*श्री लिंग पुराण अध्याय – १२२:--*
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*सूतजी बोले - हे मुनीश्वरो! अब मैं जीवत श्राद्ध विधि को संक्षेप से कहूँगा।*
*जो ब्रह्माजी ने पूर्व में मनु, वशिष्ठ, भृगु आदि के लिये कही है। वह सर्व सिद्धि करने वाली है। उसे आप लोग श्रवण करें।*
*पर्वत पर, नदी के किनारे वन में अथवा आयतन (घर) में मरण समय में जीवत श्राद्ध करना चाहिए।*
*_जीवत श्राद्ध करने पर जीता हुआ ही मुक्त हो जाता है।_*
*चाहे वह कर्म करे अथवा न करे, ज्ञानी हो अथवा अज्ञानी हो, वेदपाठी होया अवेद पाठी हो, ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य सभी मुक्त हो जाते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं।*
*जैसे योगी योग मार्ग के द्वारा मुक्त होता है, वैसे ही जीवत श्राद्ध वाला मुक्त होता है।*
*भूमि की परीक्षा करके उसे शुद्ध करे।*
*बालू का स्थण्डल बनावे उसके बीच में एक हाथ का कुण्ड बनावे अथवा बाण के बराबर का कुण्ड बनावे।*
*विधान के द्वारा गौ के गोबर से वेदी के स्थान को लीप कर तथा धूप, दीप आदि से वेदी के स्थान को सुगन्धित करे*
*तथा विभिन्न-विभिन्न प्रकार के मंगल द्रव्यों से सुशोभित करके अग्नि की स्थापना करे।*
*कुशाओं का परिस्त्रण करके स्थण्डल पर अग्नि का पूजन करके समिधाओं का हवन करे।*
*पूर्व में समिधाओं का बाद में अलग-अलग चरुओं का हवन करे।*
*हवन के मन्त्र नीचे लिखे अनुसार हैं:-*
ॐ भू ब्रह्मणे नमः॥ ॐ स्व रुद्राय स्वाहा।। ॐ महः ईश्वराय नमः ॥ ॐ महः ईश्वराय स्वाहा॥ ॐ जनः प्रकृतये नमः॥ ॐ जनः प्रकृत्यै स्वाहा ॥ ॐ तपः मुद्गलाय नमः । ॐ मुग्दलाय स्वाहा।।ॐ ऋतं पुरुषाय नमः ॥ ॐ ऋतं पुरुषाय स्वाहा॥ॐसत्य शिवाय नमः।। ॐ सत्यं शिवाय स्वाहा॥
ॐ शर्व! धरों मे गोपाय घ्राणे गन्धं शर्वय देवाय भूनमः।।
ॐ शर्व! धरौं मे गोपाय घ्राणे गन्धं शर्वय भूः स्वाहा॥
ॐ शर्व! धराँ मे गोपाय घ्राणे गन्धं शर्वस्य देवस्य पल्यै भूनमः॥
ॐ शर्व! धरों मे गोपाय घ्राणे गन्धं शर्व पल्यै भू स्वाहा॥
ॐ भव! जलं मे गोपाय जिह्वायां रसम्भवाय देवाय भुवा नमः॥
ॐ भव! जलं मे गोपाय जिह्वायां रसम्भवाय देवाय भुवः स्वाहा।
ॐ भव!जलं मे गोपाय जिह्वायां रसम्भवस्य देवस्य पल्यै भुवो नमः॥
ॐ भव! जलं मे गोपाय जिह्वायां रसम्भवस्य पल्यै भुवः स्वाहा॥
ॐ रुद्राग्नि मे गोपाय नेत्रे रूपं रुद्राय स्वरो नमः ।।
ॐ रुद्राग्नि मे गोपाय नेत्रे रूपं रुद्रस्य देवस्य पत्न्यै स्वः स्वाहा।
ॐ उग्र! वायु मे गोपाय त्वचि स्पर्शम् उग्राय देवाय महर्नमः॥
ॐ उग्र! वायु मे गोपाय त्वचि स्पर्शम् उग्राय देवाय महः स्वाहा॥
ॐ उग्र! वायुमै गोपाय त्वचि स्पर्शम् उग्रस्य देवस्य पत्न्यै महरों नमः॥
ॐ उग्र! वायु मे गोपाय त्वधि स्पर्शम् उग्रस्य देवस्य पल्यै महः स्वाहा।
ॐ भीम! सुषिरं मे गोपाय श्रोन्ने शब्दं भीमाय देवाय जनो नमः॥
ॐ भीम! सुषिरं मे गोपाय श्रोत्रे शब्दं भीमाय देवाय जनः स्वाहा॥
ॐ भीम! सुषिरं मे गोपाय श्रोत्रे शब्दं भीमस्य देवस्य पल्यै जनो नमः॥
ॐ भीम! सुधिर मे गोपाय श्रोत्रे शब्दं भीमस्य देवस्य पन्यै जनः स्वाहा ॥
इत्यादि.... तथा ॐ भूः स्वाहा। ॐ भुवः स्वाहा। ॐ स्वः स्वाहा ॥ ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा।
*इस प्रकार मन्त्रों से हवन करके सातवें दिन योगीन्द्रों को जो श्राद्ध के योग्य हों उन्हें भोजन करावे।*
*ब्राह्मणों के लिए वस्त्र, आभूषण, शैय्या, काँस पात्र, ताम्र पात्र, सुवर्ण पात्र, चाँदी के पात्र, धेनु, तिल, खेत, दासी, दास तथा दक्षिणा आदि प्रदान करनी चाहिये।*
*पहली तरह पिण्ड को आठ प्रकार से देना चाहिये।*
*हजार ब्राह्मणों को दक्षिणा सहित भोजन कराना चाहिए।*
*योग में तत्पर भस्म लगाये हुए जितेन्द्रिय योगी को तीन दिन तक महाचरु निवेदन करना चाहिए।*
*मरने पर करे या न करे, वह तो जीवित ही मुक्त है।*
*नित्य नैमित्तिक कार्यों को बान्धव के मरने पर नहीं त्यागना चाहिए क्योंकि उसे शौचाशौच नहीं लगता।* उसका सूतक (जन्म या मरण के कारण लगने वाली छूत) स्नान मन्त्र से ही शुद्ध होता है।*
*अपनी स्त्री में पुत्र के उत्पन्न होने पर उसका भी सर्व कर्म ऐसे ही करना चाहिए क्योंकि वह पुत्र भी ब्रह्म के समान होता है।*
*यदि कन्या उत्पन्न होगी तो वह अपर्णा के समान होगी। उसके वंशज सब मुक्त हो जायेंगे। नर्क से सब पितर मुक्त हो जायेंगे।*
*इस प्रकार यह सब ब्रह्मा जी ने पूर्व में मुनियों से कहा था। सनत्कुमार ने श्री कृष्ण द्वैपायन से इसको कहा और वेदव्यास से मैंने सुना।*
*सो मैंने अति गोपनीय और कल्याणप्रद रहस्य तुमसे कहा। इसे मुनि पुत्र और भक्त को देना चाहिए,*
*अभक्त को नहीं देना चाहिए।*
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