एक क्रांतिकारी का बयान, मैं जासूस नहीं
मोहम्मद अली खान
First Published:20-08-10 02:01 PM
Last Updated:20-08-10 02:05 PM
भारत की आजादी के लिए ऐसे लाखों लोगों ने अपना सब कुछ बलिदान कर दिया। ऐसे ही लोगों में एक थे मुहम्मद अली खान। अवध के एक प्रतिष्ठित खानदान में पैदा हुए मुहम्मद अली खान ने संभवत: 1830-40 के बीच रुड़की के इंजीनियरिंग कॉलेज में शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने कुछ दिन सरकारी नौकरी की लेकिन अंग्रेज अधिकारियों के दुर्व्यवहार की वजह से नौकरी छोड़ दी। उन्होंने 1857 के स्वतंत्रता युद्ध में हिस्सा लिया और दिल्ली के मोर्चे पर चीफ इंजीनियर की हैसियत से हिस्सा लिया। दिल्ली के पतन के बाद वे लखनऊ गए और वहाँ बेगम हजरत महल के साथ लखनऊ के बचाव में शामिल हो गए। वे एक ‘प्लम केक’ बेचने वाले का रूप लेकर अंग्रेजी छावनी में टोह लेने जाते थे, एक दिन उनके एक साथी ने गद्दारी करके उन्हें पकड़वा दिया। यह हुक्म दिया गया कि अगली सुबह उन्हें मृत्युदंड दिया जाए। जिस अंग्रेज अधिकारी सार्जेट विलियम फोर्ब्स-मिशेल को उन्हें सौंपा गया था वे मुहम्मद अली खान के प्रति सहानुभूति रखते थे और उन्होंने उनके साथ निहायत सभ्य व्यवहार किया। मृत्युदंड के पहले रात में मुहम्मद अली खान ने अपने बारे में जो फोर्ब्स-मिशेल को बताया, वह उन्होंने अपनी किताब ‘रेमिनिसेंसेज ऑफ द ग्रेट म्यूटिनी 1857-1859’ में दर्ज किया जो 1893 में लंदन से प्रकाशित हुई। मुहम्मद अली खान की आपबीती का जो अंश हम यहां श्रद्धापूर्वक प्रकाशित कर रहे हैं, वह हमने मुहम्मद अली खान: एक आत्मकथन : के.सी. यादव, हिंदी अनुवाद-गजेन्द्र राठी, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नई दिल्ली-70, से साभार लिया है।
(I)
आपने मुझे पूछा है कि मैं आपको अपनी ज़िंदगी के बारे में कुछ बताऊं। दरअसल यह बात वाक़ई सही है कि मैं एक जासूस हूं। अगर इस शब्द का सीधा अर्थ (मतलब) निकाला जाए कि मैं एक जासूस हूं, तो इस इल्ज़ाम से मैं साफ़ इंकार करता हूं। मैं कोई जासूस नहीं हूं, बल्कि बेग़म की फ़ौज का एक अफ़सर हूं और मैं लखनऊ से यहां इस बात की पुख़्ता जानकारी हासिल करने आया हूं कि फ़ौज की तादाद कितनी है, और हमारे खिलाफ़ युद्ध करने के लिए कितने तोपख़ाने और वाहन जुटाए गए हैं।
मैं लखनऊ की फ़ौज का चीफ इंजीनियर हूं और दुश्मन के इलाके की टोह लेने की मुहिम पर आया हूं, लेकिन अल्लाह को शायद यह मंजूर नहीं था। आज शाम मेरी योजना लखनऊ लौटने की थी। अगर क़िस्मत ने मेरा साथ दिया होता, तो मैं कल सूरज निकलने से पहले वहां पहुंच चुका होता, क्योंकि जो जानकारियां मुझे चाहिए थीं मैंने वे सभी हासिल कर ली थीं। लेकिन मैं लखनऊ जाने वाली सड़क से होकर एक बार और उन्नाव जाना चाहता था, क्योंकि मैं यह देखने के लिए बहुत बेताव था कि लाव-लश्कर से भरी रेलगाड़ियां और गोलाबारूद दस्ते चलने की तैयारी कर चुके हैं या नहीं। इसे मेरा दुर्भाग्य ही कहिए कि मेरी मुलाक़ात एक नापाक मां के उस नालायक बेटे से हो गई, जिसने मुझे जासूस करार दिलवा दिया है। वह जघन्य काम करने वाला एक नीच आदमी है, जिसने फांसी के फंदे से अपनी गर्दन बचाने के लिए ख़ुद को अंग्रेज़ों के हाथों बेच दिया। अब वह अपने हमवतन और सहधर्मियों को ज़िंदगियों का सौदा करके अपनी नीचता से ध्यान हटाना चाहता है। लेकिन अल्लाह गवाह है, वह ज़रूर इसे ग़द्दारी के बदले जहन्नुम की आग में भेजेगा।
आपने मुझसे पूछा कि मेरा नाम क्या है, और आप मेरे दुर्भाग्य की दास्तां स्कॉटलैंड में अपने दोस्तों को लिखकर भेजना चाहते हैं। ख़ैर, मुझे कोई एतराज़ नहीं है। इंग्लैंड के लोग इंग्लैंड से मेरा मतलब स्कॉटलैंड के लोग भी जो अच्छे हैं, वे अल्लाह के इस ख़ादिम के दुर्भाग्य के बारे में सोचेंगे। मैं लंदन और एडिनवर्ग दो बार जा चुका हूं, इसलिए दोनों जगहों पर मेरे काफ़ी दोस्त बन गए हैं।
मेरा नाम मुहम्मद अली ख़ान है। मैं रोहिलखंड के एक प्रतिष्ठित ख़ानदान से ताल्लुक रखता हूं। मैंने बरेली कॉलेज से पढ़ाई की और अंग्रेजी के सभी विषयों में अव्वल रहा। बरेली से मैं रुड़की स्थित, गवर्नमेंट इंजीनियरिंग कॉलेज में चला गया, और कंपनी की नौकरी के लिए इंजीनियरिंग की पढ़ाई की। मैंने यूरोप के सिविल और मिलिट्री दोनों के सभी छात्रों से काफ़ी ज़्यादा अंक हासिल किए और अपने साल के सबसे अव्वल छात्र के रूप में पास हुआ।
(II)
लेकिन नतीजा क्या निकला? मुझे बतौर कंपनी इंजीनियर ‘जमादार’ का ओहदा दे दिया गया, और एक देशीय कमिशंड ऑफ़िसर के रूप में एक कंपनी के साथ काम करने के लिए पहाड़ों पर अलग-थलग ड्यूटी करने के लिए भेज दिया गया। लेकिन मुझे वहां पर एक यूरोपियन सार्जेट के सहायक के तौर पर भेजा गया था, जो मुझसे हर तरह से कमतर थे सिर्फ क्रूरता को छोड़कर, एक ऐसा शख़्स जो सिर्फ़ थोड़ा-बहुत पढ़ा-लिखा था या बिल्कुल अनपढ़ था, और वह इंग्लैंड में कभी भी बढ़ईगिरी के पद से ऊपर आगे नहीं गया होगा। प्रशासन के बहुत से अनपढ़ लोगों की तरह, उसने यूरोपवासियों की सभी कमज़ोरियों का प्रदर्शन किया-अहंकार, बदतमीज़ी और मतलबी स्वभाव। जिनकी वजह से हमें बहुत गुस्सा आता था और खीज भी होती थी। जब तक आप मेरे देशवासियों की भाषा नहीं सीखते और इस देश के पढ़े-लिखे अच्छे लोगों से मेलजोल नहीं करते, तब तक आप ऐसे आदमी के द्वारा की गई ग़लतियों को पूरी तरह से नहीं समझ पाएंगे, जिससे आप देश के स्वाभिमान को ठेस पहुंचती है। ऐसी एक ही मिसाल यह साबित करने के लिए काफ़ी है कि आपके सबसे घटिया स्तर के दुश्मन ही आपकी राष्ट्रीय भावना और अभियान के बारे में ऐसा कह सकते हैं, और लोगों को सोचने पर मजबूर करते हैं कि आपकी उदारता और सहानुभूति सिर्फ़ ढोंग है।
मैंने कंपनी की नौकरी पैसा कमाने की तमन्ना से नहीं की थी, बल्कि एक सम्मानजनित नौकरी की उम्मीद से की थी। इसके बावजूद नौकरी की शुरुआत में ही मुझे ज़िल्लत और बेइज्ज़ती के अलावा कुछ भी हासिल नहीं हुआ। मैं एक ऐसे आदमी के नीचे काम कर रहा था जिससे मुझे नफ़रत थी, शायद नफ़रत से भी ज़्यादा मुझे उससे घृणा थी। मैंने अपने अब्बा हुजूर को ख़त लिखा और इल्तिज़ा की कि अगर आप इजाज़त दें तो मैं नौकरी से इस्तीफ़ा देना चाहता हूं, और वे मेरी बात से राज़ी हो गए कि मैं नवाबो (राजकुमारों) का वंशज, उन हालात में कंपनी की नौकरी नहीं कर सकता।
मैंने नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया, और इस मंशा से घर वापस चला गया कि अब मैं अवध के बादशाह, स्वर्गीय महाराज नसीर-उद-दीन के लिए अपनी सेवाएं अर्पित करूंगा। लेकिन जैसे ही मैं लखनऊ पहुंचा तो मुझे ख़बर मिली कि नेपाल के महाराजा जंग बहादुर जो इस समय गोरखाओं की एक फ़ौज के साथ गोरखपुर में हैं, और वे लखनऊ की लूट में मदद करने के लिए आ रहे हैं। वे इंग्लैंड के दौरे पर जाने वाले हैं, इसलिए उन्हें अंग्रेजी भाषा में माहिर एक सचिव की ज़रूरत है। मैंने फौरन उस पद के लिए अर्ज़ी भेज दी। स्वदेशी राजाओं और अंग्रेज़ी अफ़सरों की सिफारिश होने के कारण मुझे चुन लिया गया। महाराजा के
अनुचर सहायक के रूप में, मैं पहली बार इंग्लैंड गया, तब दूसरी जगहों पर जाने के साथ-साथ हम इडिनबर्ग भी गए, जहां आपकी रेजिमेंट 93वीं हाइलैंडर्स ने महाराजा के सम्मान में ‘‘गार्ड ऑफ ऑनर’’ दिया। जब मैंने पहली बार एक ऊंचे घाघरे वाली रेजिमेंट देखी तो, मैंने सोचा भी नहीं था कि एक दिन हिंदुस्तान के मैदानी इलाक़ों में, मैं उन्हीं के शिविर में एक कै़दी बनकर बैठा होऊंगा। लेकिन अपनी किस्मत का खेल कौन जान सकता है, या नकार सकता है।
(III)
ख़ैर, उसके बाद मैं हिंदुस्तान लौट आया, और सन् 1854 तक बहुत से स्वदेशी दरबारों में अलग-अलग पदों पर काम किया। तभी मुझे अज़ीमुल्ला ख़ान के साथ दोबारा इंग्लैंड का दौरा करने के लिए कहा गया। जिनका नाम इस बग़ावत और बाग़ियों से जुड़े होने के बारे में अक्सर सुना होगा। पेशवा की मृत्यु के बाद नाना ने अज़ीमुल्ला ख़ान को अपना प्रतिनिधि नियुक्त कर लिया था। मेरी ही तरह उन्होंने भी कानपुर के सरकारी स्कूल के हेडमास्टर गंगादीन से अंग्रेजी की तालीम हासिल की थी। अज़ीमुल्ला को यकीन था कि वह इंग्लैंड का दौरा कर लेगा, और अपने मालिक के ख़िलाफ़ लार्ड डलहौजी की डिगरी (अदालती फ़ैसला) को रद्द करवा देगा। जब उससे मेरी मुलाक़ात हुई तो वह इंग्लैंड के लिए रवाना होने ही वाला था। अच्छे से अच्छा वकील करने और ज़रूरत पड़ने पर अफ़सरों को रिश्वत देने के लिए उसने अच्छा-ख़ासा पैसा जमा कर लिया था। लेकिन मैं आपको अपने मिशन (अभियान) के बारे में नहीं बताऊंगा।
आप पहले से ही जानते हैं कि लंदन की बैठकें कैसी रहीं, यह एक सामाजिक सफलता तो रही लेकिन जहां तक हमारी उपलब्धि की बात थी, तो यह एक राजनीतिक नाकामयाबी रही, और हम लोग 50,000 पाउंड से भी ज्यादा ख़र्च करके इंग्लैंड से चले और सन् 1855 में कोंन्सटैंटिनोप्ल होकर हिंदुस्तान वापस लौट आए थे।
कोंन्सटैंटिनोप्ल से हम क्रीमिया गए, जहां हमने अपनी आंखों से अंग्रेज़ों पर हमला होते देखा, और 18 जून, सन् 1855 को उनकी पराजय होते हुए भी देखी। सेबास्टोपोल के फ्रंट पर दोनों फ़ौजों की बदहाली देखकर हम दंग रह गए थे। वहां से हम कोंन्सटैंटिनोप्ल वापस लौट आए थे। वहां हम कुछ असली और पक्का दावा करने वाले रूसी एजेंटों से मिले। उन्होंने हमसे पक्का वादा किया कि अगर अज़ीमुल्ला ख़ान हिंदुस्तान में विद्रोह करवा दे तो वे उन्हें युद्ध-सामग्री में पूरी मदद करेंगे। वहीं पर मैंने और अज़ीमुल्ला ख़ान ने प्रतिज्ञा की कि हम कंपनी सरकार को उखाड़ फेंकने का अभियान शुरू करेंगे। ख़ुदा का शुक्र है कि हम उसमें कामयाब भी हुए। जो अख़बार आपने मुझे पढ़ने के लिए दिया उनमें मैं साफ-साफ देख रहा हूं कि कंपनी का राज ख़त्म हो चुका है, और उनका लूटपाट और ज़ब्ती का अधिकार-पत्र दोबारा नहीं बनेगा। हालांकि हम अंग्रेज़ों के चंगुल से अपने देश को आज़ाद तो नहीं करा पाए, लेकिन मुझे लगता है कि हम कुछ बेहतर काम को ज़रूर कर पाए। हमारी कुर्बानियां जाया नहीं जाएंगी, मुझे पूरा यक़ीन है कि अंग्रेजी संसद की देख-रेख में डायरैक्ट गवर्नमेंट, कंपनी की सरकार से बेहतर होगी, और कम से कम मेरे देश के दबाए और सताए हुए देशवासियों का भविष्य तो उज्जवल होगा। हालांकि, मैं यह सब देखने के लिए ज़िंदा नहीं रह पाऊँगा।
(I)
आपने मुझे पूछा है कि मैं आपको अपनी ज़िंदगी के बारे में कुछ बताऊं। दरअसल यह बात वाक़ई सही है कि मैं एक जासूस हूं। अगर इस शब्द का सीधा अर्थ (मतलब) निकाला जाए कि मैं एक जासूस हूं, तो इस इल्ज़ाम से मैं साफ़ इंकार करता हूं। मैं कोई जासूस नहीं हूं, बल्कि बेग़म की फ़ौज का एक अफ़सर हूं और मैं लखनऊ से यहां इस बात की पुख़्ता जानकारी हासिल करने आया हूं कि फ़ौज की तादाद कितनी है, और हमारे खिलाफ़ युद्ध करने के लिए कितने तोपख़ाने और वाहन जुटाए गए हैं।
मैं लखनऊ की फ़ौज का चीफ इंजीनियर हूं और दुश्मन के इलाके की टोह लेने की मुहिम पर आया हूं, लेकिन अल्लाह को शायद यह मंजूर नहीं था। आज शाम मेरी योजना लखनऊ लौटने की थी। अगर क़िस्मत ने मेरा साथ दिया होता, तो मैं कल सूरज निकलने से पहले वहां पहुंच चुका होता, क्योंकि जो जानकारियां मुझे चाहिए थीं मैंने वे सभी हासिल कर ली थीं। लेकिन मैं लखनऊ जाने वाली सड़क से होकर एक बार और उन्नाव जाना चाहता था, क्योंकि मैं यह देखने के लिए बहुत बेताव था कि लाव-लश्कर से भरी रेलगाड़ियां और गोलाबारूद दस्ते चलने की तैयारी कर चुके हैं या नहीं। इसे मेरा दुर्भाग्य ही कहिए कि मेरी मुलाक़ात एक नापाक मां के उस नालायक बेटे से हो गई, जिसने मुझे जासूस करार दिलवा दिया है। वह जघन्य काम करने वाला एक नीच आदमी है, जिसने फांसी के फंदे से अपनी गर्दन बचाने के लिए ख़ुद को अंग्रेज़ों के हाथों बेच दिया। अब वह अपने हमवतन और सहधर्मियों को ज़िंदगियों का सौदा करके अपनी नीचता से ध्यान हटाना चाहता है। लेकिन अल्लाह गवाह है, वह ज़रूर इसे ग़द्दारी के बदले जहन्नुम की आग में भेजेगा।
आपने मुझसे पूछा कि मेरा नाम क्या है, और आप मेरे दुर्भाग्य की दास्तां स्कॉटलैंड में अपने दोस्तों को लिखकर भेजना चाहते हैं। ख़ैर, मुझे कोई एतराज़ नहीं है। इंग्लैंड के लोग इंग्लैंड से मेरा मतलब स्कॉटलैंड के लोग भी जो अच्छे हैं, वे अल्लाह के इस ख़ादिम के दुर्भाग्य के बारे में सोचेंगे। मैं लंदन और एडिनवर्ग दो बार जा चुका हूं, इसलिए दोनों जगहों पर मेरे काफ़ी दोस्त बन गए हैं।
मेरा नाम मुहम्मद अली ख़ान है। मैं रोहिलखंड के एक प्रतिष्ठित ख़ानदान से ताल्लुक रखता हूं। मैंने बरेली कॉलेज से पढ़ाई की और अंग्रेजी के सभी विषयों में अव्वल रहा। बरेली से मैं रुड़की स्थित, गवर्नमेंट इंजीनियरिंग कॉलेज में चला गया, और कंपनी की नौकरी के लिए इंजीनियरिंग की पढ़ाई की। मैंने यूरोप के सिविल और मिलिट्री दोनों के सभी छात्रों से काफ़ी ज़्यादा अंक हासिल किए और अपने साल के सबसे अव्वल छात्र के रूप में पास हुआ।
(II)
लेकिन नतीजा क्या निकला? मुझे बतौर कंपनी इंजीनियर ‘जमादार’ का ओहदा दे दिया गया, और एक देशीय कमिशंड ऑफ़िसर के रूप में एक कंपनी के साथ काम करने के लिए पहाड़ों पर अलग-थलग ड्यूटी करने के लिए भेज दिया गया। लेकिन मुझे वहां पर एक यूरोपियन सार्जेट के सहायक के तौर पर भेजा गया था, जो मुझसे हर तरह से कमतर थे सिर्फ क्रूरता को छोड़कर, एक ऐसा शख़्स जो सिर्फ़ थोड़ा-बहुत पढ़ा-लिखा था या बिल्कुल अनपढ़ था, और वह इंग्लैंड में कभी भी बढ़ईगिरी के पद से ऊपर आगे नहीं गया होगा। प्रशासन के बहुत से अनपढ़ लोगों की तरह, उसने यूरोपवासियों की सभी कमज़ोरियों का प्रदर्शन किया-अहंकार, बदतमीज़ी और मतलबी स्वभाव। जिनकी वजह से हमें बहुत गुस्सा आता था और खीज भी होती थी। जब तक आप मेरे देशवासियों की भाषा नहीं सीखते और इस देश के पढ़े-लिखे अच्छे लोगों से मेलजोल नहीं करते, तब तक आप ऐसे आदमी के द्वारा की गई ग़लतियों को पूरी तरह से नहीं समझ पाएंगे, जिससे आप देश के स्वाभिमान को ठेस पहुंचती है। ऐसी एक ही मिसाल यह साबित करने के लिए काफ़ी है कि आपके सबसे घटिया स्तर के दुश्मन ही आपकी राष्ट्रीय भावना और अभियान के बारे में ऐसा कह सकते हैं, और लोगों को सोचने पर मजबूर करते हैं कि आपकी उदारता और सहानुभूति सिर्फ़ ढोंग है।
मैंने कंपनी की नौकरी पैसा कमाने की तमन्ना से नहीं की थी, बल्कि एक सम्मानजनित नौकरी की उम्मीद से की थी। इसके बावजूद नौकरी की शुरुआत में ही मुझे ज़िल्लत और बेइज्ज़ती के अलावा कुछ भी हासिल नहीं हुआ। मैं एक ऐसे आदमी के नीचे काम कर रहा था जिससे मुझे नफ़रत थी, शायद नफ़रत से भी ज़्यादा मुझे उससे घृणा थी। मैंने अपने अब्बा हुजूर को ख़त लिखा और इल्तिज़ा की कि अगर आप इजाज़त दें तो मैं नौकरी से इस्तीफ़ा देना चाहता हूं, और वे मेरी बात से राज़ी हो गए कि मैं नवाबो (राजकुमारों) का वंशज, उन हालात में कंपनी की नौकरी नहीं कर सकता।
मैंने नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया, और इस मंशा से घर वापस चला गया कि अब मैं अवध के बादशाह, स्वर्गीय महाराज नसीर-उद-दीन के लिए अपनी सेवाएं अर्पित करूंगा। लेकिन जैसे ही मैं लखनऊ पहुंचा तो मुझे ख़बर मिली कि नेपाल के महाराजा जंग बहादुर जो इस समय गोरखाओं की एक फ़ौज के साथ गोरखपुर में हैं, और वे लखनऊ की लूट में मदद करने के लिए आ रहे हैं। वे इंग्लैंड के दौरे पर जाने वाले हैं, इसलिए उन्हें अंग्रेजी भाषा में माहिर एक सचिव की ज़रूरत है। मैंने फौरन उस पद के लिए अर्ज़ी भेज दी। स्वदेशी राजाओं और अंग्रेज़ी अफ़सरों की सिफारिश होने के कारण मुझे चुन लिया गया। महाराजा के
अनुचर सहायक के रूप में, मैं पहली बार इंग्लैंड गया, तब दूसरी जगहों पर जाने के साथ-साथ हम इडिनबर्ग भी गए, जहां आपकी रेजिमेंट 93वीं हाइलैंडर्स ने महाराजा के सम्मान में ‘‘गार्ड ऑफ ऑनर’’ दिया। जब मैंने पहली बार एक ऊंचे घाघरे वाली रेजिमेंट देखी तो, मैंने सोचा भी नहीं था कि एक दिन हिंदुस्तान के मैदानी इलाक़ों में, मैं उन्हीं के शिविर में एक कै़दी बनकर बैठा होऊंगा। लेकिन अपनी किस्मत का खेल कौन जान सकता है, या नकार सकता है।
(III)
ख़ैर, उसके बाद मैं हिंदुस्तान लौट आया, और सन् 1854 तक बहुत से स्वदेशी दरबारों में अलग-अलग पदों पर काम किया। तभी मुझे अज़ीमुल्ला ख़ान के साथ दोबारा इंग्लैंड का दौरा करने के लिए कहा गया। जिनका नाम इस बग़ावत और बाग़ियों से जुड़े होने के बारे में अक्सर सुना होगा। पेशवा की मृत्यु के बाद नाना ने अज़ीमुल्ला ख़ान को अपना प्रतिनिधि नियुक्त कर लिया था। मेरी ही तरह उन्होंने भी कानपुर के सरकारी स्कूल के हेडमास्टर गंगादीन से अंग्रेजी की तालीम हासिल की थी। अज़ीमुल्ला को यकीन था कि वह इंग्लैंड का दौरा कर लेगा, और अपने मालिक के ख़िलाफ़ लार्ड डलहौजी की डिगरी (अदालती फ़ैसला) को रद्द करवा देगा। जब उससे मेरी मुलाक़ात हुई तो वह इंग्लैंड के लिए रवाना होने ही वाला था। अच्छे से अच्छा वकील करने और ज़रूरत पड़ने पर अफ़सरों को रिश्वत देने के लिए उसने अच्छा-ख़ासा पैसा जमा कर लिया था। लेकिन मैं आपको अपने मिशन (अभियान) के बारे में नहीं बताऊंगा।
आप पहले से ही जानते हैं कि लंदन की बैठकें कैसी रहीं, यह एक सामाजिक सफलता तो रही लेकिन जहां तक हमारी उपलब्धि की बात थी, तो यह एक राजनीतिक नाकामयाबी रही, और हम लोग 50,000 पाउंड से भी ज्यादा ख़र्च करके इंग्लैंड से चले और सन् 1855 में कोंन्सटैंटिनोप्ल होकर हिंदुस्तान वापस लौट आए थे।
कोंन्सटैंटिनोप्ल से हम क्रीमिया गए, जहां हमने अपनी आंखों से अंग्रेज़ों पर हमला होते देखा, और 18 जून, सन् 1855 को उनकी पराजय होते हुए भी देखी। सेबास्टोपोल के फ्रंट पर दोनों फ़ौजों की बदहाली देखकर हम दंग रह गए थे। वहां से हम कोंन्सटैंटिनोप्ल वापस लौट आए थे। वहां हम कुछ असली और पक्का दावा करने वाले रूसी एजेंटों से मिले। उन्होंने हमसे पक्का वादा किया कि अगर अज़ीमुल्ला ख़ान हिंदुस्तान में विद्रोह करवा दे तो वे उन्हें युद्ध-सामग्री में पूरी मदद करेंगे। वहीं पर मैंने और अज़ीमुल्ला ख़ान ने प्रतिज्ञा की कि हम कंपनी सरकार को उखाड़ फेंकने का अभियान शुरू करेंगे। ख़ुदा का शुक्र है कि हम उसमें कामयाब भी हुए। जो अख़बार आपने मुझे पढ़ने के लिए दिया उनमें मैं साफ-साफ देख रहा हूं कि कंपनी का राज ख़त्म हो चुका है, और उनका लूटपाट और ज़ब्ती का अधिकार-पत्र दोबारा नहीं बनेगा। हालांकि हम अंग्रेज़ों के चंगुल से अपने देश को आज़ाद तो नहीं करा पाए, लेकिन मुझे लगता है कि हम कुछ बेहतर काम को ज़रूर कर पाए। हमारी कुर्बानियां जाया नहीं जाएंगी, मुझे पूरा यक़ीन है कि अंग्रेजी संसद की देख-रेख में डायरैक्ट गवर्नमेंट, कंपनी की सरकार से बेहतर होगी, और कम से कम मेरे देश के दबाए और सताए हुए देशवासियों का भविष्य तो उज्जवल होगा। हालांकि, मैं यह सब देखने के लिए ज़िंदा नहीं रह पाऊँगा।
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