भारतीय मीडिया की सच्ची पड़ताल
समीक्षकः डा. शाहिद अली
पुस्तक का नामः मीडियाः नया दौर नई चुनौतियांनए दौर में मीडिया दो भागों में बंटा हुआ है, एक प्रिंट मीडिया और दूसरा इलेक्ट्रानिक मीडिया। भाषा और तेवर भी दोनों के अलग–अलग हैं। खबरों के प्रसार की दृष्टि से इलेक्ट्रानिक मीडिया तेज और तात्कालिक बहस छेड़ने में काफी आगे निकल आया है। प्रभाव की दृष्टि से प्रिंट मीडिया आज भी जनमानस पर अपनी गहरी पैठ रखता है। फिर वे कौन से कारण हैं कि आज मीडिया की कार्यशैली और उसके व्यवहार को लेकर सबसे ज्यादा आलोचना का सामना मीडिया को ही करना पड़ रहा है। चौथे खंभे पर लगातार प्रहार हो रहे हैं। समाज का आईना कहे जाने वाले मीडिया को अब अपने ही आईने में शक्ल को पहचानना कठिन हो रहा है। पत्रकारिता के सरोकार समाज से नहीं बल्कि बाजार से अधिक निकट के हो गये हैं। नए दौर का मीडिया सत्ता की राजनीति और पैसे की खनक में अपनी विरासत के वैभव और त्याग का परिष्कार कर चुका है। यानी मीडिया का नया दौर तकनीक के विकास से जितना सक्षम और संसाधन संपन्न हो चुका है उससे कहीं ज्यादा उसका मूल्यबोध और नैतिक बल प्रायः पराभव की तरफ बढ़ चला है।
लेखकः संजय द्विवेदी
प्रकाशकः यश पब्लिकेशन्स, 1 / 10753 सुभाष पार्क, गली नंबर-3, नवीन शाहदरा, नीयर कीर्ति मंदिर, दिल्ली-110031, मूल्यः 150 रुपये मात्र
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी की नई पुस्तक ‘मीडिया- नया दौर नई चुनौतियां’ इन सुलगते सवालों के बीच बहस खड़ी करने का नया हौसला है। संजय द्विवेदी अपनी लेखनी के जरिए ज्वलंत मुद्दों पर गंभीर विमर्श लगातार करते रहते हैं। लेखक और पत्रकार होने के नाते उनका चिन्तन अपने आसपास के वातावरण के प्रति काफी चौकन्ना रहता है, इसलिए जब वे कुछ लिखते हैं तो उनकी संवेदनाएं बरबस ही मुखर होकर सामने आती हैं। राजनीति उनका प्रिय विषय है लेकिन मीडिया उनका कर्मक्षेत्र है। संजय महाभारत के संजय की तरह नहीं हैं जो सिर्फ घटनाओं को दिखाने का काम करते हैं, लेखक संजय अपने देखे गये सच को उसकी जड़ में जाकर पड़ताल करते हैं और सम्यक चेतना के साथ उन विमर्शों को खड़ा करने का काम करते हैं जिसकी चिंता पूरे समाज और राष्ट्र को करना चाहिए।
यह महज वेदना नहीं है बल्कि गहरी चिंता का विषय भी है कि आजादी के पहले जिस पत्रकारिता का जन्म हुआ था इतने वर्षों बाद उसका चेहरा-मोहरा आखिर इतना क्यों बदल गया है कि मीडिया की अस्मिता ही खतरे में नजर आने लगी है। पत्रकार संजय लंबे समय से मीडिया पर उठ रहे सवालों का जवाब तलाशने की जद्दोजहद करते हैं। कुछ सवाल खुद भी खड़े करते हैं और उस पर बहस के लिये मंच भी प्रदान करते हैं। बाजारवादी मीडिया और मीडिया के आखिरी सिपाही स्व.प्रभाष जोशी के बीच की जंग तक के सफर को संजय काफी नजदीक से देखते हैं और सीपियों की तरह इकट्ठा करके लेखमालाओं के साथ प्रस्तुत करते हैं। संजय के परिश्रमी लेखन पर प्रख्यात कवि श्री अष्टभुजा शुक्ल कहते हैं – “संजय के लेखन में भारतीय साहित्य, संस्कृति और इसका प्रगतिशील इतिहास बार-बार झलक मारता है बल्कि इन्हीं की कच्ची मिट्टी से लेखों के ये शिल्प तैयार हुए हैं। अतः उनका लेखन तात्कालिक सतही टिप्पणियां न होकर, दीर्घजीवी और एक निर्भीक, संवेदनशील तथा जिन्दादिल पत्रकार के गवाह हैं। ऐसे ही शिल्प और हस्तक्षेप किसी भी समाज की संजीवनी है।”
यह सच है कि संजय के लेखों में साहित्य, संस्कृति और प्रगतिशील इतिहास का अदभुत संयोग नजर आता है। इससे भी अधिक यह है कि वे बेलाग और त्वरित टिप्पणी करने में आगे रहते हैं। वैचारिक पृष्ठभूमि में विस्तार से प्रकाश डालना संजय की लेखनी का खास गुण हैं, जिससे ज्यादातर लोग सहमत हो सकते हैं। पं.माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर कमल दीक्षित ने पुस्तक की भूमिका में लिखा है कि “ श्री द्विवेदी प्रोफेशनल और अकादमिक अध्येता – दोनों ही हैं। वे पहले समाचार-पत्रों में संपादक तक की भूमिका का निर्वाह कर चुके हैं। न्यूज चैनल में रहते हुए उन्होंने इलेक्ट्रानिक मीडिया को देखा समझा है। अब वे अध्यापक हैं। ऐसा व्यक्ति जब कोई विमर्श अपने विषय से जुड़कर करता है तो वह अपने अनुभव तथा दृष्टि से संपन्न होता है, इस मायने में संजय द्विवेदी को पढ़ना अपने समय में उतरना है। ये अपने समय को ज्यादा सच्चाई से बताते हैं।” संजय के लेखन के बारे में दो विद्वानों की टिप्पणियां इतना समझने में पर्याप्त है कि उनकी पुस्तक का फलसफा क्या हो सकता है। अतः इस पुस्तक में संजय ने मीडिया की जिस गहराई में उतरकर मोती चुनने का साहस किया है वह प्रशंसनीय है। पुस्तक में कुल सत्ताइस लेखों को क्रमबद्ध किया गया हैं जिनमें उनका आत्मकथ्य भी शामिल है।
पहले क्रम में लेखक ने नई प्रौद्योगिकी, साहित्य और मीडिया के अंर्तसंबंधों को रेखांकित किया है। आतंकवाद, भारतीय लोकतंत्र और रिपोर्टिंग, कालिख पोत ली हमने अपने मुंह पर, मीडिया की हिन्दी, पानीदार समाज की जरुरत, खुद को तलाशता जनमाध्यम जैसे लेखों के माध्यम से लेखक ने नए सिरे से तफ्तीश करते हुए समस्याओं को अलग अन्दाज में रखने की कोशिश की है। बाजारवादी मीडिया के खतरों से आगाह करते हैं मीडिया को धंधेबाजों से बचाइए, दूसरी ओर मीडिया के बिगड़ते स्वरुप पर तीखा प्रहार करने से नहीं चूकते हैं। इन लेखों में एक्सक्लुजिव और ब्रेकिंग के बीच की खबरों के बीच कराहते मीडिया की तड़फ दिखाने का प्रयास भी संजय करते हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया के प्रिंस की पहचान कराते हैं और मीडिया के नारी संवेदनाओं को लेकर गहरी चिंता भी करते हैं। मीडिया में देहराग, किस पर हम कुर्बान, बेगानी शादी में मीडिया दीवाना जैसे लेखों में वे मीडिया की बेचारगी और बेशर्मी पर अपना आक्रोश भी जाहिर करते हैं।
श्री संजय की पुस्तक में मीडिया शिक्षा को लेकर भी कई सवाल हैं। मीडिया के शिक्षण और प्रशिक्षण को लेकर देश भर कई संस्थानों ने अपने केन्द्र खोले है। कई संस्थान तो ऐसे हैं जहां मीडिया शिक्षण के नाम पर छद्म और छलावा का खेल चल रहा है। मीडिया में आने वाली नई पीढ़ी के पास तकनीकी ज्ञान तो है लेकिन उसके उद्देश्यों को लेकर सोच का अभाव है। अखबारों की बैचेनी के बीच उसके घटते प्रभाव को लेकर भी पुस्तक में गहरा विमर्श देखने को मिलता है। विज्ञापन की तर्ज पर जो बिकेगा, वही टिकेगा जैसा कटाक्ष भी लेखक संजय ने किया है। वहीं थोड़ी सी आशा भी मीडिया से रखते हैं कि जब तंत्र में भरोसा न रहे वहां हम मीडिया से ही उम्मीदें पाल सकते हैं।
संजय हिंदी की पत्रकारिता पर भी अपना ध्यान और ध्येय केन्द्रित करते हैं। उनका मानना है कि अब समय बदल रहा है इकोनामिक टाइम्स, बिजनेस स्टैंडर्ड और बिजनेस भास्कर का हिन्दी में प्रकाशन यह साबित करता है कि हिंदी क्षेत्र में आर्थिक पत्रकारिता का नया युग प्रारंभ हो रहा है। हिंदी क्षेत्र में एक स्वस्थ औद्योगिक वातावरण, व्यावसायिक विमर्श, प्रशासनिक सहकार और उपभोक्ता जागृति की संभावनाएं साफ नजर आ रही हैं। हालांकि वे हिन्दी बाजार में मीडिया वार की बात भी करते हैं। फिलवक्त उन्होंने अपनी पुस्तक में पत्रकारिता की संस्कारभूमि छत्तीसगढ़ के प्रभाव को काफी महत्वपूर्ण करार दिया है। अपने आत्मकथ्य ‘मुसाफिर हूं यारों’ के माध्यम से वे उन पलों को नहीं भूल पाते हैं जहां उनकी पत्रकारिता परवान चढ़ी है। वे अपने दोस्तों, प्रेरक महापुरुषों और मार्गदर्शक पत्रकारों की सराहना करने से नहीं चूकते हैं जिनके संग-संग छत्तीसगढ़ में उन्होंने अपनी कलम और अकादमिक गुणों को निखारने का काम किया है।
संजय द्विवेदी के आत्मकथ्य को पढना काफी सुकून देता है कि आज भी ऐसे युवा हैं जिनके दमखम पर मीडिया की नई चुनौतियां का सामना हम आसानी से कर सकते हैं। जरुरत है ज़ज्बे और ईमानदार हौसलों की और ये हौसला हम संजय द्विवेदी जैसे पत्रकार, अध्यापक और युवा मित्र में देख सकते हैं। संजय की यह पुस्तक विद्यार्थियों, शोधार्थियों और मीडिया से जुड़े प्रत्येक वर्ग के लिये महत्वपूर्ण दस्तावेज है। ज्ञान, सूचना और घटनाओं का समसामयिक अध्ययन पुस्तक में दिग्दर्शी होता है। भाषा की दृष्टि से पुस्तक पठनीयता के सभी गुण लिए हुए है। मुद्रण अत्यन्त सुंदर और आकर्षक है। कवर पृष्ठ देखकर ही पुस्तक पढ़ने की जिज्ञासा बढ़ जाती है
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