Sunday, June 6, 2021

कविता न समझियो, बस 'दिल दी गल' है:/ उर्मिलेश

 कविता न समझियो, बस 'दिल दी गल' है:/ उर्मिलेश 


वो बिल्कुल अंत में निकलेगा

मुस्कुराते और हाथ हिलाते

जब बेहाल जनता उसे यह मानने को मजबूर कर देगी कि वह जीत भी सकता है

जनता बेचारी करे क्या

इस समर में वह अकेली पड़ गयी है

इतने बडे राजनीतिक-भूगोल में 

नहीं हैं उसे 'लीड' करने वाले 

उसके दुख-दर्द को समझने वाले

एक तरफ़ है

निरंकुशता का आतंक

प्रचंड अज्ञान और अंधविश्वास का खतरनाक अंधेरा

दूसरी तरफ हैं दो सोये हुए महल और आलीशान बंगले

दलित और पिछड़ो के स्वघोषित 'राजे-महराजे'

दोनों हैं अपने-अपने दौलतखाने के रखवाले

धन का तंत्र है 

इसलिए अपने जनतंत्र में 

जनता के पास इससे ज्यादा विकल्प नहीं 

बीत गये दशकों 

कहां कोई नया नहीं उभरा

कोशिशें तो अर्जको-बहुजनो ने खूब की

दो बड़ी संभावनाओं ने लिये आकार भी

पर टिकाऊ नहीं रहे प्रयोग 

कहते हैं जहाँ कोई बड़ा सामाजिक आंदोलन नहीं होता

वहां कोई गुणात्मक रूप से अलग

नया राजनैतिक नेतृत्व भी नहीं उभरता

इसलिए जनता दशकों से तबाह है

चारों तरफ आह ही आह है

गोमती क्या कहेगी

गंगा तक गवाह है

पर उन्हें देखिये

दोनों अभी तक बंद हैं 

एक अपने शाही महल में 

दूसरा अपने आलीशान बंगले में 

एक ने अपना एजेंडा साफ कर दिया है

सड़क और जनता की राजनीति भटकाव है

फालतू और बेमतलब है

दूसरे वाले के लिए राजनीति महज उत्तराधिकार है

सत्ता और सियासत के जरिये खड़े वैभव का विस्तार है

अपने 'साम्राज्य' का संरक्षण ही सरोकार है

ऐसे में जनता क्या करे तो करे

वह लड़े और जूझे जा रही है

वही लुटती है, वही मरती है, वही पिटती है

इसके अलावा उसके पास कोई विकल्प नहीं

अपना लोकतंत्र भी क्या चीज है

लोक के साहस और बदलाव के ज़ज्बे के बावजूद 

न सुसंगत राजनीति उभरती है और न समझदार नेता

उत्तर और दक्षिण का यही फर्क है

उनके पास श्री नारायण गुरु थे, अय्यंकली थे, पेरियार और अन्ना दुरै थे

सामाजिक सुधार आंदोलन की लहरों के बीच से उभरा है उनका वाम, मध्य या सामाजिक न्याय

आपका क्या

कबीर, रैदास और दादू के बाद सूख गयी वो धारा 

जो बन सकती थी बड़े सामाजिक आंदोलन की प्रेरक 

फिर सुसंगत नेतृत्व कहां से आता

राजाओं और सामंतों की बग्गियां हांकने वाले  

बजाते रहे सिर्फ घंटा

आते रहे टुटपूंजिये, बकलोल और  मक्कार 

भरते रहे अपने घर और महल

बेहाल होती रही जनता

मैं कवि धूमिल का बहुत प्रशंसक या प्रेमी नहीं

पर उनकी वो लाइनें कुछ कहने की 

कोशिश जरूर करती हैं--

"--हां हां मैं कवि हूं 

भदेस हूं 

इस कदर कायर हूं

कि उत्तर प्रदेश हूं.

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