ग्रामीण स्वास्थ्य की दशा
भारत ने पिछले दशकों में स्वास्थ्य मानकों में महत्वपूर्ण प्रगति की है। शिशु व मातृत्व मृत्यु दर में लगातार कमी आई है। कई गंभीर बीमारियों की समाप्ति और जीवन प्रत्याशा में भी वृध्दि हुई है। इन उपलब्धियों के बाद भी जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा, विशेषकर ग्रामीण भारत उचित स्वास्थ्य देखरेख से वंचित है। अभी भी बहुमूल्य मानव समय, निवारण योग्य बीमारियों में खप जाता है। पुरानी बीमारियों के साथ-साथ संक्रामक बीमारियों के फैलाव और जीवन प्रत्याशा में वृध्दि के कारण बुजुर्गों की बढती संख्या ने स्वास्थ्य के समक्ष नई चुनौतियां प्रस्तुत की है। भौतिकवादी सुख सुविधाओं के प्रसार तथा जीवन शैली में हुए परिवर्तन के कारण किसी जमाने में शहरी बीमारी समझे जाने वाले कैंसर, हृदय रोग, मधुमेह अब ग्रामीणों को भी अपनी चपेट में ले चुके हैं।
यद्यपि भारत ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की है लेकिन अब यह जनसंख्या वृध्दि की तुलना में पिछड़ता जा रहा है। पिछले एक दशक में जनसंख्या में 16% की वृध्दि हुई है जबकि प्रति हजार जनसंख्या में बीमार व्यक्तियों की संख्या में 66%। इस दौरान प्रति हजार जनसंख्या पर अस्पताल में बेडों की संख्या मात्र 5.1% बढी। देश में औसत बेड घनत्व (प्रति हजार जनसंख्या पर बेड की उपलब्धता) 0.86 है जो कि विश्व औसत का एक तिहाई ही है। चिकित्साकर्मियों की कमी और अस्पतालों में व्याप्त कुप्रबंधन के कारण कितने ही बेड वर्ष भर खाली पड़े रहते हैं। इससे वास्तविक बेड घनत्व और भी कम हो जाता है।
स्वास्थ्य सुविधा के उपर्युक्त आंकड़े राष्ट्रीय औसत के हैं। ग्रामीण स्तर पर देखें तो इसमें अत्यधिक कमी आएगी। आंकड़ों के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में जहां देश की 72% जनसंख्या निवास करती है, वहां कुल बेड का 19 भाग तथा चिकित्साकर्मियों का 14 भाग ही पाया जाता है। ग्रामीण स्वास्थ्य उपकेंद्रों, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में चिकित्साकर्मियों की भारी कमी है। इन केंद्रों में 62% विशेषज्ञ चिकित्सकों, 49% प्रयोगशाला सहायकों और 20% फार्मासिस्टों की कमी है। यह कमी दो कारणों से है। पहला जरूरत की तुलना में स्वीकृत पद कम हैं, दूसरे, बेहतर कार्यदशा की कमी और सीमित अवसरों के कारण चिकित्साकर्मी ग्रामीण क्षेत्रों में जाने से कतराते हैं। इससे ग्रामीणों को गुणवक्तायुक्त चिकित्सा सेवा नहीं मिलती और वे निजी क्षेत्र की सेवा लेने के लिए बाध्य होते हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2004 के अनुसार 68% देशवासी सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं को नहीं लेते हैं क्योंकि वे मानते हैं कि यहां ठीक ढंग से इलाज नहीं होगा। सरकारी स्वास्थ्य सेवा की तुलना में अत्यधिक महंगी होने के बावजूद बहुसंख्यक भारतीय निजी चिकित्सालयों की सेवा लेते हैं।
1983 की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति ने चिकित्सा क्षेत्र में निजी भागीदारी को प्रोत्साहित किया। इसके बाद निजी स्वास्थ्य सेवा का तेजी से विस्तार हुआ। आज देश में 15 लाख स्वास्थ्य प्रदाता हैं जिनमें से 13 लाख निजी क्षेत्र में हैं। समुचित मानक और नियम-विनिमय की कमी ने निजी स्वास्थ्य सेवा को पैर फैलाने का अवसर दिया। चूंकि निजी स्वास्थ्य सुविधाएं अधिकतर नगरीय क्षेत्रों में स्थित हैं इसलिए ग्रामीण एवं नगरीय स्वास्थ्य सुविधाओं की खाई और चौड़ी हुई। निजी स्वास्थ्य सेवा इतनी महंगी होती है कि 70% देशवासी उसे वहन करने में सक्षम नहीं होते। यद्यपि सरकार ने विभिन्न प्रकार की स्वास्थ्य बीमा योजनाएं शुरू की हैं लेकिन केवल 12% देशवासी ही स्वास्थ्य बीमा कराते हैं।
महंगी निजी स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण ग्रामीण वर्ग चिकित्सा खर्च के लिए बड़े पैमाने पर कर्ज लेते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के औसतन 41% भर्ती होने वाले और 17% वाह्य रोगी कर्ज लेकर इलाज कराते हैं। इस प्रकार ग्रामीण गरीबी का एक बड़ा कारण सरकारी चिकित्सालयों की अव्यवस्था भी है। इसके लिए चिकित्सा पाठयक्रम भी उत्तरदाई हैं। चिकित्सा पाठयक्रमों में रोगों के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक पहलुओं पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता है। मेडिकल शिक्षा का मुख्य बल इस बात पर रहता है कि बीमारी हो जाने पर उसका इलाज कैसे किया जाय। जो रोग गरीबी की देन हैं उनकी या तो उपेक्षा कर दी जाती है या कामचलाऊ इलाज किया जाता है। उदाहरण् के लिए महिलाओं में खून की कमी या बच्चों के कुपोषण को इलाज इंजेक्शन या विटामिन की गोली से किया जाता है न कि इनके सामाजिक हालात को समझने की कोशिश।
ग्रामीणों को सस्ती और जवाबदेह चिकित्सा सहायता उपलब्ध कराने के लिए 12 अप्रैल 2005 से राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की शुरूआत की गई। इसके तहत प्रतिकूल स्वास्थ्य संकेतक वाले राज्यों पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। मिशन का उद्देश्य समुदाय के स्वामित्व के अधीन पूर्णतया कार्यशील विकेंद्रित स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध कराना है। मिशन स्वास्थ्य सेवाओं पर सकल घरेलू उत्पाद का 2.3% खर्च करना चाहता है जो कि फिलहाल 0.9% है। इस क्षेत्र में केंद्र सरकार अपना बजट बढा रही है लेकिन राज्य सरकारों को भी प्रत्येक वर्ष कुल बजट का कम से कम 10% खर्च करना होगा। वर्तमान समय में स्वास्थ्य के क्षेत्र में केंद्र और राज्य सरकार के खर्च करने का अनुपात 80:20 है। केंद्र सरकार इसे 60:40 तक लाना चाहती है। समग्रत: ग्रामीण भारत में स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्धता तभी बढेग़ी जब बिजली, सड़क, संचार की सुविधाएं बढे, मेडिकल पाठयक्रमों को ग्रामीणोनमुखी बनाया जाए और स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकारी निवेश बढे।
यद्यपि भारत ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की है लेकिन अब यह जनसंख्या वृध्दि की तुलना में पिछड़ता जा रहा है। पिछले एक दशक में जनसंख्या में 16% की वृध्दि हुई है जबकि प्रति हजार जनसंख्या में बीमार व्यक्तियों की संख्या में 66%। इस दौरान प्रति हजार जनसंख्या पर अस्पताल में बेडों की संख्या मात्र 5.1% बढी। देश में औसत बेड घनत्व (प्रति हजार जनसंख्या पर बेड की उपलब्धता) 0.86 है जो कि विश्व औसत का एक तिहाई ही है। चिकित्साकर्मियों की कमी और अस्पतालों में व्याप्त कुप्रबंधन के कारण कितने ही बेड वर्ष भर खाली पड़े रहते हैं। इससे वास्तविक बेड घनत्व और भी कम हो जाता है।
स्वास्थ्य सुविधा के उपर्युक्त आंकड़े राष्ट्रीय औसत के हैं। ग्रामीण स्तर पर देखें तो इसमें अत्यधिक कमी आएगी। आंकड़ों के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में जहां देश की 72% जनसंख्या निवास करती है, वहां कुल बेड का 19 भाग तथा चिकित्साकर्मियों का 14 भाग ही पाया जाता है। ग्रामीण स्वास्थ्य उपकेंद्रों, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में चिकित्साकर्मियों की भारी कमी है। इन केंद्रों में 62% विशेषज्ञ चिकित्सकों, 49% प्रयोगशाला सहायकों और 20% फार्मासिस्टों की कमी है। यह कमी दो कारणों से है। पहला जरूरत की तुलना में स्वीकृत पद कम हैं, दूसरे, बेहतर कार्यदशा की कमी और सीमित अवसरों के कारण चिकित्साकर्मी ग्रामीण क्षेत्रों में जाने से कतराते हैं। इससे ग्रामीणों को गुणवक्तायुक्त चिकित्सा सेवा नहीं मिलती और वे निजी क्षेत्र की सेवा लेने के लिए बाध्य होते हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2004 के अनुसार 68% देशवासी सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं को नहीं लेते हैं क्योंकि वे मानते हैं कि यहां ठीक ढंग से इलाज नहीं होगा। सरकारी स्वास्थ्य सेवा की तुलना में अत्यधिक महंगी होने के बावजूद बहुसंख्यक भारतीय निजी चिकित्सालयों की सेवा लेते हैं।
1983 की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति ने चिकित्सा क्षेत्र में निजी भागीदारी को प्रोत्साहित किया। इसके बाद निजी स्वास्थ्य सेवा का तेजी से विस्तार हुआ। आज देश में 15 लाख स्वास्थ्य प्रदाता हैं जिनमें से 13 लाख निजी क्षेत्र में हैं। समुचित मानक और नियम-विनिमय की कमी ने निजी स्वास्थ्य सेवा को पैर फैलाने का अवसर दिया। चूंकि निजी स्वास्थ्य सुविधाएं अधिकतर नगरीय क्षेत्रों में स्थित हैं इसलिए ग्रामीण एवं नगरीय स्वास्थ्य सुविधाओं की खाई और चौड़ी हुई। निजी स्वास्थ्य सेवा इतनी महंगी होती है कि 70% देशवासी उसे वहन करने में सक्षम नहीं होते। यद्यपि सरकार ने विभिन्न प्रकार की स्वास्थ्य बीमा योजनाएं शुरू की हैं लेकिन केवल 12% देशवासी ही स्वास्थ्य बीमा कराते हैं।
महंगी निजी स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण ग्रामीण वर्ग चिकित्सा खर्च के लिए बड़े पैमाने पर कर्ज लेते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के औसतन 41% भर्ती होने वाले और 17% वाह्य रोगी कर्ज लेकर इलाज कराते हैं। इस प्रकार ग्रामीण गरीबी का एक बड़ा कारण सरकारी चिकित्सालयों की अव्यवस्था भी है। इसके लिए चिकित्सा पाठयक्रम भी उत्तरदाई हैं। चिकित्सा पाठयक्रमों में रोगों के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक पहलुओं पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता है। मेडिकल शिक्षा का मुख्य बल इस बात पर रहता है कि बीमारी हो जाने पर उसका इलाज कैसे किया जाय। जो रोग गरीबी की देन हैं उनकी या तो उपेक्षा कर दी जाती है या कामचलाऊ इलाज किया जाता है। उदाहरण् के लिए महिलाओं में खून की कमी या बच्चों के कुपोषण को इलाज इंजेक्शन या विटामिन की गोली से किया जाता है न कि इनके सामाजिक हालात को समझने की कोशिश।
ग्रामीणों को सस्ती और जवाबदेह चिकित्सा सहायता उपलब्ध कराने के लिए 12 अप्रैल 2005 से राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की शुरूआत की गई। इसके तहत प्रतिकूल स्वास्थ्य संकेतक वाले राज्यों पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। मिशन का उद्देश्य समुदाय के स्वामित्व के अधीन पूर्णतया कार्यशील विकेंद्रित स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध कराना है। मिशन स्वास्थ्य सेवाओं पर सकल घरेलू उत्पाद का 2.3% खर्च करना चाहता है जो कि फिलहाल 0.9% है। इस क्षेत्र में केंद्र सरकार अपना बजट बढा रही है लेकिन राज्य सरकारों को भी प्रत्येक वर्ष कुल बजट का कम से कम 10% खर्च करना होगा। वर्तमान समय में स्वास्थ्य के क्षेत्र में केंद्र और राज्य सरकार के खर्च करने का अनुपात 80:20 है। केंद्र सरकार इसे 60:40 तक लाना चाहती है। समग्रत: ग्रामीण भारत में स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्धता तभी बढेग़ी जब बिजली, सड़क, संचार की सुविधाएं बढे, मेडिकल पाठयक्रमों को ग्रामीणोनमुखी बनाया जाए और स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकारी निवेश बढे।
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