Thursday, June 10, 2021

राष्ट्रद्रोह / आदित्य रहबर

 राष्ट्रद्रोह  / आदित्य रहबर 

🔵🔵🔵


जुबान बंद है समय की काल कोठरी में 

बोलना सहारा रेत के मैदान में 

कुआँ खोदने जैसा है 


कुछ जबानें जो अभी भी धारदार हैं

उन्हें राख लगाकर जबरन खींचा जा रहा है 

ये राख राष्ट्रवाद के हैं 

जिसमें राष्ट्र दूर-दूर तक नहीं दिखता 

सिर्फ़ मवाद भरा है इसमें 

जो घाव बनकर अब रिस रहा है


चुप रहना देशभक्त की वर्तमान पहचान है 

हाँ में हाँ मिलाना बौद्धिकता की पराकाष्ठा मानी जा रही है 

अखबारों के संपादकीय पृष्ठ गवाह हैं 

की अब सरकार राष्ट्र है 


मैं ढूंढ़ रहा हूँ 'सच'  कितने दिनों से,अखबारों के एक-एक पन्नों में

"सच छुट्टी पर गया है " ऐसा अखबार ने बताया 

कब लौटेगा तारीख न कोई समय बताया!  


अभिव्यक्ति किताबों के पन्नों पर 

बिन पानी मछली जैसी हो गई है 

अधिकारें तारों की तरह टिमटिमाते हैं दूर से 

संविधान चूल्हे पर जल रही भात की तरह हो गया है 

जिससे एक अजीब-सी बू आ रही है 


दरअसल __

वो भात नहीं हमारी आकांक्षाएं हैं 

और चूल्हा जनतंत्र का है 

जिससे आने वाली बू पूंजीवादी व्यवस्था की है


जिसके दुर्गंध ने नाक, मुँह और आँख तक बंद करने को मजबूर कर दिया है 

अफसोस!  कान खुली है 

जिससे भूख से मरते लोगों की चीखें, बेरोजगार युवकों का रोना 

सुनाई देता है 

और न चाहते हुए भी,हम बोल उठते हैं 

आँखें आतुर हो जाती है देखने को 

फिर हम राष्ट्रद्रोही करार दे दिए जाते हैं 


सच बोलना राष्ट्रद्रोह है,तो मैं हूँ राष्ट्र द्रोही 

नहीं रहा जाता मुझसे चुप 

वो चीखें सुनकर मेरे कान फटते हैं 

मुझे बेरोजगारों का बदहवास चेहरा देखकर घुटन होती है 

अगर मैं न बोलूं तो भी घुटकर मर जाऊंगा 

जबकि मरना है मुझे मालूम है 

तो मैं चाहता हूँ कि बोलकर मरूं 

मेरी आत्मा को ना बोलने का मलाल तो न रहेगा!  


🔹आदित्य रहबर

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