*गुप्तदान*
कई वर्षों पहलेकी बात है। राजस्थानमें भीषण अकाल था। गौओंकी बड़ी दुर्दशा थी। उस समय गीताप्रेसकी ओरसे राजस्थानमें स्थान स्थानपर सहायताका काम हो रहा था। रतनगढ़में मैं काम देख रहा था। एक दिन दोपहरको अपनी बैठकमें अकेले बैठे डाक देख रहा था कि वहाँ एक सज्जन, जो बहुत सम्पन्न जिनका बंगालमें बड़ा कारोबार था, बड़े दानी थे, पर जो अपने लिये व्यय करने में बड़े ही अनुदार थे, घुटनोंतककी धोती, एक कमरी तथा सिरपर पगड़ी, जाड़ेमें एक बीकानेरी कम्बल- यही उनकी पोशाक थी। वे रिश्तेमें मेरे मामा लगते थे- आये। मैंने प्रणाम करके आनेका कारण पूछा—उनके हाथमें कागजका एक छोटा-सा पुलिंदा था, उसे मेरे हाथमें देते हुए बोले- ले भैया! ये दस हजार रूपयेके नोट हैं। इस समय तू अकेला मिलेगा, इसीसे दुपहरीमें आया हूँ। इनको गायोंकी सेवामें लगा देना, पर देखना, कहीं मेरा नाम न आने पाये। भगवान् की चीज भगवान् की सेवामें लगे, इसमें देनेवाले किसी दूसरेका नाम क्यों आना चाहिये? मैंने मुस्कराते हुए नोट ले लिये। मैं जानता था मामाजीकी गुप्तदानकी क्रियाको। इस प्रकार प्रचुर धनका ये दान करते थे। जगह-जगह कुएँ-तालाबोंकी मरम्मत कराते थे, नये भी बनवाते थे, पर इनके नामकी जानकारी केवल वहीं होती थी, जहाँ बिना बताये काम चलता नहीं। आज तो दानके नामपर इन्वेस्टमेंट करनेवाले- और दानसे पहले ही समाचारपत्रोंमें समाचार भेज देनेवाले दानी महोदय इससे शिक्षा ग्रहण करें।
पुस्तक
*भाईजी—चरितामृत*
गीतावाटिका प्रकाशन
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