के दृष्टिगत अपशब्द नहीं कह सकते, किसी को लिंग/वर्ण/विकलांगता/अन्य कमजोरियों के नाम पर भला-बुरा नहीं कह सकते, किसी जीवित व्यक्ति को गालियाँ नहीं दे सकते तो यह कहाँ का न्याय, कहाँ की रीति, कहाँ का नियम है कि आप महात्मा गाँधी के प्रति इस तरह के भद्दे और गंदे शब्दों का इस्तेमाल करें. शायद इसका कारण यही है ना कि आपको लगता है कि महात्मा गाँधी अहिंसा के पुजारी थे, उनके शिष्य और अनुचर भी ऐसे ही होंगे, इसीलिए क्या फर्क पड़ता है- मन भर गालियाँ दीजिए, कुछ ना कुछ समर्थक तो जुट ही जायेंगे- विचारधारा के आधार पर, राजनितिक स्थितियों के आधार पर, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर. क्या किसी व्यक्ति विशेष को चुनी हुई गालियाँ देना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है? यह मात्र कायरता है, ओछापन है, अवांछनीय है, गलत भी है, निंदनीय भी.
इसके आधार पर यदि कोई भला मानव मुझसे असहमत होते हुए मेरी निंदा करेगा, आलोचना करेगा, बुराई करेगा तो उसे हक भी है और मुझे स्वीकार्य भी. पर यदि वह शिष्टता और उचित-अनुचित की परिधि के परे जाएगा तो यह मेरा कर्तव्य है कि मैं ऐसे कृत्यों का समस्त न्यायोचित विधियों से विरोध करूँ. साथ ही मैं एक बार फिर कहूँगा कि महात्मा गाँधी के प्रति धारणा रखनी एक बात है, पर जो व्यक्ति हमारे राष्ट्रपिता हैं, जिनके प्रति देश-विदेश में कईयों के मन में असीम सम्मान है, जिनका लाखों-करोड़ों लोग आदर करते हैं और जिन पर पूर्णतया न्योछावर हैं, उनके प्रति सार्वजनिक तौर पर असंसदीय भाषा के प्रयोग को चुप-चाप सहन कर लेना किसी भी तरह से ना तो गांधीवाद है और ना ही गांधीगिरी. विधिक उपाय हैं और हमें उनका निश्चित तौर पर प्रयोग करना चाहिए.
लेखक अमिताभ ठाकुर आईपीएस अधिकारी हैं. लखनऊ में पदस्थ हैं. इन दिनों आईआईएम, लखनऊ में अध्ययनरत हैं
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