चौथे स्तम्भ के नीचे दब कर सो गया भारत का भविष्य:
इस नन्ही जान की कीमत क्या होगी उसके लिए जो कहने भर के लिए लोकतंत्र कहलाता. काफी दिनों से इस मामर्मिक तस्वीर ने मुझे सोने नहीं दिया. इस तस्वीर का स्त्रोत तो मैं नहीं ढूंड पाया वार्ना यह आज लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ पर कुरेद के गढ़ी गयी होतI। यह नज़ारा हम में से कितनो ने नहीं देखा होगा पर जब तक आँखों देखी या कोई इस दृश्य को तसवीर में उतार कर कहानी न लिख ले तब तक उस बच्चे की क्या कीमत. फोटो तो सब देख के परेशान होंगे और कोहरे के तरह इस दृश्य को अपने दिमाग से निकलने की कोशिश करेंगे। मेरी चिंता इस बच्चे का क्या हुआ होगा बस वही सत्ता रही है और अपना गुस्सा और दर्द आपसे व्यक्त कर रहा हूँ ।
मुझे बस अदम गोंडवी की वो कविता, दिमाग को कचोटती रही :
सौ में सत्तर आदमी फ़िलहाल जब नाशाद है
दिल पे रख के हाथ कहिए देश क्या आज़ाद है
कोठियों से मुल्क के मेआर को मत आंकिए
असली हिंदुस्तान तो फुटपाथ पे आबाद है
जिस शहर में मुंतजिम अंधे हो जल्वागाह के
उस शहर में रोशनी की बात बेबुनियाद है
ये नई पीढ़ी पे मबनी है वहीं जज्मेंट दे
फल्सफा गांधी का मौजूं है कि नक्सलवाद है
यह गजल मरहूम मंटों की नजर है, दोस्तों
जिसके अफसाने में ‘ठंडे गोश्त की रुदाद है
यह बच्चा ज़िंदा है या इस असंवेदनशील समाज की बलि चढ़ गया, यह कौन है, कहाँ से आया और गुमनामी में सो गया. ऐसे कई दृश्य हमारी कठोर नज़रों के सामने से बोझिल हो जाते हैं प्रतिदिन, प्रतिसमय.
इसलिए पाश कहते हैं :
सबसे ख़तरनाक वो आंख होती है
जिसकी नज़र दुनिया को मोहब्बत से चूमना भूल जाती है
और जो एक घटिया दोहराव के क्रम में खो जाती है
सबसे ख़तरनाक वो गीत होता है
जो मरसिए की तरह पढ़ा जाता है
आतंकित लोगों के दरवाज़ों पर
गुंडों की तरह अकड़ता है
सबसे ख़तरनाक वो चांद होता है
जो हर हत्याकांड के बाद
वीरान हुए आंगन में चढ़ता है
लेकिन आपकी आंखों में
मिर्चों की तरह नहीं पड़ता
उस बच्चे को ओढ़ने के लिए इस देश का चौथा लोकतान्त्रिक कहे जाने वाली ओढ़नी ही नसीब हुई पर चौथा स्तम्भ उसको अपने नीचे दबा कर कहाँ बोझिल कर गया अभी तक देखने को नसीब नहीं हुआ और इस सूरतेहाल में शायद यह चौथा स्तम्भ भी इस नन्ही जान को जीवन दान नहीं दे पायेगा — रेड पैंथर
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