🌹मृत्यु का भय🌹/ कृष्ण मेहता
एक आदमी मेरे पास आया और उसने कहा : 'मैं मृत्यु से अत्यंत भयभीत हूं।’ वह आदमी कैंसर से पीड़ित था और मृत्यु सचमुच निकट थी। वह किसी भी दिन मर सकता था, कोई उसे बचा नहीं सकता था। और वह जानता था कि मृत्यु द्वार पर खड़ी है, बस कुछ महीनों की बात थी, या कुछ हफ्तों की। वह भय से कांप रहा था, वस्तुत: उसका शरीर कांप रहा था। और उसने मुझसे कातर स्वर में कहा: 'मुझे बस एक बात बता दीजिए कि मैं कैसे मृत्यु के भय से छुटकारा पाऊं। मुझे कोई मंत्र, या कोई उपाय बताइए कि मैं मृत्यु का सामना कर सकूं। मैं कांपते हुए नहीं मरना चाहता हूं।’
जरा रुक कर उस व्यक्ति ने फिर कहा. 'मैं अनेक साधु—संतों के पास गया; सबने कुछ न कुछ बताया। वे दयालु लोग थे। किसी ने मंत्र बताया, किसी ने विभूति दी, किसी ने अपना चित्र दिया, किसी ने और कुछ दिया। लेकिन कोई भी चीज काम नहीं आ रही है। सब व्यर्थ है। अब मैं आपके पास आया हूं। यह मेरा आखिरी प्रयत्न है। अब और कहीं नहीं जाना है। कुछ बताइए।’
मैंने उस व्यक्ति से कहा : 'तुम्हें अब भी बोध नहीं हुआ। तुम क्या मांग रहे हो? तुम भय से छुटकारे का उपाय चाहते हो? कोई उपाय काम नहीं आएगा। मैं तुम्हें कुछ भी नहीं दूंगा, अन्यथा दूसरों की भांति मैं भी व्यर्थ सिद्ध होऊंगा। और जिन लोगों ने भी तुम्हें कुछ दिया वे नहीं जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं। मैं तो तुम्हें एक ही बात कहूंगा कि भय को स्वीकार कर लो। भय से कांप रहे हो तो कांपो, खूब कांपो। करना क्या है? मृत्यु है और तुम्हें भय से कंपन होता है तो कांपो। उसे झुठलाओ मत, उसे दबाओ मत। बहादुर बनने की चेष्टा मत करो। उसकी कोई जरूरत नहीं है। मृत्यु है तो भय स्वाभाविक है। तो पूरी तरह भयभीत होओ। भय ही हो जाओ।’
वह बोला: 'आप क्या कह रहे हैं? आपने मुझे कुछ दिया तो नहीं, उलटे आप कहते हैं उसे स्वीकार करो!' मैंने कहा. 'हां, तुम स्वीकार कर लो। तुम भय को समग्रता से स्वीकार कर लो तो तुम शांतिपूर्वक मर सकोगे।’
तीन—चार दिन के बाद वह व्यक्ति दोबारा मेरे पास आया और उसने कहा. 'आपने जो बताया वह काम कर गया। कितने दिनों तक मैं सोया नहीं था; पिछले चार दिन मैं गहरी नींद सोया। आप सही हैं, आपने जो बताया वह कारगर उपाय है। मृत्यु है, भय है, क्या किया जा सकता है? स्वीकार ही एकमात्र उपाय है। सभी मंत्र कचरा हैं।’
कोई वैद्य—डाक्टर कुछ नहीं कर सकता है। न कोई साधु—संत ही कुछ कर सकता है। मृत्यु है। वह तथ्य है। और तुम उसके भय से कांपते हो, यह भी स्वाभाविक है। आधी आती है और वृक्ष कांपने लगता है। वृक्ष किसी संत के पास यह पूछने नहीं जाता है कि आधी आए तो उसके भय से बचने का उपाय क्या है। वह तूफान से बचने के लिए मंत्र नहीं मांगता है। वह बस कांपता है। कांपना स्वाभाविक है।
और उस आदमी ने फिर कहा. 'लेकिन एक चमत्कार हो गया कि अब मैं उतना भयभीत नहीं हूं।’
अगर तुम स्वीकार कर लो तो भय विलीन होने लगता है। और अगर तुम उसे हटाते हो, उसका प्रतिरोध करते हो, दमन करते हो, अगर तुम उससे लड़ते हो, तो तुम भय को ऊर्जा देते हो, बढ़ाते हो।
वह व्यक्ति शांतिपूर्वक मरा—बिना किसी भय के, बिना किसी कंपन के—क्योंकि वह भय को स्वीकार कर सका।
भय को स्वीकार कर लो और वह विदा हो जाता है।
🌹तंत्र सूत्र🌹
🌹ओशो🌹
*।। जय सियाराम जी।।*
*।। ॐ नमह शिवाय।।*
No comments:
Post a Comment