सिंह
बुधवार, २८ अप्रैल २०१०
नक्सलवाद की पृष्ठभूमि को देखें तो यह आन्दोलन पश्चिम बंगाल में शुरू हुआ| फिर इसमें बहुत उतार चढ़ाव आए| चारू मजुमदार और कानू सान्याल के दौर में भूमि सुधार एक अहम् मुद्दा था मगर बाद में जैसे जैसे इस आन्दोलन में हिंसक गतिविधियाँ बढ़ती गयीं यह आन्दोलन पूरी तरह से भटक गया और जो सर्वहारा के हित का मुद्दा था वह गौण हो गया| इसी मुद्दे पर जबकि सन कुछ शुरू हुआ था| हिंसा ने पूरे परिदृश्य को बदल कर रख दिया| इसी वजह से यह रास्ता गलत साबित हुआ|
इसके बाद पिछले तीन दशक दीगर राजों में नक्सलवाद ने पाँव पसारे| मसलन आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार और छत्तीसगढ़(तब मध्य प्रदेश)| इसे मैं आन्दोलन तो नहीं कहूंगा , यह आन्दोलन भटक कर किन हाथों में पहुच गया यह देखा जाना चाहिए| जिस गरीब और सर्वहारा के हित की बात की गयी उसी गरीब को हथियार और ढाल के रूप में इस्तेमाल किया गया| गरीब का ही शोषण किया गया जबकि वे दावा करते थे कि वे गरीबों को रक्षक हैं| जंगल और पुलिस के अफसरों को लूटने वाले लोग चंदे के बल पर पलने लगे| उन्होंने सब्जबाग दिखाए तो लोगों ने भरोसा किया मगर वह भी जाता रहा| अब वे डर और आतंक के साथ लोगों को जोड़ने के प्रयास में लगे हैं| यह मोहभंग की स्थिति आनी ही थी क्योंकि जो रास्ता है हिंसा का वह वह रास्ता ही गलत है| इसकी प्रतिक्रिया भी जबरदस्त रूप से सामने आई| छत्तीसगढ़ में लोग शान्ति के लिए उठ खड़े हुए|
जो लोग दुनिया को 18वीं सदी में धकेलने का अपराध कर रहे हैं ,विकास के सभी रास्तों पर बारूदी सुरंग बिछा चुके हैं, स्कूल भवन,अस्पताल,सड़क को नहीं बख्श रहे हैं उनके खिलाफ जनता खडी होगी ही| नक्सलवाद को पुचकारने वालों के लिए पिछले तीन दशक बेशक अच्छे रहे होंगे मगर आने वाले समय में क्या हालात बन रहे हैं - यह भी जरूर देखा जाना चाहिए| आज देश भर में हिंसा की जबरदस्त निंदा हो रही है| सवाल रास्ते का है- आप किस रास्ते से सत्ता चाहते हैं? गणतंत्र के रास्ते से या गनतंत्र के रास्ते से? यह देश कभी भी हिंसक नहीं रहा और गोली की बजाय बोली के जरिये बड़े-बड़े परिवर्तन होते रहे हैं| कम से कम छत्तीसगढ़ में तो आने वाले समय में शान्ति बहाल होगी ही| देश के अन्य हिस्सों में भी नक्सली बर्बरता को रास्ता बदलना ही होगा|
इन दिनों उठ रही सेना के इस्तेमाल संबंधी मांग को लेकर मैं यह कहना चाहूँगा कि फिलहाल इसकी जरुरत नहीं लगती है| मेरी राय है कि स्थानीय पुलिस, स्थानीय जनता और केन्द्रीय बालों के माध्यम से बेहतर तरीके से काम किया जाए तो मैं समझता हूँ कि सेना की जरुरत नहीं पड़ेगी|
इन दिनों दंतेवाडा पर ख़ास फोकस है| नक्सलियों ने एक खास रणनीति के तहत दंतेवाडा (बस्तर) को चुना है| एक तरफ आंध्र प्रदेश लगा है दूसरी तरफ उड़ीसा है और तीसरा हिस्सा महाराष्ट्र को छूता है| इस इलाके को सुरक्षित क्षेत्र मान कर नक्सली अपने टेनिंग कैम्प चला रहे थे| उन्होंने पक्के ठिकाने बना लिए | भौगोलिक कारणों से वे इसे अभ्यारण्य समझते रहे हैं| घने जंगलों में उनको छुपने में मदद मिलती रही है| एक प्रकार से वे फ्यूचर जों के रूप में इसे डिवेलप कर रहे थे| वे वहाँ हथियार बना रहे थे| अब सुरक्षा बल वहाँ दबिश दे रहे हैं तो नक्सलियों की प्रतिक्रिया को सहज ही समझा जा सकता है|
इस क्षेत्र को विकास और सुरक्षा के लिहाज से विशेष तौर पर रेखांकित किया जाना चाहिए| इसकी पहल शुरू हो चुकी है| इस इलाके को आपदाग्रस्त करने जैसी मांगों का कोई औचित्य मुझे नजर नहीं आता| राज्य सरकार ने इलाके के विकास को प्राथमिकता दी है| लोगों को भरोसे में लेने की प्रक्रिया भी शुरू हो चुकी है|
दूसरी तरफ मैं यह भी कहना चाहूँगा कि एक तरफ तो जवान शहीद हो गए और ऐसी खबर आती है कि जे एन यू जैसे शिक्षण संस्थानों में कुछ लोग जश्न मना रहे थे, ऐसी खबरें आई| इसका अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् और एन एस यू आई ने विरोध किया| ऐसी हरकत मानसिक दिवालिएपन की पराकाष्ठा है| वास्तव में लड़ाई लोकतंत्र की है| हिंसा और आतंक के रास्ते से कतई परिवर्तन नहीं हो सकता| जिस चीन का उदाहरण दिया जाता है तो यह भी देख लिया जाना चाहिए कि चीन में भी स्वरुप आज बदल चुका है| मेरा स्पष्ट मानना है कि बर्बरता से किसी का भी भला नहीं हो सकता है| (छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा.रमन सिंह से बातचीत पर आधारित/राष्ट्रीय सहारा-हस्तक्षेप के लिए)
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