Thursday, January 6, 2011

मुन्ना बदनाम हुआ धन्नो तेरे लिए


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नीरवहम बदनाम भी हुए तो कुछ गम नहीं...चलो इस बहाने नाम तो हुआ। नामचीन होने के तमाम बहाने आजमाने के बाद दुनियाभर के आम आदमी ने सर्वसम्मति से नामचीन होने के लिए बदनाम होने के फार्मूले को ही सबसे सुविधापूर्ण और सम्मानजनक नुस्खा पाया है। इसमें सबसे बड़ा लाभ तो उसे ये होता है कि- वह इंसाफ की डगर पे बच्चो दिखाओ चल के- जैसी फालतू, लड़कपन की धमकीभरी चुनौतियों से तत्काल निजात पा लेता है। और ऐसे जुमलों की खिल्ली उड़ाते हुए पूछता है कि जब तमाम सुविधाजनक राजपथ और जनपथ हमारे चलने के लिए सरकार ने बनवाए हैं तो फिर हमें क्या जरूरत है इंसाफ के डगर पर चलने की। और वह भी उस इंसाफ की डगर पर जो कि जब से बनी है तभी से डगर-मगर है। अरे हमें चलना है या सड़क पर ब्रेक डांस करना है। हम दाएं जाएं तो इंसाफ की डगर बाएं जाए। क्या रखा है ऐसी कवायद में। पुराने जमाने में छुआछूत, सतीप्रथा, बालविवाह- जैसी तमाम कुरीतियां तो समाज में थी हीं मगर इससे भी आदमी की तृप्ति नहीं होती थी इसलिए ईमानदारी, सचरित्रता और इंसाफ पर चलने- जैसी कई डिजाइन की आत्म हत्यात्मक प्रथाएं उसने और चला रखी थीं। ये वो दौर था जब स्त्री के सती होने पर और आदमी के हरिश्चंद टाइप दुर्दांत उत्पीड़न करने के बाद ही यश का का टेटू उसके माथे पर गोदा जाता था।
शोहरत पाने का यह तरीका इतना दर्दनाक होता था कि इससे बचने के लिए लोगों को चांदसी दवाखाने में जाकर घोड़े की बालवाला पिछाड़ी मुहल्ले का आपरेशन कराना ज्यादा फायदे का सौदा लगता था। एक-आध बिस्मिल, आजाद या भगतसिंह की बात दीगर है। जो यश के लिए जिंदगी पर दांव खेल जाते थे। मगर ऐसे जांबाज सिरफिरे तो उंगलियों पर ही गिने जाते हैं कंप्यूटर या कैलकुलेटर से नहीं। मगर नाम कमाने की तमन्ना तो सभी रखते हैं। चाहे स्वतंत्रता सेनानी हों या उन्हें पकड़वाने वाले पुलिस के मुखबिर। तो तमाम सालों के शोध के बाद नाम कमाने का जो शार्टकट-फार्मूला सामने आया है जिसके तहत आदमी होता है, नामी वो है भाया- बदनामी। नाम से बदनाम में वजन भी कुछ ज्यादा है। और शो तो ज्यादा है ही। खैर साहब जबसे नाम कमाने के लिए बदनाम होने का फार्मूला हिट हुआ है तब से बदनाम होना गौरव की बात हो गई है। बदनामी अब नये समाज का नया स्टेटस सिंबल है। लोग बदनाम होने के लिए लालायित रहने लगे हैं। बड़े आदमियों ने तो बदनाम होने के लिए एक बजट तय कर रखा है। उत्साही नव धनाढ़्यों ने तो सलाहकार तक नियुक्त कर डाले हैं जो अपने आकाओं को बदनाम होने के रोज़ नए-नए फार्मूले सुझाते हैं। पहले सुझाते हैं फिर रिझाते हैं। अब हालत यह है कि बदनाम होने की कला में जो जितना अव्वल है वो उतना ही बड़ा स्टार है। सेलिब्रिटी है।
बदनाम होने की इस गला काट प्रतियोगिता में कहीं पीछे रहकर नाक न कट जाए इस भय से लोग बदनाम होकर अपनी नाक ऊंची करने लगे हैं। दुनिया की सुपरपावर कहे जानेवाला अमेरिका के एक राष्ट्रपति तो बदनाम होने की प्रतियोगिता में पराजित होने के भय से इतने डरे हुए थे कि कि उन्होंने होने की प्रतियोगिता में जीत पक्की करने के लिए मोनिका लेवेंस्की नामक एक अति सम्मानित समाजसेविका की गुप्तरंग सेवाएं तक ले डालीं। उससे प्रतिदिन, नियमपूर्वक हाईएस्ट क्वालिटी की रिक्वेस्ट की कि मैडम मेरा भविष्य आपके ही हाथों में है। उस भोली लड़की को प्रेसीडेंट का भविष्य लड्डू लगा सो उसने अपने नेशन के खातिर उसे अपने मुंह में रख लिया। उसे चर्च के फादर ने बताया था कि इंडिया में कोई हनुमान हुआ था उसने तो सूरज को ही मुंह में रख लिया था। लोग बताते हैं कि मोनिका मैडम रोमन हनुमानिस्ट थीं। उसने अपने नेशन के लिए बड़े गर्व के साथ अपनी लोक-लाज खोई और अमेरिका जैसे सुपर पावर देश के सम्मानित प्रेसीडेंट को बिन लादेन और सद्दाम हुसैन- जैसे टिटपुंजियों के आगे पराजित होने से बचा लिया। बदनामी के ग्लैमरस संसार में श्री क्लिंटन ने एक नया कीर्तिमान गढ़कर अमेरिका की शान को बरकरार रखा। राजनीति में गहरी पकड़ रखनेवाले इसे भी क्लिंटन-मोनिका-वाटरगेट कांड ही कहते हैं। अमेरिकन तो होते हीं हैं- जनम-जनम के वाटरगेटी।
क्लिंटन की आपार निगेटिव लोकप्रियता से हर्षद मेहता नामक हमारे देश के एक उभरते हुए प्रतिभावान सितारे को इतना हर्ष हुआ कि खुशी के मारे उसके प्राण पखेरू क्लिंटन को बधाई देने अमेरिका उड़ गए। और फिर वापस इंडिया तो क्या अपनी बाडी में भी नहीं लौटे। लोग कहते हैं कि उसके एनआऱआई प्राण अभी भी पीएमओ में चक्कर लगाते रहते हैं। यह जानने के लिए कि उनका सूटकेस कौन चबा गया। बदनाम होने के लिए बेचारे ने क्या-क्या जतन नहीं गहे और क्या-क्या सितम नहीं सहे। पर सब भाग्य की बाते हैं। अमेरिका की साजिश से इंडिया बदनामी का सुपर स्टार बनते-बनते रह गया। लेकिन मुद्दई लाख बुरा चाहे क्या होता है। वही होता है जो मंज़ूरे खुदा होता है। खुदा के करम से और साधु के धरम से कौन जीता है। राष्ट्रीय शोक और निराशा के घटाटोप अंधकार में डूबे देश को उबारने के लिए लाइफबेल्ट बांधे, हेल्पलाइन की तरह मेड इन झारखंड बाबा शिबू सोरैन अवतरित हुए। जब-जब देश में अधर्म की हानि होती है तो उसके उत्थान के लिए प्रभु कृपा से तब-तब भारतभूमि में बाबा प्रकट होते हैं। बाबा ने भ्रष्टाचार के आलोक से दीप्त-प्रदीप्त अपना विराट रूप दिखाकर संसद में रौनक ला दी। मीडिया और राजनीति के मुरझाए चेहरे हर्ष से खिल उठे। बदनामी के दंगल में एक बूढ़े ने लंगोट घुमाकर सभी सूरमाओं को चित कर दिया। हत्या और अपहरण बाबा के श्रृंगार हैं। बाबा विरोधियों की भस्मी ही अपनी देह पर लगाते हैं। उपवास तोड़ते हैं तो फलाहार मात्र सौ-दौ सौ करोड़ ही खाते हैं। आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करते। बाबा बड़े तपस्वी और अपरिग्रही है। झारखंड के एक लोकल बाबा ने देश की नाक ऊंची कर दी। कृतज्ञ राष्ट्र ने उनकी अमूल्य सेवा का ऋण उन्हें दुबारा सत्ता की कुर्सी पर बैठाकर चुकाया। बाबा के प्रति अपनी श्रद्धा का सरकारी खर्चे पर ज्ञापन-विज्ञापन किया। बाबा-जैसे महर्षियों का प्रचार ही सरकार का प्रचार है। ऐसे सात्विक कार्यों से ही लोकतंत्र मजबूत होता है। इस ही नैन लोकतंत्र के डोले और ऐव्स देखकर ही आम जनता के मुंह से वेरी-वेरी हाट- जैसे सात्विक मंत्रों का उच्चार और उद्धार होता है।
बदनामी के जिम में वर्जिश करके ही नेता स्मार्ट और सेक्सी होता है। इसकी बलिष्ठ और शक्‍ितवर्द्धक काया देखकर ही रूपसिंयां बौराई हुईं, हाय हैंडसम कहती हुईं 80 वर्ष के किशोर को छेड़ने राजभवन तक जा पहुंचती हैं। बदनामी का परफ्यूम होता ही इतना मादक है जो अच्छे-अच्छों को दीवाना बना देता है। तय मानिए कि अगर आज की डेट में कहीं कृष्ण भगवान होते तो वे अपने नियलेरस्‍ट और डियरेस्ट फ्रेंड अर्जुन को गीता का ज्ञान कुछ इस तर्ज पर ही देते कि –सुन-सुन-सुन हे अर्जुन इस बदनामी में बड़े-बड़े गुन, लाख लुखों की एक दवा है क्यूं ना अजमाए, काहे घबड़ाए...। और कृष्णजी से गुप्त ज्ञान प्राप्त कर अर्जुन का एनर्जी लेबल इतना बढ़ जाता कि वो अपना गांडीव उठाता और युद्ध क्षेत्र में जाकर युधिष्टिर को यह कहकर भगाता कि- अबे ओ जुआरी... तेरी मति गई थी मारी, तेरे कारण ही हमने द्रौपदी हारी। और इस एक ही डायलाग से वो शकुनी, दुशासन और दुर्योधन को बदनामी के महारत में पछाड़कर अर्जुन से अर्जुनसिंह हो जाते। मगर अर्जुन ऐसा नहीं कर पाए, इसलिए अर्जुनसिंह नहीं हो पाए।
बदनामी अर्जित करने की प्रचंड-प्रबल प्रतिभा तो जन्मजात होती है। इसके लिए किसी कृष्ण के कोचिंग की जरूरत थोड़े ही होती है। संजय दत्त, सलमान खान जन्मजात प्रतिभा हैं। बदनाम होने की इन्होंने किसी से कोई ट्रेनिंग ली हो इसका कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता है। जो भी किया शान से किया और अपने मौलिक ज्ञान से किया। अभी हाल ही में एक राजा हैं, जो बदनामी की सियासत के ताजदार बादशाह बनकर निकले हैं और रातोंतात सेलिब्रिटी हो गए। चैनल और अखबार इनकी मनोहारी छवि की एक झलक के लिए रात-दिन उछलकूद करके नहीं थके। राजा सचमुच का राजा निकला। कोई सुरेश कलमाड़ी नहीं। जो बदनाम होने के लिए कामनवेल्थ गेम का हाथ में आया सुनहरे मौके का भी उपयोग नहीं कर सके। स्येडियम में खड़े-खड़े हाथ हिलाना एक बात है और मैच में शील्ड जीतना दूसरी बात है। खेल वो है जो जितनी बारीकी से खेला जाए कि खेल भी हो जाए और खेल का पता भी न चले। बदनानी के कामनवेल्थ गेम का शिल्प भी बहुत बारीक होता है।
इसकी बारीकी को जितनी बारीकी से सुश्री राखी सावंत ने समझा है, उतना किसी और ने नहीं। रुसवाइयों का कार्पोरेट दफ्तर चलता है मैडम के दिमाग में। मैं मैडम की दुर्दांत प्रतिभा के आगे सरकारी हैंडपंप की तरह नतमस्तक हूं। कचकचायमान वाणी कि इतनी धनी, लगता है मानो वह व्यक्ति नहीं पूरा रेडियो एफएम हों। जो शुरू हुआ तो बैटरी के निष्प्राण होने पर ही रुकता है। बदनामी की प्रौद्यौगिकी की मेडम क्यूरी हैं- राखी सावंत। शोहरत के आकाश में बदनामी के सुनहरे पंखों से उड़ती एक सोनचिरैया। जो एक चुम्मे से अच्छे खासे मर्द को मिक्का बना दे। अब मीडिया की भी लार टपकी है बदनामी के मैच में उतरने की। नाइन सबके पैर धोती है मगर नाइन के पैर कौन धोए। मीडिया किसी को भी रुसवाइयों का सुपरस्टार बनाने की कुव्वत रखता है, मगर मीडियावालों को कौन ओब्लाइज करे। दुखी हैं बेचारे। दुबलाय गए हैं बेचारे। आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास ही सफलता की कुंजी है। इस फलसफे को मानकर अब मीडियावाले भी एक-दूसरे को बदनामी के सांचे में ढालकर सेलेब्रिटी-सेलिब्रिटी बनाने का खेल खेलने में लग गए हैं। अब उनके भी परम प्राइवेट प्रसंग निजीकरण के दौर में सार्वजनिक होने लगे हैं। मीडिया के मोहल्ले में एक नई बयार भी बहार लेकर आई है। पुराने और बासी चेहरों को देखकर सुपरोत्तम बोरियत को प्राप्त हो चुकी है। अब तमाशा दिखानेवाले खुद तमाशा बनने को स्वेच्छा से तैयार हैं। आखिर उनके भी तो दिल है। बदनामी के एनर्जीलेबल से वे भी लवरेज हैं। मीडिया कन्याएं भी रुसवाइयों के रेशमी रैंप पर कैटवाक करने को कसमसा रही हैं। वो भी तो गा-गाकर लोगों को बतानी चाहती हैं कि- मुन्नी बदनाम हुई जालिम मैं तेरे लिए।
अपुन के भेजे में भी जब से ये फंडा आया है कि सिलिब्रिटी बनने के लिए बदनामी ही शार्टकट है अपुन दिन-रात इसी उधेड़बुन में हैं कि बदनाम होने के लिए कौन-से पदार्थ का सेवन किया जाए, ताकि रातों-रात या दिनों-दिन अपुन भी सेलेब्रिटी हो जाएं। आखिर एक अदद नाजुक दिल अपने भी सीने में तालाब के मेढ़क की तरह फुदकता रहता है। अपुन की भी अंतिम इच्छा है कि टीवी पर आऊं, इठलाऊं और गाऊं..मैं शायर बदनाम। सुना है कि हर आदमी की सफलता में कोई (या कई) स्त्री का हाथ होता है। अपनु भी इंतजार में हैं कि किसी से अपनी भी केमिस्ट्री जमे और वो इमोशनल होकर अपुन की इज्जत पर हाथ डाल दे। और अपुन क्लिंटन नहीं तो कम-से-कम नारायणदत्त तिवारी ही बन के खल्लास हो जाए।

मैं बेचारा, महंगाई का मारा

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मैं हूं आम आदमी... सरकार का मारा...मेरी आवाज़ सुनो... दर्द का राज सुनो... फ़रियाद सुनो। मनमोहन सिंह जी, आप तो सुनो... कुछ जवाब दो। जी हां, मैं इसी मुल्क का बाशिंदा हूं, जहां मुकेश और अनिल अंबानी रहते हैं। पहले मुकेश ने तारों से बातें करने वाला दुनिया का सबसे महंगा घर ' एंटिला' 4500 करोड़ खर्च करके बनाया और अब अनिल बड़े भाई से बड़ा घर बनवा रहे हैं। मेरा नाम तो आपको पता नहीं है, हां, वो घर जब बनकर तैयार होगा, तो उसका नाम ज़रूर जानेंगे। और क्या पूछा आपने, मैं कहां रहता हूं? अरे साहब, छोटे-छोटे कमरों में, कहीं झुग्गियों में, तो कभी पाइप लाइन में...क्यों? क्योंकि मैं आम आदमी हूं। अनिल अंबानी का घर 150 मीटर ऊंचा होगा और मेरा...? सच कहूं—मैंने बड़े ख्वाब देखने छोड़ दिए हैं। घर का ख्वाब बड़े सपनों में ही शामिल है। सुना है, एचडीएफसी और आईसीआईसीआई बैंकों ने फिर से ब्याज दर बढ़ा दी है। एक ने 0.75 फीसदी का इजाफा किया, तो दूसरे बैंक ने 0.50 प्रतिशत दर बढ़ा दी। यही वज़ह है कि होम लोन महंगा हो गया है। अब जिन लोगों ने फ्लोटिंग रेट पर होम लोन लिया होगा, उनकी हालत पूछिए...। पसीना छूट रहा है। यही वज़ह है कि मैं अपना घर जैसी सोच को सपनों में भी नहीं आने देता।
घर की तो दूर, सुबह चाय पीने की सोचना भी भारी लगता है। आप तो जानते ही होंगे— मदर डेयरी का दूध फिर महंगा हो गया है। तैंतीस रुपए खर्च करके कौन दूध खरीदेगा चाय पीने के लिए? मेरी तो हिम्मत नहीं पड़ती। कहीं फिर से वही दिन तो नहीं लौटने वाले, जब मां आटे में पानी घोलकर रखेगी और कहेगी—बेटे, पी लो, दूध है। दूध उत्पादक कहते हैं—लागत बढ़ी है। पशुपालकों का शिकवा है—खर्चे बढ़े हैं। हम क्या कहें, किससे कहें, कोई हमें बता दे।
कल की ही बात  है, बच्चे ज़िद कर रहे थे कि गाड़ी से चलेंगे। वो भी यहां-वहां नहीं, डायरेक्ट शिमला। अब इन्हें कौन समझाए—टैक्सियों में सफर करना इतना महंगा हो चुका है कि साल भर की बचत कर लो, तो अपनी गाड़ी, कम से कम नैनो का तो ख्वाब देख ही सकते हैं।
पेट्रोल के दाम तीन रुपए बढ़े, ऐसे में टैक्सी यूनियनें भी किराया बढ़ाने की मांग कर रही हैं। उन्हें ही गैरवाज़िब कैसे ठहराएं? सोल्यूशन क्या है—जो मिले खाएं और मुंह ढककर सो जाएं। किसी शायर ने भी तो कहा है—आराम बड़ी चीज है, मुंह ढक के सोइए।
वैसे, कार भी कुछ दिन में ख्वाबों में शामिल करने वाली चीज ही होने वाली है। नैनो ने भले थोड़ी राहत दी थी, लेकिन नई खबर पता है आपको? वो यह है—मारुति सुजुकी इंडिया और हुंडई कारों के दाम बढ़ा रही हैं। बोले तो, बैलगाड़ी ज़िंदाबाद।
दिल्ली की बसों में जेब कट जाती है, तो पंजाब  में बस से चलने की सोच ही नहीं सकते। हाल में ही सुखबीर साहब की सरकार ने पंजाबी जूती से वैट घटा दिया है और बसों का किराया महंगा कर दिया है, यानी 10 पैसे प्रति किलोमीटर के हिसाब से।
खैर, मैं एक कन्फेशन कर लूं। भटक गया था, कॉमन मैन हूं ना। गाड़ियों, बसों की बात करने लगा था। यहां तो दिक्कत दो जून रोटी की है ज़नाब। खबर आई है कि एलपीजी भी सौ रुपए तक महंगी हो सकती है। तेल मंत्रालय के आकाओं से गुहार लगानी पड़ेगी। उनके आंकड़े भी अजब-गजब हैं। पूर्वी एशिया में एलपीजी का सबसे ज्यादा इस्तेमाल हम ही करते हैं और इसके लिए हर साल 30 लाख टन कुकिंग गैस आयात की जाती है।
सो... हम आंकड़े नहीं समझते मंत्रीजी। रहम करें, ताकि अगस्त के बाद से कुकिंग गैस की कीमतों में हर सिलिंडर पर पचास से सौ रुपए का इजाफा ना हो। माना कि एक साल में अंतरराष्ट्रीय कीमतों में दो तिहाई की तेजी आ चुकी है। अमीर मुल्क तो झेल लेंगे साहब, हमारा क्या होगा। सुन रहे हैं ना मनमोहन जी?
बहुत डर लगता है ये सुनकर भी कि 2011 में वैश्विक खाद्य संकट हो सकता है। एफएओ ने चेतावनी दी है कि 2011 में दुनिया वैश्विक खाद्य संकट से जूझ रही होगी। हमारी भूख का हल क्या होगा पीएम साहब?
भूखे पेट बच्चे भी भला कैसे स्कूल जाएंगे, उस पर भी पता चला है कि स्कूलों की फ़ीस बढ़ने वाली है! प्राइवेट स्कूल बसों की फीस में इजाफा हो रहा है। एमपी के निजी स्कूल दस से पंद्रह फीसदी तक फीस बढ़ाने वाले हैं। विडंबना भी जान लीजिए, फीस बढ़ाने वालों में ज्यादातर सीबीएसई से एफिलेटेड हैं। और एमपी ही क्यों, दिल्ली में भी ऐसा होने वाला है... पर स्कूल वाले इसे मज़बूरी में लिया गया फ़ैसला बता रहे हैं। वो कहते हैं—तीन साल में डीजल 43 रुपए प्रति लीटर तक बढ़ चुका है। स्कूल बसों का खर्च भी तो बढ़ रहा है, ऐसे में इसकी पूर्ति कैसे की जाएगी? सच कह रहे हैं प्रिंसिपल साहब, पर आम आदमी क्या करे? आप ही कुछ सुझाइए पीएम साहब।
हम लोग कौन  हैं...छोटी-मोटी फैक्टरियों में काम करते हैं, दफ्तरों में वर्कर हैं या फिर दुकानें चलाते हैं। कहां से लाएं पैसे, कैसे करें महंगाई का मुकाबला?
खबरें खूब हैं, सब की सब डराती हैं। एक खबर ये भी है कि रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति सख्त हो सकती है। ऐसा हुआ, तब तो छोटे और मझोले उद्योगों की हालत और खस्ता हो जाएगी। विदेश से सप्लाई के लिए मांग कम हो गई थी। अब वो सुधरी है, तो डॉलर कमज़ोर हो रहा है। एक तो नीम, दूसरे करैला चढ़ा। बैंक भी ब्याज दरें बढ़ा रहे हैं। कर्ज महंगा हो जाएगा, बाजार में रकम कम हो रही है, ऐसे में छोटे-मोटे उद्योग क्या करेंगे?
पंजाब नेशनल बैंक पहले नए ग्राहकों के लिए अपनी आधार दर आधा फीसदी बढ़ाकर नौ फीसदी कर चुका है। उसके ज़रिए मिलने वाले सभी कर्ज महंगे हो गए हैं। पेट्रोल भी लगातार महंगा होता जा रहा है।
केंद्र सरकार पेट्रोल की कीमतों से नियंत्रण हटा चुकी है। कारोबारी मनमानी कर रहे हैं। कीमतें लगातार बढ़ रही हैं। पिछले साल जून में नियंत्रण हटाया गया था। तब से पेट्रोल 17-18 फीसदी महंगा हो चुका है। तेल कंपनियां कच्चे तेल की कीमतों और उत्पादक लागत को आधार बनाकर इसकी कीमत तय करने के लिए आज़ाद हो गई हैं। ऐसे में लगातार कीमतें बढ़ती जाएंगी। सुन रहे हैं मंत्री जी? क्या इसीलिए, आपने नियंत्रण हटाया था, ताकि मनमानापन शुरू हो जाए?
माना कि पेट्रोल के कारोबारी घाटे को कम करने के लिए ऐसा कर रहे हैं, लेकिन आप तो पेट्रोल पर लगाए जाने वाले टैक्स में कमी ला सकते हैं। सुना है, डीजल भी महंगा करने की तैयारी हो रही है। खैर, पेट्रोल की बात ही क्या करें। जयपुर में तो कर्नाटक मॉडल पर पानी के रेट बढ़ाने की तैयारी हो रही है।
तो... सब्जियां महंगी, दूध महंगा, टमाटर महंगा, प्याज महंगा, लहसुन महंगा, अब इस महंगाई की मार से घर का, ज़िंदगी का कौन-सा कोना अछूता बचा है? सरकार को कोई सुध नहीं है। आम आदमी चाहे हड़ताल करे या आंदोलन। मैं बेचारा सचमुच हूं... सरकार का मारा। 
और महंगे हो सकते हैं
* पेट्रोल-डीजल, दूध, बिजली, परिवहन, सब्जियां, दालें।
* डीजल की कीमतों में दो रुपए प्रति लीटर की वृद्धि का प्रस्ताव विचाराधीन।
लेखक चंडीदत्‍त शुक्‍ल स्‍वाभिमान टाइम्‍स के समाचार संपादक हैं

प्रधानमंत्री की घास छील खेती

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शारदेयकुछ बातें बेमतलब 21 : लोकतंत्र में जनता जनार्दन जी को पटाने के लिए क्या-क्या नहीं होता। कोई एक नाम भी तो नहीं है इनका। आध्यात्मिक विचारवान के लिए यह जनता जनार्दन जी हैं तो भौतिकपन वालों के लिए आम आदमी। अदालत में जनहित याचिका हैं। अखबार में बाबूजीनुमा कार्टून हैं। यह कभी गलत नहीं होते। यह और बात है कि यह गलतियों के भंडार हैं। इन्हें कभी कोई दोष नहीं देता। यह भी दोषियों को अपना समर्थन देते हैं। इनकी गरीबी के बल पर लोग अमीर हो जाते हैं। अपनी गरीबी मिटाने के लिए यह तुरंत बिक भी जाते हैं। सब कुछ इनके नाम पर होता है। इनके पास कुछ नहीं होता। यह जब आम होते हैं तो आम के आम और गुठली के दाम होते हैं। जब यह गुठली के दाम होते हैं तो सभ्य लोगों की जबान में कंज्यूमर कहलाते हैं। संस्कृत में अनुवाद हो कर उपभोक्ता हो जाते हैं। इनमें से काफी लोग भूखे रहते हैं, पर खूब खाने वाले इन्हें पेटू भी कहते हैं।
कभी इन्हें ग्राहक माना जाता था। जब से गांधी जी ने कह दिया कि ग्राहक कभी गलत नहीं होता, तब से इन्हें कोई ग्राहक मानने के लिए तैयार नहीं है। सिर्फ सरकार इन्हें जगाने के लिए बहुत सारे नारों में से एक और नारा देती है, ‘जागो ग्राहक जागो!’ पर यह कुंभकर्ण की नींद में सोते रहते हैं। इनकी नींद तभी टूटती है जब कोई प्याज इनके आंसू निकालता है। प्याज का जीव धर्म ही आंसू निकालना होता है। यह कभी कभी भ्रष्टाचार भी हो जाते हैं। तब यह प्रधानमंत्री का आंसू निकालते हैं। प्रधानमंत्री के पास बहुत सारे घड़ियाल होते हैं। जिसे हम प्रधानमंत्री का आंसू समझते हैं, वह घड़ियाल का आंसू होता है। जैसे हमारे प्रधानमंत्री का घड़ियाली आंसू बहा कि वह संसद की लोकलेखा समिति में जा कर अपना आंसू पोंछ सकते हैं। पर दिक्कत यह है कि अभी तक किसी प्रधानमंत्री को लोकलेखा समिति में बुलाया ही नहीं गया है। हिसाब किताब की जांच करने वाली समिति है। प्रधानमंत्री को लगा कि वहां हाजिर हो कर अपना हिसाब किताब साफ कर लेंगे।
प्रधानमंत्री को प्याज ने बहुत बड़िया मौका दिया है। हवाई तरंगों की बेईमानी से बाहर निकलने का यही सही मौका है। अब किसान के दुख दर्द की बात करें। उन्हें तो कोई किसान मानता नहीं। पर क्या जाता है। असम से राज्य सभा सदस्य हो सकते हैं तो सियाचीन से किसान भी हो सकते हैं। वैसे भी 10 जनपथ में घास छीलने का बहुत काम किया है हमारे प्रधानमंत्री ने। दरअसल हमारे प्रधानमंत्री ने सिर्फ 10 जनपथ पर ही नहीं, विश्व बैंक में भी काफी बागवानी की है। वहीं की पेंशन खाते हैं। इंडिया के भी गुण गाते हैं। उनके राजपाट में लोग विदेश से बहुत आते हैं। ज्यादा सामान बेच कर, कम सामान खरीद कर चले जाते हैं। हमारे ऐसे मनमोहक प्रधानमंत्री से लोग इस्तीफा मांगते हैं। आपने पद दिया कि आप इस्तीफा मांगते हो। जिसने दिया, वह तो प्रमाण पत्र देती है। हे इंडियावासी, पहला ढेला मुझ पर वह चलाए जिसने कभी कोई पाप नहीं किया हो – है कोई!
जुगनू शारदेय हिंदी के जाने-माने पत्रकार हैं. 'जन', 'दिनमान' और 'धर्मयुग' से शुरू कर वे कई पत्र-पत्रिकाओं के संपादन/प्रकाशन से जुड़े रहे. 

प्याज की परत

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शारदेयकुछ बातें बेमतलब 20 : नहीं लगता आपको कि देश का असली वाला शासन प्याज की परत की तरह है। असली वाला शासन केंद्र वाला होता है। राज्य वालों का शासन तो मुंबई महानगर पालिका से भी चिरकुट होता है। समझिए कि राज्यों का शासन प्याज की वह परत होता है जो खाई नहीं जाती, दिखाई जाती है। राज्य को कभी पता नहीं होता कि फसल खराब हो गई है। दरअसल, राज्य को पता भी होता है तो वह इंतजार करता है कि केंद्र सरकार कोई कार्रवाई करेगी। केंद्र सरकार इंतजार करती है कि प्याज की कीमत बढ़ती रहे। प्याज का निर्यात होता रहे। हमारा देश तो शाकाहारियों का देश है प्याज – लहसुन नहीं खाएंगे तो क्या फर्क पड़ता है।
तो असली वाला केंद्रीय शासन बड़ा लोकतांत्रिक है। इसका एक मंत्री हवा की तरंग बेच कर पौने दो लाख करोड़ का घाटा कर देता है। हम मंत्री के भ्रष्टाचार के पीछे पड़ जाते हैं। प्याज की परत की तरह एक के बाद एक टेप बजता जाता है। धीरे-धीरे पता चलता है कि हवा की तरंग ही नहीं पूरे देश को बेचने की तैयारी चलती रहती है। वैसे यह एक सेमिनार का विषय है कि देश बिका हुआ है या नहीं। कितने खरीदार देश में लगातार आ रहे हैं। चलो भारत तो बेचारा है। बिलो प्रावर्टी लाइन का मारा है। इसका कोई खरीदार नहीं है। इंडिया को ही खरीदना होता है, इसी को बेचना होता है। सरकार की जिम्मेदारी भी नहीं है भारत की।
भारत की जिम्मेदारी का निर्वहन राज्य करते हैं। प्याज की कीमतों पर नियंत्रण केंद्र के कृषि मंत्रालय की होती है। कृषि मंत्रालय मानता है कि जब पेट्रोल की कीमत बढ़ सकती है तो प्याज की कीमत क्यों नहीं बढ़ सकती है। वाहन चलाने के लिए पेट्रोल चाहिए तो तरकारी बनाने के लिए प्याज चाहिए। अगर पेट्रोल का हम आयात करते हैं तो प्याज का निर्यात भी करते हैं। हमारा निर्यात सिर्फ कारोबार नहीं होता। यह तो वसुधैव कुटुंम्बकम होता है। इधर हमने प्याज के निर्यात पर रोक लगा दी, उधर प्याज के नीरा राडियाओं ने प्याज की कीमत बढ़ा दी। अब जा कर प्याज की कीमत सम्मानजनक हुई है। वरना पहले, कह दिया कि प्याज रोटी खाया है – यूपीए 2 का गुण गाया है।
कृषि मंत्री, माने या ना माने, हैं वह सचमुच में ऋषि। देश के इकलौते राष्ट्र महाराष्ट्र को संत मुनि की दृष्टि से देखते हैं। महाराष्ट्र में प्याज भी होता है। आँध्र में भी प्याज होता है। वहां प्याज के साथ राजनीति भी होती है। सच पूछिए तो अपने देश में राजनीति कहां नहीं होती। राजनीति क्या है। प्याज की परत है। खोलते जाओ, रोते जाओ। जब आंसू सूख जाते हैं तो प्रधानमंत्री को याद आता है कि प्याज की कीमत बढ़ गई है। उन्हें अपना बचपन याद आता है, जब प्याज रोटी खा कर इकॉनॉमी सिख रहे थे। कृषि मंत्री ज्योतिषि नहीं होता कि बता सके कि प्याज की कीमतें कब कम होंगी। प्याज कोई भ्रष्टाचार नहीं कि कहा जा सके कि कम कर के रहेंगे। पर प्रधानमंत्री को भ्रष्टाचार से जूझते-जूझते यह समझ हो जाती है कि तीन महीने में प्याज की कीमतें कम हो जाएंगी। यह फर्क है प्रधानमंत्री और कृषि मंत्री में। एक ज्योतिषि नहीं होना चाहता, दूसरा ज्योतिषि हो जाता है। प्याज सिर्फ महंगा हो जाता है क्योंकि उसकी एक परत में जमाखोरी भी होता है ।
जुगनू शारदेय हिंदी के जाने-माने पत्रकार हैं. 'जन', '

भ्रष्टाचार का अचार

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जुगनूकुछ बातें बेमतलब 16 : यह एक बहुत बढ़िया विचार है। इस विचार में सब कुछ है सदाचार भी और कदाचार भी। जैसे राजपाट में वापसी के बाद मुख्यमंत्री ने तय किया कि भ्रष्टाचार का अचार बनाया जाए। अचार और खिचड़ी का बड़ा मधुर संबंध होता है। इसी मधुर संबंध पर तो कहावत है कि खिचड़ी के चार यार – दही, पापड़, घी और अचार। अब न बड़े-बड़े भ्रष्टाचार होने लगे हैं। पुराना भ्रष्टाचार तो जन वितरण प्रणाली ही हुआ करता था। किसी जमाने में इसका भी एक कार्ड होता था – राशन कार्ड। इस राशन कार्ड के बिना जीवन अधूरा-अधूरा सा लगता था। इस कार्ड पर सब कुछ मिलता था। सिर्फ वह नहीं मिलता था जो देने का वादा यह कार्ड करता था। अब कार्ड भी आसानी से नहीं मिलता। यह युद्ध क्षेत्र भी हो गया है क्योंकि यह आंकड़ा हो गया है। इस युद्ध क्षेत्र का सबसे बड़ा हथियार आंकड़ा होता है। यह शोध का विषय है कि आंकड़ा सदाचार है या कदाचार या भ्रष्टाचार। आपको तो पता है कि राजपाट ही नहीं, सरकार भी आंकड़े से ही चलती है। बिहार की सरकार भी आंकड़े से चलती है और भारत सरकार भी आंकड़े से चलती है। कभी-कभी भारत सरकार आंकड़े से नहीं चलती है। यह भी कह सकते हैं कि जैसे संसद नहीं चलती है, वैसे ही भारत सरकार भी नहीं चलती है। अभी बिहार सरकार और भारत सरकार में बड़ा भारी आंकड़ा युद्ध चल रहा है। इसमें से एक असत्यवादी है। ऐसा बहुत कम होता है कि सरकार दो हों और असत्यवादी एक हो। सरकार हमेशा असत्य का निर्वहन करती है। उसके पास आंकड़ों का सत्य होता है। यहां भी है। यह बड़ा ही गंभीर विषय है। इसकी गंभीरता के सामने राडिया टेपवाणी कुछ भी नहीं है।
तो मुद्दा यह है – हालांकि मुद्दे इतने हैं कि किस मुद्दे को मुद्दा माना जाए, इस पर भी संसद के समान कीबोर्ड चलने से इनकार कर देता है। पर यह एक गंभीर मुद्दा है। इस मुद्दे से गरीब जुड़े हैं। सच पूछिए तो गरीब ही नहीं एक पूरी प्रणाली जुड़ी है। इसे जन वितरण प्रणाली कहते हैं। यूं भी कह सकते हैं कि इसमें जन न के बराबर होता है। जब जन नहीं होगा तो वितरण कहां से होगा और जब वितरण ही नहीं होगा तो प्रणाली क्यों होगी। पर है जन वितरण प्रणाली। इस प्रणाली से रिश्ता जुड़ गया है गरीब का। इस गरीब के साथ एक अच्छी बात होती है कि यह जाति – धर्म – पार्टी से ऊपर होता है और भ्रष्टाचार से नीचे होता है।
तो सवाल यह है कि बिहार में किसने केंद्र सरकार को यह आंकड़ा दिया कि बिहार में केवल 65 लाख परिवार ही गरीब हैं। क्या गरीब पैदा करने का केंद्र सरकार का अपना आकंड़ा तंत्र है। जो भारत सरकार बिहार में 65 लाख गरीब ही मानती है। बिहार सरकार का बस चले तो वह बिहार में किसी को गरीब न माने। यह तो माने कि जो स्कारपियो वाले हैं, वह अमीर हैं और जिनके पास स्कारपियो नहीं है, वह गरीब है। बहरहाल बिहार सरकार मानती है कि बिहार में डेढ़ करोड़ परिवार गरीब हैं। 85 लाख परिवार का फासला है। इनका ही भ्रष्टाचार का अचार बनाया जा रहा है। आदतन मुख्यमंत्री सबको खाद्यान्न उपलब्ध कराने की योजना बना रहे हैं। योजना का मतलब तो पांच साल होता है। मुख्यमंत्री को एक सप्ताह के अंदर योजना चाहिए। अगले पांच साल तक उसका अचार बनाया जाएगा। सीएजी इस पर टिपण्णी कर सकता है कि बिहार में बनाया गया भ्रष्टाचार का अचार।
जुगनू शारदेय 
देशों की विदेश यात्राएं. भारत के राष्ट्रपति से सम्मानित. आजकल स्वतंत्र लेखन और यायावरी. उनसे संपर्क सुरेश नीरव, आई-204, गोविंद पुरम, गाजियाबाद या मोबाइल नंबर 09810243966 .

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