Saturday, 20 November 2010 09:06 रविशंकर मौर्य कहिन - मीडिया मंथन
एक विचारणीय मुद्दा है 'महिला सशक्तीकरण'। इस दुनिया की आधी आबादी महिलाओं की है। महिला मां होती है, बहन होती है, पत्नी होती है, दोस्त होती है, सारे रिश्ते महिलाओं के बिना संभव नहीं हैं, फिर भी आज समाज में महिलाओं की स्थिति बड़ी ख़राब है। आज के समाज में महिलाओं ने ये सिद्ध कर दिया है कि वो तमाम सारे कार्य जो पुरुष कर सकते हैं महिलाये भी कर सकती हैं और पुरुष से बेहतर कर सकती हैं। बात मैं पुरुष या नारी की योग्यता की नहीं कर रहा।बात मैं कर रहा हूं, महिलाओं के संबंध में समाज की और मीडिया के लोगों के नजरिये की। क्या समाज का चश्मा पहन कर मीडिया के लोग महिलाओं को देखते हैं? जब महिला सशक्तीकरण की बात हो और कुछ मीडिया के जिम्मेदार लोग यह कहते मिले, 'जो दिखता है वो बिकता है' तो स्थिति और आधिक नाजुक हो जाती है। या फिर मीडिया के कुछ लोग ये कहते मिलें, 'लोग जो देखना चाहते हैं, हम उन्हें वही दिखा रहे हैं', ऐसे में ये तो स्पष्ट है कि ऐसे लोग नारी के देह की बात कर रहे होते हैं। इनके इस सोच का स्तर इतना निम्न इसलिए होता है क्योकि ये समाज, व्यवस्था, बाजार, व पुरुषवाद के पीछे से इस बात को मंचों से सरे आम कह रहे हैं और इन्हें अपनी इस विकृत सोच पर जरा भी शर्म नहीं आती है।
पुरानी मान्यताएं टूटती हैं, नई सामाजिक मान्यताएं समाज में बनती भी रही हैं। ऐसे में मीडिया की नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि पग-पग पर समाज का उचित दिशा निर्देशन करे ना कि अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़े। मीडिया आज बाज़ारवाद के हत्थे चढ़ गयी है, सच्चाई यही है और इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन मीडिया के लोग फिर भी अपना पल्ला समाज से नहीं झाड़ सकते। मीडिया के लोगों को नैतिकता को ध्यान में रख कर समाज का ध्यान रखना है, क्यूंकि हमारी भूमिका से समाज प्रभावित होता है। एक रोज देश के एक प्रसिद्ध पत्रकार ने मुझसे कहा, "हम बनिए की नौकरी करते हैं, हम खबर बेचते हैं, अगर बिकने लायक खबर नहीं ला सकते तो बाहर कर दिए जायेंगे।" मन में बड़ा गुस्सा आया, ये व्यक्ति तो अपनी पत्रकारित की जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ रहा है किन्तु बिडम्बना यही है, अधिकांश लोग पत्रकारिता में आज केवल अपनी नौकरी बजा रहे होते हैं, सही है आज पत्रकार बनिए की नौकरी करते हैं, पर देश व समाज के प्रति उनकी अहम जिम्मेदारी होती है, जिससे वो इनकार नहीं कर सकते है। ऐसा नहीं कि नारी को समाज में स्थान दिलाने के कोई प्रयास नहीं हुए, लेकिन ये प्रयास कितने नाकाफी रहे हैं, ये समाज महिलाओं की स्थिति देखकर स्पष्ट हो जाती है।
जब मीडिया के लोग तमाम बहानों के पीछे अपनी जिम्मेदारी से इनकार कर दें, बनिए की नौकरी बता कर खुद बनियों जैसा कार्य करने लगें तो समाज को इन बनियों के हाथों बिकने से कौन रोक पाएगा? क्या इन लोगों को ये नहीं सोचना चाहिये कि इनके इस कृत्य से समाज कितना प्रभावित होता है, परिवार के लोग एक साथ बैठ कर परदे के माध्यम से परोसी जा रही फुहड़ता को कब तक झेल सकते हैं, बच्चो पर ये क्या प्रभाव डालते हैं? लेकिन बनिया तो केवल अपना लाभ देखता है, बनिए का नौकर क्यों सोचने लगा समाज के बारे में? समाचार-पत्रों या चैनलों की कमाई में विज्ञापनो का अहम रोल होता है। जिसमें नारी के देह का अनावश्यक प्रयोग अंग प्रदर्शन होता है। पूछे जाने पर कि ऐसा क्यूं होता है? ऐसा जरूरी है मीडिया के लोगों की रोजी-रोटी चलती है, लोग देखना चाहते है ....! और पता नहीं क्या क्या जबाब देते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि चैनल टीआरपी के लिए कुछ भी दिखा देते हैं।
लेखक रविशंकर मौर्य कोटा में पत्रकार
No comments:
Post a Comment