Wednesday, December 29, 2010

आंकड़ों में उलझी हुई गरीबी







आंकड़ों में उलझी हुई गरीबी



सतीश सिंह
हमारे देश में गरीबों की पहचान करने के दो तरीके प्रचलित हैं। पहला तरीका योजना आयोग का है और दूसरा तेंदुलकर समिति का, पर अफसोस की बात यह है कि हम दोनों तरीकों के रास्तों पर चलकर भी गरीबों की वास्तविक संख्या के बारे में पता नहीं लगा पा रहे हैं। इसके बावजूद भी फिलवक्त भारत में योजना आयोग तथा तेंदुलकर समिति के आंकडों को प्रमाणिक माना जाता है।
योजना आयोग एवं तेंदुलकर समिति दोनों बढ़-चढ़कर भारत में गरीबी की दर में कमी आने की बात कर रहे हैं। उनके दावों को निम्न आकड़ों से समझा जा सकता है-
योजना आयोग के अनुसार गरीबी की दर में गिरावट

1983-2007-08
अनुपात प्रतिशत में दिये गए हैं
क्षेत्र/राज्य
1983
1993-94
2004-05
2007-08
आंध्रप्रदेश
30.118.511.53.6
बिहार
59.349.933.327.2
छत्तीसगढ़
31.822.3
गुजरात
26.019.011.83.8
मध्‍यप्रदेश
47.135.532.419.2
उत्तरप्रदेश
44.336.025.520.3
बीमारु राज्य 47.237.128.020.5
उत्तर-पूर्व
22.810.59.02.1
भारत
41.630.421.814.0
बीमारु राज्य के अंतगर्त बिहार, उत्तारप्रदेश, मघ्यप्रदेश और राजस्थान को रखा गया है।
तेंदुलकर समिति के अनुसार गरीबी की दर में गिरावट
1983-2007-08/अनुपात प्रतिशत में दिये गए हैं
क्षेत्र/राज्य
1983
1993-94
2004-05
2007-08
आंध्रप्रदेश
58.843.929.717.12
बिहार
76.068.854.448.6
छत्तीसगढ़
50.438.8
गुजरात
53.843.031.820.8
मध्‍यप्रदेश
62.150.348.736.5
उत्तरप्रदेश
58.850.540.836.0
बीमारु राज्य 62.553.144.237.1
उत्तर-पूर्व
37.425.219.78.7
भारत
58.547.837.127.3
बीमारु राज्य के अंतगर्त बिहार, उत्तारप्रदेश, मघ्यप्रदेश और राजस्थान को रखा गया है।
योजना आयोग के आंकड़ों पर यदि विश्‍वास किया जाए तो वित्तीय वर्ष 2007-08 में मात्र 14 फीसदी गरीब हिन्दुस्तान में बच गए थे। इसी के बरक्स में अगर तेंदुलकर समिति के आंकड़ों को सच मानें तो वित्तीय वर्ष 2007-08 में कुल 27.3 फीसदी गरीब भारत में बचे थे।
योजना आयोग के गरीबी को मापने वाले पैमाने को बेहद ही संकीर्ण माना जा सकता है, क्योंकि यह आयोग समझता है कि प्रति दिन 18-19 रुपयों की आय से एक आम आदमी अपने पूरे परिवार का पेट भर सकता है। तेंदुलकर समिति का भी गरीबी को मापने का पैमाना योजना आयोग से भले ही थोड़ा सा व्यापक है। फिर भी उसके द्वारा बताये गये प्रति दिन के आय से एक परिवार के पेट को भरने की बात करना तो बेमानी है ही, साथ ही एक व्यक्ति के पेट को भरने के बारे में सोचना भी मूर्खता है।
बावजूद इसके इसमें दो राय नहीं है कि योजना आयोग एवं तेंदुलकर समिति ध्दारा अपनाए गए तरीकों के अनुसार गरीबी की दर में कमी आई है।
उल्लेखनीय है कि योजना आयोग ने 2004-05 के मूल्य सूची को आधार मानते हुए 359 रुपया प्रति माह के आय को ग्रामीण क्षेत्र में और 547 रुपया प्रति माह के आय को शहरी क्षेत्र में गरीबी का पैमाना माना है, वहीं तेंदुलकर समिति ने 447 रुपये प्रति माह के आय को ग्रामीण क्षेत्र में और 579 रुपये प्रति माह के आय को शहरी क्षेत्र में गरीबी का पैमाना माना है।
यहाँ विसंगति यह है कि 2010 में भी योजना आयोग और एवं तेंदुलकर समिति 2004-05 के मूल्य सूची को आधार मानकर गरीबों की संख्या का निर्धारण कर रहे हैं। जबकि आज की तारीख में हर चीज की कीमत आसमान को छू रही है। 2010 की बात न भी करें तो 2004-05 में भी महँगाई इस कदर कड़वी थी कि 15 से 20 रुपयों के प्रति दिन के आय से किसी भी तरीके से एक आदमी पेट नहीं भर सकता था।
आंकड़े भले कुछ भी कहें, किन्तु वास्तविकता तो यही है कि गरीबी का प्रतिशत योजना आयोग एवं तेंदुलकर समिति द्वारा बताए जा रहे आंकड़ों से कहीं ज्यादा है। दरअसल सरकार अपनी ऐजेंसियों के माघ्यम से गरीबों की संख्या को कम बताकर अपनी जिम्मेदारियों से बचना चाहती है। वह समझती है कि गरीबों की संख्या कम बताकर वह अपने सामाजिकर् कत्ताव्यों से बच जाएगी।
देश को विकसित बनाने के सपने को देखना तो अच्छी बात है, लेकिन शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर को छुपाने से सच्चाई से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता है। जिस देश में कुपोषण से प्रतिवर्ष हजारों-लाखों की संख्या में लोग मर रहे हैं। लाखों-करोड़ों लोग आसमान के नीचे भूखे पेट सोने के लिए मजबूर हैं, वैसे देश में इस तरह के आयोग और समिति की पड़ताल और आंकड़े हास्याप्रद तो हैं ही साथ में आमजन के लिए क्रूर मजाक के समान भी हैं।
जरुरत आज यह है कि गरीबों की वास्तविक संख्या का पता लगाने के लिए नये सिरे से मानकों का निर्धारण किया जाए। आज महँगाई का स्तर जिस मुकाम पर पहुँच गया है, वहाँ कम से कम शहरी क्षेत्र के लिए प्रति दिन की आमदनी 150 रुपये और ग्रामीण क्षेत्र के लिए 100 रुपये होनी चाहिए।
गरीबी का खात्मा सिर्फ प्रति दिन पेट भरने से नहीं हो सकता है। स्वास्थ, षिक्षा और रोजगार की गारंटी जब तक इस देश में सरकार की तरफ से नहीं दी जाती है, तब तक गरीबी का आंकड़ा 50-60 फीसदी से कभी भी कम नहीं हो सकता है। लिहाजा सरकार का यहर् कत्ताव्य बनता है कि वह पूरे मामले में फिर से पड़ताल करके नई दृष्टि से गरीबी के वर्तमान पैमाने पर पुर्नविचार करे और सुधारात्मक उपायों को अमलीजामा पहनाये। झूठे आंकड़ों से किसी का भला नहीं हो सकता है।

अब ‘गरीबी छुपाओ’



कलमाड़ी का कमाल …
-एल. आर. गाँधी
कलमाड़ी का कमाल; जी हाँ इसे हम कलमाड़ी जी का कमाल ही कहेंगे! जिस दक्ष प्रशन का उत्तर पिछले ४० साल से ‘राज परिवार’ नहीं ढूंढ पाया, कलमाड़ी ने पलक झपकते ही ‘प्राब्लम साल्व’ कर डाली!
दक्ष प्रश्‍न था – कामनवेल्थ खेलों में विदेशी महमानों से ‘दिल्ली की बदनसीबी-झुग्गी झोपड़ बस्तियों’ को कैसे छुपाया जाए? सोनिया जी से ले कर शीला जी तक सभी हैरान परेशान थे! शीला जी ने पहले तो अपनी खाकी वर्दी का खौफ अजमाया और खेल मार्ग पर रहने वाले ‘गरीब-गुरबों’ को पुलसिया अंदाज़ में समझाया कि भई दिल्ली कि इज़त का सवाल है, कम से कम ३ से १४ अक्तूबर तक कहीं चले जाओ और अपनी यह मनहूस शक्ल किसी विदेश मेहमान को मत दिखाना. बहुत से बेचारे अपनी सारी जमा पूँजी समेट कर ‘ममता की रेल का टिकट कटा भाग खड़े हुए! मगर जितने भागे थे उससे भी कई गुना ज्यादा ‘यमुना की मार’ से तरबतर और आ गए. शीला जी हैरान परेशान -सभी हथकंडे आजमाए ‘मर्ज़ बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की’. अब आधी दिल्ली तो झोपड़ पट्टिओं में पसरी है … इतने जन सैलाब को कोई कैसे भगाए?
थक हार कर शीला जी ‘अनुभवी और समझदार’ कलमाड़ी जी की शरण में पहुंची. दक्ष प्रश्न का हल पूछा! कलमाड़ी जी ने अपनी अनुभवी दाढ़ी के काले-सफ़ेद बालों में हाथ कंघी की और मुस्करा कर बोले. यह भी कोई समस्या है? हमने इतने बड़े खेल में किसी को कुछ पता नहीं चलने दिया. सात सौ करोड़ का खेल सत्तर हज़ार तक पहुंचा दिया और किसी को भनक तक नहीं लगी. कलमाड़ी जी ने अपना बीजिंग अनुभव सुनाया! हवाई अड्डे से हम ओलम्पिक गाँव जा रहे थे तो रास्ते में सड़क के दोनों ओर ‘होर्डिंग्ज़ ही होर्डिंग्ज़’ देख हमारा माथा ठनका! हमने अपनी गाडी रुकवाई तो ‘मेज़बान मैडम’ ने पूछा क्या हुआ कलमाड़ी जी. हमने गाडी से उतरते उतरते बाएँ हाथ की तर्जनी उठाई और बोले ”सु-सु” और पलक झपकते ही पहुँच गए होर्डिंग की ओट में. चमचमाते होर्डिंग्स के पीछे देखा तो ‘बीजिंग की बदनसीब झोपड़ पट्टी’ अन्धकार में डूबी थी. कलमाड़ी जी का अनुभव इस आड़े वक्त में काम आया.
बस फिर क्या था ‘बाई ऐअर’ मिजोरम से बांबू’ मंगवाए गए और कारीगिर भी. और दिल्ली की मनहूसियत को ‘बाम्बू होर्डिंग्स’ के पीछे छुपा दिया गया. शीला जी भी कलमाड़ी जी का लोहा मान गईं. अरे भई हम पिछले ४० साल से गरीबी मिटाने के ‘भागीरथ’ कार्य में लगे हैं. पहले इंदिरा जी ने गरीबी हटाने का अहद किया . गरीबी तो नहीं हटी मगर महंगाई डायन न मालूम कहाँ से आ टपकी. फिर राजीव जी ने सोचा हटाने से तो यह फिर फिर आ जाती है. इस लिए गरीबी मिटाने की कसम खाई. इस बार गरीबी के साथ उसका सौतेला भाई ‘भ्रष्टाचार’ आ खड़ा हुआ. फिर अब राज परिवार की बहु रानी ने मनमोहन जी के साथ सीरियस डिस्कशन के बाद डिसाईड किया कि ‘गरीबी को भगा’ दिया जाए! गरीबी तो नहीं भगा पाए-पर अपनी गरीबी दूर कर ‘चाचा कत्रोची’ को जरूर भगा दिया. चलो आधी अधूरी ही सही ‘गरीबी भगाने ‘ की मुहीम में सफलता तो हाथ लगी. अब परिवार के राज कुमार जब यू पी. के दलितों की झोंपड़ियों में जा कर इक्कीसवीं सदी का ‘गाँधी’ बनने के जुगाड़ में लगे हैं – गरीबी छुपाने और देश को विश्व की दूसरी सबसे बड़ी शक्ति दिखाने के ‘पारिवारिक आन्दोलन’ में कलमाड़ी जी के योगदान को स्वर्ण अक्षरों में लिखा जायेगा. अंग्रेजी में कहावत भी है ‘आउट आफ साईट इस आउट आफ माईंड’.


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