ऐतिहासिक ‘अठखम्भा’ विलुप्त होने के कगार पर
: अम्बेडकरनगर की ऐतिहासिक धरोहर : पुरातात्विक राष्ट्रीय धरोहरों के संरक्षण की बात कौन करे यहां तो सम्बन्धित विभाग के कान पर जूं तक नहीं रेंग रही कि वह इनकी तरफ ध्यान दें। ऐतिहासिक धरोहरों के स्थान पर अब जब वर्तमान लोकतन्त्र में शासक ही अपना और अपने मान्य महामानवों के बुतों की स्थापना में संलिप्त हैं, तब ऐसे में किसी सम्बन्धित/गैर सम्बन्धित से क्या अपेक्षा की जा सकती है कि वह सर्वमान्य राष्ट्रीय ऐतिहासिक/वैदिक एवं पौराणिक धरोहरों की संरक्षा/सुरक्षा का दायित्व निर्वहन करेगा। यहां ऐतिहासिक पुरातात्विक धरोहरों के बारे में ज्यादा बताने की आवश्यकता नहीं है। इन धरोहरों के बारे में ज्यादा बताने की आवश्यकता नहीं हैं। इन धरोहरों, ध्वंसावशेषों को देखने के लिए देश में प्रतिवर्ष लाखों देशी-विदेशी पर्यटक पहुंचते हैं, उन्हीं का संरक्षण और सुरक्षा खतरे में पड़ी हुई है, जिसके बारे में देश ही नहीं विदेश तक के लोगों को जानकारी है।
देश के प्रमुख पर्यटन स्थलों, दर्शनीय धरोहरों को छोड़कर हम आपको और इसके विभिन्न भागों में कुछ बचे ध्वंसावशेषों की तरफ जिनमें एक है ‘अठखम्भा।' जी हां इस ‘अठखम्भे’ का अस्तित्व मिटने के कगार पर है। पहले आप को यह बता दें कि अकबरपुर शहजादपुर जनपद अम्बेडकरनगर के मुख्यालयी शहर हैं। इन दोनों उपनगरों के अलावा भी जिले में कई स्थान ऐसे हैं, जो वैदिक, ऐतिहासिक और पौराणिक समय के बताए जाते हैं और महत्वपूर्ण दर्शनीय स्थल हैं, लेकिन सरकार और स्थानीय प्रशासन सम्बन्धित विभागों ने इस तरफ से मुंह मोड़ रखा है। एक उपेक्षित ऐतिहासिक धरोहर का जिक्र किया जा रहा है, जिसे ‘अठखम्भा’ कहा जाता है।
अकबरपुर-जौनपुर सड़क/राजमार्ग (लुम्बिनी मार्ग) पर मुख्यालयी शहर से 5 किमी दूरस्थ लोरपुर ताजन चौराहे के पश्चिम सड़क के दक्षिणी किनारे पर यह एक तालाब (पुरानी बावली) के बीच निर्मित ऐतिहासिक ‘अठखम्भा’ ध्वंसावशेष स्थित है। जिसको देखकर प्रतीत होता है कि इसका निर्माण सैकड़ों वर्ष पूर्व कराया गया होगा। किस राजा/सम्राट ने इस ऐतिहासिक ‘अठखम्भा’ का निर्माण कराया था, यह तो कोई भी स्पष्ट रूप से बता पाने में असमर्थ है। इसी ‘अठखम्भे’ इमारत का एक खम्भा ‘स्तम्भ’ अब ध्वस्त होकर गायब हो चुका है, उसे किसने गायब कर दिया यह भी किसी को नहीं मालूम अब उक्त इमारत में बचे हैं मात्र सात खम्भे। यदि सुनी सुनाई बातों पर ध्यान दे तो इस इमारत के बारे में लोगों का कहना है कि पुराने समय में किसी शासक ने दोषियों अपराधियों को मृत्युदण्ड देने के लिए इस इमारत का निर्माण करवाया था और आठखम्भा एक ‘कत्लगाह’ के रूप में इस्तेमाल किया जाता था।
सदियों से इस ‘अठखम्भा’ के बारे में ऐसे कई रहस्य दफन है, जिनके बारे में पुरातत्व विभाग, स्थानीय प्रशासन, इतिहासकार एवं राज रियासत के लोग भी नहीं बता पा रहे हैं। ‘अठखम्भा’ एक ‘कौतूहल’ एवं रहस्यभरा ऐतिहासिक इमारत के रूप में तालाब के बीच-बीच खड़ा ‘जमींदोज’ होने के कगार पर खड़ा हो गया है। इस समय कुछ लोगों ने ‘अठखम्भा’ के खम्भों पर ऊँ एवं स्वस्तिक के लाल निशान बनाकर खम्भों के मध्य एक नागदेवता की मूर्ति स्थापना कर लाल पताका गाड़ दिया है, जिसकी जानकारी किसी को नहीं है कि किसने ऐसा किया है। ऐसा करना ऐतिहासिक धरोहर की वास्तविकता को मिटाने जैसा गैरकानूनी कार्य है। लोरपुर ताजन एवं निकटवर्ती गांवों के बुजुर्गों का कहना है कि तालाब (बावली) के बीचोबीच जीर्ण-शीर्णावस्था में खड़ी इस ऐतिहासिक इमारत ‘अठखम्भा’ के मध्य एक कुआं था जो कि किसी तहखाने का प्रवेश द्वार था। उसी तहखाने में कई रहस्य हैं, जिनका अब तक फाश नहीं हो सका है।
बुजुर्गों का मानना है कि यह इमारत था तो किसी राजा/शासक द्वारा निर्मित कत्लगाह अथवा बन्दीगृह रही होगी। यह भी कहा जाता है कि इस इमारत में ऐसी भाषा में कुछ आलेख हैं जिसे अब तक किसी ने पढ़ने की जहमत तक नहीं उठाया हैं। अगल-बगल के गांवों के लोगों का कहना है कि यदि कभी कार्य हेतु ‘अठखम्भा’ तालाब से मिट्टी की खुदाई की जाती है तो नरकंकाल के भग्नावशेष मिलते हैं, जिससे लोग भयभीत होकर वहां से भाग जाया करते हैं। बुजुर्गों की माने तो ‘अठखम्भा’ जैसी ऐतिहासिक इमारत में जो शिलालेख है उसमें किसी खजाने तक पहुंचने का गुप्त संदेश और संकेत है, जिसे अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है। ‘गजेटियर’ के अनुसार राजभर शासक शुलावल रावत की राजधानी यहीं थी। जौनपुर से लेकर हरदोई तक शुलावल रावत का साम्राज्य फैला हुआ था।
राजभरों के राजा शुलावल रावत ने ही इस ‘अठखम्भा’ का निर्माण कराया था, और यह विलुप्त होती छोटी-छोटी ऐतिहासिक इमारत राजा शुलावल के बड़े किले का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थी। राजभर शासक का ‘दुर्ग’ तो विलुप्त हो गया है लेकिन ध्वंसावशेष के रूप में ‘अठखम्भा’ वर्तमान लोगों के लिए एक कौतूहल बना हुआ अन्तिम सांसे ले रहा है। इतिहास के जानकारों के अनुसार अठखम्भा राजा शुलावल रावत के किले का एक बुर्ज है। गजेटियर में कहीं भी इस इमारत में आठखम्भों का जिक्र नहीं किया गया है। कभी-कभार राजा सुहैलदेव की जयन्ती मनाने के लिए यहां के राजभरों का जमावड़ा इसी ‘अठखम्भे’ के निकट बाग में होता है, लेकिन ‘अठखम्भा’ को संरक्षित करने की तरफ किसी का ध्यान ही जा रहा है। ‘अठखम्भा’ क्या है, इसमें कितने रहस्य छिपे हैं, सैकड़ों वर्षों से लोग इसको लेकर तरह-तरह की बातें कर रहे हैं। रात हो या दिन इस ‘अठखम्भा’ जैसी ऐतिहासिक इमारत के ‘आसपास’ भयवश कोई फटकता नहीं-और सम्बन्धित विभाग, स्थानीय प्रशासन, राजवंशीय लोगों को भी इसकी कोई फिक्र नहीं।
No comments:
Post a Comment