Wednesday, December 1, 2010

चल रही है देशभक्ति को कुचलने की साजिश

चल रही है देशभक्ति को कुचलने की साजिश



- जयकृष्ण गौड़
एक टी.वी. चैनल यूरोप के देशों में इस्लाम के खिलाफ अभियान चलाने के समाचार प्रसारित कर रहा था। शीर्षक था, ‘यूरोप में इस्लाम का डर’। उसमें बताया गया कि फ्रांस में बुर्का पहनने पर बंदिश लगा दी गई है, हॉलैंड, पोलैंड, स्वीट्जरलैंड आदि देशों में मीनारे बनाने पर प्रतिबंध लगा दिया है। जर्मनी में ऐसे चांसलर चुने गये है, जो इस्लाम के कट्टर विरोधी है। इस बारे में बहस भी हुई मुस्लिम विद्वान कह रहे थे कि यूरोप में राष्ट्रवाद है, वहां अल्पसंख्यकों को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। रूस के चेचन्या में हाल ही में वहां के निर्वाचित सदन पर हमला किया। अमेरिका 9/11 के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले की समीक्षा अभी तक कर रहा है। एक एजेन्सी ने तो यहां तक कहा है कि 9/11 के हमले में तीस हजार लोग मारे गये है। ब्रिटेन भी इस्लामी आतंकवाद से घबराया हुआ है। अफगानिस्तान तालिबानियों से जूझ रहा है। पाकिस्तान की सत्ता पर तालीबानी काबिज होना चाहते है, वहां रोज खून-खराबा हो रहा है।
भारत में इस्लामी आतंकवाद के घाव गहरे है, संसद से लेकर विधानसभा और मंदिरों से लेकर गांवों में आतंकी दरिन्दे हिंसा की आग लगा चुके है। कश्मीर जो भूमि का स्वर्ग माना जाता था, वहां केशर की क्यारियां मानव खून से लाल हो चुकी है। सन् 1947 के अंत में पाकिस्तान की ओर से कबाइलियों ने श्रीनगर पर काबिज होने के लिए हमला किया था भारतीय सेना ने उन्हें खदेड़ना प्रारंभ किया। तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. नेहरू की राष्ट्रघाती नीतियों के कारण यह मामला राष्ट्र संघ के चार्टर में उलझा दिया। 1947 से लेकर अभी तक कश्मीर हिंसा की आग में जल रहा है, हजारों लोग मारे जा चुके है। कश्मीर घाटी में हिन्दुओं पर बर्बर अत्याचार हुए, कई निर्दोषों की हत्या कर दी गई। हिन्दू पंडितों को घर-बार छोड़कर पलायन के लिए बाध्य होना पड़ा। वर्तमान हिन्दू पंडित जम्मू, दिल्ली में शरणार्थी जीवन बीता रहे हैं। उन्हें कश्मीर घाटी में पुन: बसाने की बात होती है, लेकिन कोई सुरक्षा की गारंटी देने को तैयार नहीं होते। इस संदर्भ में हाल ही में हुई घटना का संदर्भ दिया जा सकता है। राजधानी दिल्ली के मंडी हाउस मे हुर्रियत कांफ्रेस जो कश्मीर को पाकिस्तान के चंगुल में देने की मांग करती है, जिसके नेता सैय्यद अली शाह गिलानी भारत के खिलाफ जहर उगलते है, उन्हें बोलने का अवसर दिया गया। देश की राजधानी में देशद्रोही को बोलने का मंच मिले, यह किसी भी देशभक्त को बर्दाश्त नहीं हो सकता। कश्मीर के हिन्दू पंडित जो निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे है, जिन्हें अपनी संस्कृति व अपनी मातृभूमि से अटूट लगाव है, उन्हें यह बर्दाश्त नहीं हुआ।
कश्मीरी पंडितों का समूह, जिनमें महिलाएं भी थी, वंदे मातरम, भारत माता की जय का उद्घोष करते हुए देशद्रोही गिलानी का विरोध करने पहुंच गया। गिलानी की सभा में हुल्लड़ हो गया और वे भारत के खिलाफ जहर नहीं उगल सके। भारत की विडंबना यह है कि दूसरे देश देशद्रोहियों को जिन्दा रहने का अधिकार नहीं देता, हमारे यहां देशद्रोहिता को संरक्षण दिया जाता है, अफजल गुरू और 26/11 को मुबई में हुए मुस्लिम आतंकियों के हमले में लोगों को गोलियों से भूनता हुआ कसाब पकड़ा गया। ये आज जेलों में गुलछर्रे उड़ा रहे है। कश्मीर घाटी जो जम्मू कश्मीर राज्य एक भाग है, वहां के अलगाववादियों को संतुष्ट करने की पहल हो रही है। सेना के मनोबल को तोड़ने वाली बातें कहीं जाती है। बार-बार उन्हीं से बाते की जाती है जो देश की अखंडता को चुनौती देते है। इस बात की चर्चा मीडिया में अधिक हुई कि दिल्ली में देशद्रोही गिलानी पर कश्मीरी पंडितों ने जूता फैंका, जो उन्हें नहीं लगा। जो देशद्रोही है वे न केवल जूते के बल्कि गोली के लायक ही होते है। इसलिए चाहे सरकार अपने वोट के स्वार्थ के लिए देशद्रोही तत्वों को गले लगाये लेकिन देशभक्त जनता, ऐसे तत्वों को बर्दाश्त नहीं कर सकती, करना भी नहीं चाहिए। यूरोप के देशों में मीनार बनाने पर बंदिश लगा दी गई है, इसका अर्थ यह हुआ कि वहां इस्लामी अवधारणा के अनुकूल मस्जिद नहीं बन सकती, यदि कोई बनाता है तो उसे नष्ट कर दी जाती है, वहां इस्लाम के कानून नहीं देश के कानून चलते है। फ्रांस में बुर्के पर प्रतिबंध कानून के द्वारा लगाया गया है। वहां के कट्टरपंथी इस्लाम के नाम पर विरोध करने की हिम्मत नहीं दिखा सकते। अब तो जर्मन, फ्रांस आदि यूरोपिय देशों में इस्लाम का विरोध राजनैतिक मुद्दा बन गया है, जो इस्लामिक आतंक का विरोध करे, उसे जनता अधिक पसंद करने लगी है। यह भी सच्चाई है कि यूरोप के देश अल्पसंख्यकवाद को पसंद नहीं करते, वहां के अल्पसंख्यकों को चाहे वे मुस्लिम या बौध्द हो उन्हें वहां के बहुसंख्यकवादी सभ्यता के ढांचे में ही रहना पड़ता है।
यह भी तर्क दिया जाता है कि ईसाई देश मुस्लिम कट्टरता को बर्दाश्त नहीं करते, वहां राष्ट्रवादी कट्टरता है। दुनिया के इतिहास को समझकर यही निष्कर्ष निकलेगा कि भारत ही ऐसा देश है जिसका चरित्र उदार, सहिष्णु और सबको साथ लेकर चलने का है। हमारी संस्कृति की पाचन शक्ति इतनी अधिक है कि विपरित परिस्थितियों में भी जो संपर्क में आया वह संस्कृति के सागर में समा गया। हमारी मान्यता रही है कि धर्म किसी एक पुस्तक या किसी एक आस्था में कैद नहीं रह सकता। धर्म के विराट स्वरूप में अग्नि भी है और शीतलता भी है।
मानवीय मूल्यों पर आधारित राष्ट्रीय चरित्र को नष्ट-भ्रष्ट करने की जो साजिश करते है, उन्हें हम क्यों बर्दाश्त करें? अल्पसंख्यकों को संरक्षण देना राज्य का दायित्व है लेकिन अल्पसंख्यक या इस्लाम के नाम पर देशद्रोहिता को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। यदि देशद्रोही तत्व बम-गोली की भाषा समझते है तो हमें उन्हें उसी भाषा में समझाना होगा। हमारे यहां तो ‘उलटा चोर कोतवाल को डांटे’ जैसी स्थिति बन रही है। राष्ट्रद्रोहियों का तुष्टीकरण और देशभक्तों को कुचलने और प्रताड़ित करने की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई है। अजमेर और मालेगांव विस्फोट में देशभक्तों को सुनियोजित साजिश के साथ फंसाया जा रहा है। ताजा समाचार है कि राजस्थान के आतंक विरोधी दस्ते (एटीएस) ने संघ के वरिष्ठ प्रचारक इंद्रेशजी के खिलाफ अजमेर विस्फोट के मामले में नोटिस दिया है।
इंद्रेश जी से इस कलम का सम्पर्क रहा है, वे राष्ट्रवादी मुस्लिम अभियान के प्रणेता रहे, हिमालय परिवार और राष्ट्रीय सुरक्षा के अभियान का नेतृत्व कर रहे हैं। जिन्होंने राष्ट्र के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। ऐसे देशभक्त प्रचारक के खिलाफ नामजद मामला दायर करने से यही जाहिर होता है कि देशभक्तों के खिलाफ साजिश चल रही है। इस साजिश को न केवल असफल करना है, बल्कि बर्दाश्त भी नहीं किया जा सकता। यदि सरकार अपने निहित वोट के स्वार्थ के कारण देशभक्तों को प्रताड़ित करने और उन्हें फंसाने को कुचक्र चलाती है तो इसका करारा उत्तर जनता को ही देना होगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और अन्य हिन्दू संगठनों को कटघरे में खड़ा करने की साजिश प्रारंभ हो गई है। हो सकता है कि विदेशी मूल की सोनिया गांधी के नेतृत्व में चलने वाली सरकार भी उसी तानाशाही रास्ते का अनुसरण करे जिस पर इंदिरा जी चली थी। यह देशभक्ति और राष्ट्रघाती विचारों का संघर्ष है, जिसमें राष्ट्र के अस्तित्व के लिए देशभक्ति को विजयी होना है। अन्यायी और दमनकारी कानून की अवज्ञा केवल उचित ही नहीं, विशिष्ट परिस्थितियों में कर्तव्य रूप होती है – महर्षि अरविन्द।
* लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं ‘चरैवेति’ के सम्पादक

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