वीणा का नियम है, वही जीवन— वीणा का नियम भी है। जीवन के तार बहुत ढीले हों, तो भी संगीत पैदा नहीं होता है और बहुत कसे हों, तो भी संगीत पैदा नहीं होता
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"साधक के लिए पहली सीढ़ी शरीर है। लेकिन शरीर के संबंध में न तो कोई ध्यान है, न शरीर के संबंध में कोई विचार है। और थोड़े समय से नहीं, हजारों वर्षों से शरीर उपेक्षित है। यह उपेक्षा दो प्रकार की है। एक तो उन लोगों ने शरीर की उपेक्षा की है, जिन्हें हम भोगी कहते हैं—जों जीवन में खाने—पीने और कपड़े पहनने के अतिरिक्त और किसी अनुभव को नहीं जानते। उन्होंने शरीर की उपेक्षा की है, शरीर का अपव्यय, शरीर को व्यर्थ खोया है, शरीर की वीणा को खराब किया है।
और वीणा खराब हो जाए तो उससे संगीत पैदा नहीं हो सकता। यद्यपि संगीत वीणा से बिलकुल भिन्न बात है। संगीत बात ही और है, वीणा बात ही और है। लेकिन वीणा के बिना संगीत पैदा नहीं हो सकता। जिन लोगों ने शरीर को उपभोग की दिशा में व्यर्थ किया है, वे एक तरह के लोग हैं। और दूसरी तरह के लोग हैं, जिन्होंने योग की और त्याग की दिशा में भी शरीर के साथ अनाचार किया है। शरीर को कष्ट भी दिया है, शरीर का दमन भी किया है, शरीर के साथ शत्रुता भी की है।
न तो शरीर को भोगने वालों ने शरीर की अर्थवत्ता को समझा है और न शरीर को कष्ट देने वाले तपस्वियों ने शरीर की अर्थवत्ता को समझा है।
शरीर की वीणा पर दो तरह के अनाचार और अत्याचार हुए हैं—एक भोगी की तरफ से, दूसरा योगी की तरफ से। और इन दोनों ने ही शरीर को नुकसान पहुंचाया है। पश्चिम में एक तरह से शरीर को नुकसान पहुंचाया गया है, पूरब में दूसरी तरह से।
लेकिन शरीर की वीणा से ही जीवन का संगीत उत्पन्न हो सकता है। यद्यपि जीवन का संगीत शरीर से बिलकुल अलग बात है; बिलकुल भिन्न और दूसरी बात है, लेकिन शरीर की वीणा के अतिरिक्त उसकी कोई उपलब्धि संभव नहीं है। इस तरफ अब तक कोई ध्यान ठीक से नहीं दिया गया है।
पहली बात है शरीर और शरीर की तरफ साधक का सम्यक ध्यान।
पहली बात शरीर को या तो भोगने की दृष्टि से देखा जाता है या त्यागने की दृष्टि से देखा जाता है। शरीर को साधना का एक मार्ग, और परमात्मा का एक मंदिर, और जीवन के केंद्र को खोज लेने की एक सीढ़ी की तरह नहीं देखा जाता है। ये दोनों ही बातें भूल—भरी हैं।
जीवन में जो भी श्रेष्ठ है और जो भी उपलब्ध करने जैसा है, उस सबका मार्ग शरीर के भीतर और शरीर से होकर ही जाता है।
शरीर की स्वीकृति एक मंदिर की भांति, एक मार्ग की भांति जब तक मन में न हो, तब तक या तो शरीर के हम भोगी होते हैं या शरीर के हम त्यागी होते हैं। और दोनों ही स्थितियों में शरीर के प्रति हमारी भाव—दशा सम्यक, ठीक, संतुलित नहीं होती है।
जो वीणा का नियम है, वही जीवन— वीणा का नियम भी है। जीवन के तार बहुत ढीले हों, तो भी संगीत पैदा नहीं होता है और बहुत कसे हों, तो भी संगीत पैदा नहीं होता है। और जो जीवन का संगीत पैदा करने चला हो, वह पहले देख लेता है कि तार बहुत कसे तो नहीं हैं, तार बहुत ढीले तो नहीं हैं।
और जीवन—वीणा कहां है?
मनुष्य के शरीर के अतिरिक्त कोई जीवन—वीणा नहीं है। मनुष्य के शरीर में कुछ तार हैं, जो न तो बहुत कसे होने चाहिए और न बहुत ढीले होने चाहिए। उस संतुलन में,उस बैलेंस में ही मनुष्य संगीत की ओर प्रविष्ट होता है। उस संगीत को जानना ही आत्मा को जानना है। और जब एक व्यक्ति अपने भीतर के संगीत को जान लेता है, तो वह आत्मा को जान लेता है और जब वह समस्त के भीतर छिपे संगीत को जान लेता है, तो वह परमात्मा को जान लेता है।"
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तीन ही चीजें मुख्य हैं-शरीर,मन और आत्मा।
हम शरीर और आत्मा(बोधस्वरूप अस्तित्व)के बीच में झूलते रहते हैं।वैसे हमारी करीब करीब पूरी निर्भरता शरीर पर होती है।शरीर ठीक तो हम ठीक,शरीर बेठीक तो हम बेठीक।या फिर हम अपने सुख के लिये शरीर का शोषण करते हैं।हम अपनी जिम्मेदारी समझते हैं तो कभी शरीर का शोषण नहीं करेंगे अपितु उसका सदुपयोग करेंगे।यह सदुपयोग समझ से ही संभव है,अहं मम भाव से कभी नहीं।
मैं शरीर हूं या शरीर मेरा है।यह शरीर से संबंध जोडना है।कोई संबंध न जोडा जाय तो एक वस्तु की तरह शरीर का सर्वोत्तम उपयोग होना संभव है।
अपने आपको शरीर मानना माया है,अज्ञान है और घातक भी।सारे दुखों का मूल कारण ही यही है।इसके कारण मन में अहं की मान्यता बन जाती है-गलत अहं की मान्यता,झूठे मैं की मान्यता।
मैं शरीर हूं-यह गलत अहं है।मैं शरीर हूं के साथ मैं सुखी हूं,दुखी हूं,प्रतिष्ठित हूं,गौरवपूर्ण हूं या हैरान,परेशान हूं।
सभी लोग इसी भाषा में सोचते हैं।यह झूठे अहं की भाषा है।यदि सत्य को जानना है,उन्मुक्त-आनंदित रहना है तो इस झूठे अहं से तादात्म्य समाप्त करना चाहिए।
आप विशुद्ध ,मौन,बोधस्वरूप अस्तित्व हैं।मैं सुखी,मैं दुखी ऐसा बोलते रहनेवाला मन आप नहीं है।यदि आप ऐसा मानते हैं कि आप ऐसा बोलनेवाला मन हैं तो आपको दुखी होने से कोई नहीं बचा सकता है।
अहंबुद्धि या मन मैं सुखी,मैं दुखी की भाषा में बोलता है।दिनभर बोलता है।
तो बोलता रहे।इसका काम यही है।हमें इसके लपेटे में नहीं आना चाहिये तथा मौन अनुभव स्वरुप बने रहना चाहिए जो हम हैं।जो हमारा मूल है।
इसे जानना समाधानकारी है।इसे न जाननेवाला मन की मैं मेरायुक्त कहानी को अपनी कहानी मानकर प्रस्तुत करता-मैने यह किया,वह किया,मेरे साथ ऐसा हुआ,वैसा हुआ।मैं खुश हुआ,नाराज हुआ।
यह ऐसा है जैसे कोई कहीं अभिनय करे किसी सीरियल में और फिर उसीको अपने जीवन की सत्यकथा की तरह पेश करता रहे।
इसलिए हमारे वास्तविक स्वरुप का इस कहानी से कोई लेना देना नहीं है।यह सदा शाश्वत शांत मौन सतचित आनंदस्वरूप हैं।
गलती से हम मैं सुखी,मैं दुखी ऐसा बोलनेवाले मन से(जिसे गलत अहं कहा गया)अपने को एक मान लेते हैं।उसे अपना वास्तविक परिचय,पहचान बना लेते हैं।
वह अपनी वास्तविक पहचान है भी नहीं।हो ही नहीं सकती जैसे प्रकाश और अंधकार कभी एक नहीं हो सकते।अपनी वास्तविक पहचान सदा शुद्ध बुद्ध मौन है,परिपूर्ण है,निशब्द सुखस्वरूप है।इसे समझना चाहिए।मन तो बोलेगा,झूठा-गलत अहं तो कहेगा अपनी बात हमें उसके झांसे में नहीं आना है।
इसके झांसे में आनेवाला स्वार्थ की बात कहता है।पारमार्थिक बात तो उसके मुख से निकलती है जो इससे अलग अपने स्वरुप में खडा है।वह कभी उसे पहचान नहीं बनाता।मन कहता है-मैं क्रोधी हूं।इसे अपनी पहचान बनाने वाला स्वयं को क्रोधी मान लेता है।स्वयं तो शांत है-सदा शांत।वह कभी क्रोधी न था,न है,न हो सकता है।
स्वयं को जानते कहां हैं?
मन को-अहंबुद्धि को ही अपना आधारस्वरुप मान रखा है तो भटकना ही रहा।
एक मित्र महामारी से चिंतित,आशंकित है।यदि वे जानलें कि गलत अहं ही चिंतित है,आशंकित है तो स्वयं स्वस्थ रहे,गलत अहं से अर्थात् अहंबुद्धि से तादात्म्य न करे।
ये अहंबुद्धि मिथ्या है,नासमझी की देन है।किसी ने बाध्य नहीं कर रखा है।हम ही गलती से अपने चेतनस्वरुप को इसके साथ एकरुप मान लेते हैं तथा इसके भटकने के साथ भटकते रहते हैं।हम सत्य को जानकर इससे अलग खडे रहें तो यह कितना ही कहे-मैं घोर दुखी हूं या भयंकर विषाद से ग्रस्त हूँ, हम इससे प्रभावित नहीं होते।अर्जुन भी बडे विषाद से भर गया था।कृष्ण ने कहा-निरहंकार, निरभिमान हो जाओ।अहंकार,अभिमान से तुम्हें कोई लेनादेना नहीं है।
तभी अपने शाश्वतस्वरुप में स्थित रहा जा सकता है।
झूठे और सच्चे को न मिलायें।यह आत्मानात्म विवेक है।दूध का दूध,पानी का पानी।इस झूठे अहं के चक्कर में आना बंद करेंगे,इसकी भाषा में बोलना,सोचना छोडेंगे तभी कल्याण संभव है।ऐसा जो उन्मुक्त अनुभव स्वरुप है वह आत्मकल्याण ही है।इसे शरीर से क्या आपत्ति है बल्कि इसकी उपस्थिति से अन्य जीवों का हित ही होता है।यह स्वयं अपने कहे जानेवाले शरीर का शोषण नहीं करता-न सुख के लिये,न दुख की दृष्टि से।
ऐसा भी कह सकते हैं एक शरीर में आत्मज्ञानी मौजूद है तो उससे सबका हित ही होता है,शरीर में अहंबुद्धि के साथ जीनेवाला है तो उससे किसीका भी हित नहीं होता।
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