अनूठी अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी
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पहली बोलती फ़िल्म की अभिनेत्री बेगम पारा, अभिनेता रेणुका देवी गायक तलत महमूद, गीतकार शकील बदायूँनी, संवाद लेखक राही मासूम रज़ा, जावेद अख़्तर, अभिनेता रहमान एवं नसीरूद्दीन शाह में कौन सी बात समान है?
या पूर्व राष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन, कहानीकार मंटो, इस्मत चुगताई, राजा राव, क्रिकेट खिलाड़ी सी.के. नायडू, लाला अमरनाथ और हॉकी खिलाड़ी और भारत के पूर्व कप्तान ज़फ़र इक़बाल में क्या समान है?
यही कि ये सब कभी न कभी अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अलीगढ़ के छात्र रहे हैं.
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय 17 अक्टूबर को अपने संस्थापक सर सैयद अहमद खाँ का 187 वाँ वर्षगाँठ मना रहा है.
इस अवसर पर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में सेमिनार सेम्पोजियम के अलावा एक भव्य भोज होता है. वहाँ के पूर्व छात्रों का मानना है कि इतना बड़ा डिनर दुनिया में कहीं नहीं होता, जिसमें 15-20 हजार छात्र एक साथ भोजन करें.
हालांकि उपकुलपति नसीम अहमद का कहना है कि छात्रों की बढ़ती संख्या के कारण अब यह रात्रिभोज एक जगह संभव नहीं हो पाता इसीलिए इसे अलग-अलग हॉल में बाँट दिया गया है.
लेकिन यह भोज अकेले इस विश्वविद्यालय की ख़ासियत नहीं है.
'ये मेरा चमन है मेरा चमन, मैं अपने चमन का बुलबुल हूँ
सरशार निगाह-ए-नरगिस हूँ, पाबस्त-ए-गेसू-ए-सुम्बुल हूँ'
यह तराना है अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का जिसे वहाँ के छात्र रह चुके उर्दू के प्रसिद्ध कवि मजाज़ लखनवी ने लिखा है, और इस तराने में अलीगढ़ मुस्लिम विश्विवद्यालय की सभ्यता एवं संस्कृति की पूरी झलक है.
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना वर्ष 1875 में हुई थी.
पहले इसका नाम मदरसतुल उलूम था फिर मोहम्मद एँग्लो ओरिएंटल कॉलेज के नाम से जाना गया फिर वर्ष 1920 में इसे विश्वविद्यालय का दर्जा मिला.
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अपने 130 साल के अतीत से आज भी उतना ही जुड़ा हुआ है. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के उपकुलपति नसीम अहमद कहते हैं, '' आज आधुनिक शिक्षा में हम किसी से पीछे नहीं हैं लेकिन यहाँ का कल्चर जो हमारा अपना बनाया हुआ है वह हमें बहुत ही अज़ीज़ है, और हम उसे कभी नहीं छोड़ सकते.''
अलग तहज़ीब
अलीगढ़ का सारी दुनिया से अलग अपना एक मिज़ाज है और यह मिज़ाज वहाँ की अपनी उपज है.
पूर्व केंद्रीय मंत्री सांसद साहेब सिंह वर्मा कहते हैं, "मैं वहां 1962 से 76 तक रहा और आज भी इस संस्था से मुझे बहुत लगाव है."
वे बताते हैं, "वहाँ जाने से पहले कुछ खौफ़ सा था फिर वह हमेशा के लिए ख़त्म हो गया. वहाँ की सबसे अच्छी चीज़ है आपसी ताल्लुक़ात और सीनियर की इज्ज़त. आज भी अलीगढ़ वाले दुनिया के किसी कोने में मिल जायें जूनियर, सीनियर को वही सम्मान देते हैं जो पढ़ाई के ज़माने में देते थे. चार दिन पहले भी मैं वहाँ गया था. पढ़ाई के साथ मैं वहां सर सैयद अहमद खाँ का यह पैग़ाम लेकर आया कि हिन्दू-मुस्लिम एक गाड़ी के दो पहिए हैं.''
अलीगढ़ में आज भी बड़ी पाबंदी के साथ उन पुराने नियमों का पालन किया जाता है जो वहाँ की तहज़ीब और पहचान कही जा सकती है.
एक क़ायदा यह है कि हॉस्टल के कमरे से बाहर निकलने के लिए भी एक औपचारिक ड्रेस ज़रूरी है. सीधे पाजामे-कुर्ते में आप बाहर नहीं देखे जा सकते. कुर्ते-पाजामे पर शेरवानी पहनना ज़रूरी है.
इसी तरह छात्र यूनियन का चुनाव लड़ने वालों के लिए यह अनिवार्य है कि वह शेरवानी पहने, वह कैम्पस में सिर्फ रिक्शे पर ही चल सकता है, साईकिल या मोटर बाइक पर नहीं.
आवासीय होने के कारण
अलीगढ़ की यह तहज़ीब उसके आवासीय होने का नतीजा है.
जवाहरलाल नेहरू विश्विवद्यालय के सेवानिवृत प्राध्यापक डॉ. असलम परवर कहते हैं, "हर आवासीय संस्था की अपनी एक संस्कृति होती है. लेकिन अलीगढ़ जैसी अनूठी और मज़बूत संस्कृति न तो शांतिनिकेतन की है और न ही जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की."
यहाँ के भवनों और वास्तुकला के बारे में यहाँ के एक पूर्व छात्र सय्यत जैनुल हक का कहना है कि मुग़ल और नवाब काल के बाद उसे मुसलमानों के आखरी रजवाड़े की तरह देखा गया.
उनका कहना है, "आज 15 साल बाद जब मैंने इसे देखा तो ऐसा लगा कि यह कोई आधुनिक शैक्षणिक स्थान नहीं है बल्कि मुस्लिम सभ्यता एवं संस्कृति का एक म्यूज़ियम है जिसे बचाने की कोशिश की जा रही है."
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Monday, December 6, 2010
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी अनूठी
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