-ह अमर सिं-
“amar बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना”, एक प्रचलित कहावत है जो कि साठ के दशक में राजकपूर जी की एक फिल्म के गीत के रूप में भी प्रसिद्द हुई थी. कहने को तो यह एक प्रसिद्द गीत का मुखड़ा मात्र या एक प्रचलित कहावत भर ही है, परन्तु इसके अंदर का दिया मर्म कभी-कभी किसी के जीवन का मार्मिक तथ्य बन सकता है. मै जिम्मेदारी से कह सकता हूँ कि ऐसा ही एक अब्दुल्ला मै भी हूँ. जीवन में मेरी किसी से व्यक्तिगत या निजी लड़ाई नहीं रही.
- अमर सिंह -
“बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना”, एक प्रचलित कहावत है जो कि साठ के दशक में राजकपूर जी की एक फिल्म के गीत के रूप में भी प्रसिद्द हुई थी. कहने को तो यह एक प्रसिद्द गीत का मुखड़ा मात्र या एक प्रचलित कहावत भर ही है, परन्तु इसके अंदर का दिया मर्म कभी-कभी किसी के जीवन का मार्मिक तथ्य बन सकता है. मै जिम्मेदारी से कह सकता हूँ कि ऐसा ही एक अब्दुल्ला मै भी हूँ. जीवन में मेरी किसी से व्यक्तिगत या निजी लड़ाई नहीं रही.
विभिन्न क्षेत्रों के काफी बड़े नामचीन और प्रसिद्ध लोग मेरे निकट रहे या मैं नादान नादानी में समझ बैठा कि मैं उनका बड़ा नजदीकी हूं. जाने अन्जाने मैं उन सबका घोषित अब्दुल्ला बन गया और उनके बिना कहे वह सब कुछ करने लगा, जिससे उन्हें लगे कि, वाह भाई वाह, क्या अब्दुल्ला है! कभी दुबई, कभी सिंगापुर, कभी दिल्ली तो कभी मुम्बई अब्दुल्ला बन कर मैंने जाने अन्जाने बिना किसी कारण के अपने तथाकथित नजदीकियों के बैरियों को ठीक ठाक करने का फैसला ले लिया. एक बड़े अभिनेता से मैंने लोहा लिया, पता चला जिनके कारण ऐसा किया उनका पूरा परिवार उक्त अभिनेता का चरणरज ले रहा है. एक दूसरे अभिनेता की शक्ल देखना बंद कर दिया, पता चला कि हमारे लोग उस अभिनेता के परिवार के मुखिया से सार्वजनिक क्षमायाचना कर रहे हैं.
समाज में बड़े तबकों पर पहुंचे लोगों का निजी झगड़ा तो होता ही नहीं बल्कि महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति आपूर्ति का लक्ष्य होता है और परस्पर उनके जीवन में आपसी शालीनता का लेन-देन, प्रदर्शन और भाईचारे का विलक्षण और अदभुत आवरण. महत्वाकांक्षाओं एवं स्वार्थ के टकराव के संघर्ष की जिम्मेदारी बड़े लोगों के अब्दुल्लाओं के कन्धों पर होती है. मेरे अब्दुल्ला तुम्हारे अब्दुल्ला से लड़ेंगे, हम तुम साथ-साथ काम करेंगे, खाएंगे, पिएंगे और मंचों पर समाज में शालीनता से एक दूसरे की प्रशंसा करते हुए कहतें मिलेंगे कि “हम साथ साथ हैं”. आने वाले नव वर्ष का मेरा संकल्प है कि मैं अब किसी का अब्दुल्ला नहीं बनूंगा. अब्दुल्ला प्यादा होता है और उसकी नियति पिटना होती है. बहुत पिट चुका हूं और ज्यादा पिटना नहीं चाहता इसलिए अब मैं जीवन भर किसी बेगानी शादी का अब्दुल्ला दीवाना नहीं बनूंगा, चाहे कुछ भी हो.
मेरे एक पुराने मित्र है, चुप रहते है अपना काम करते है और किसी अपने की भी समस्या आए तो कह देते है कि “उधो का ना लेना, ना माधो को कुछ देना”. “अहं ब्रम्हास्मि”, मैं, मैं और केवल मैं, मैंमय जीवन से कुछ लोग उन्हें भले ही आत्म केंद्रित होने या रहने का आरोपी बनाएँ लेकिन साहब ऐसे ही लोग सुख, समृद्धि और शान्ति की संतुष्टि पाते है. समस्या आग है चाहे अपनी हो या या पराए की तो मेरे प्यारे अब्दुल्ला भाइयों समस्या की आग से दूर अपने स्वार्थ के पानी की कीमत समझो नहीं तो हंसी उड़ाकर ज़माना तो यही कहेगा कि...
“बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना,
ऐसे मनमौजी को मुश्किल है समझाना.”
ऐसे मनमौजी को मुश्किल है समझाना.”
विभिन्न क्षेत्रों के काफी बड़े नामचीन और प्रसिद्ध लोग मेरे निकट रहे या मैं नादान नादानी में समझ बैठा कि मैं उनका बड़ा नजदीकी हूं. जाने अन्जाने मैं उन सबका घोषित अब्दुल्ला बन गया और उनके बिना कहे वह सब कुछ करने लगा, जिससे उन्हें लगे कि, वाह भाई वाह, क्या अब्दुल्ला है! कभी दुबई, कभी सिंगापुर, कभी दिल्ली तो कभी मुम्बई अब्दुल्ला बन कर मैंने जाने अन्जाने बिना किसी कारण के अपने तथाकथित नजदीकियों के बैरियों को ठीक ठाक करने का फैसला ले लिया. एक बड़े अभिनेता से मैंने लोहा लिया, पता चला जिनके कारण ऐसा किया उनका पूरा परिवार उक्त अभिनेता का चरणरज ले रहा है. एक दूसरे अभिनेता की शक्ल देखना बंद कर दिया, पता चला कि हमारे लोग उस अभिनेता के परिवार के मुखिया से सार्वजनिक क्षमायाचना कर रहे हैं.
समाज में बड़े तबकों पर पहुंचे लोगों का निजी झगड़ा तो होता ही नहीं बल्कि महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति आपूर्ति का लक्ष्य होता है और परस्पर उनके जीवन में आपसी शालीनता का लेन-देन, प्रदर्शन और भाईचारे का विलक्षण और अदभुत आवरण. महत्वाकांक्षाओं एवं स्वार्थ के टकराव के संघर्ष की जिम्मेदारी बड़े लोगों के अब्दुल्लाओं के कन्धों पर होती है. मेरे अब्दुल्ला तुम्हारे अब्दुल्ला से लड़ेंगे, हम तुम साथ-साथ काम करेंगे, खाएंगे, पिएंगे और मंचों पर समाज में शालीनता से एक दूसरे की प्रशंसा करते हुए कहतें मिलेंगे कि “हम साथ साथ हैं”. आने वाले नव वर्ष का मेरा संकल्प है कि मैं अब किसी का अब्दुल्ला नहीं बनूंगा. अब्दुल्ला प्यादा होता है और उसकी नियति पिटना होती है. बहुत पिट चुका हूं और ज्यादा पिटना नहीं चाहता इसलिए अब मैं जीवन भर किसी बेगानी शादी का अब्दुल्ला दीवाना नहीं बनूंगा, चाहे कुछ भी हो.
मेरे एक पुराने मित्र है, चुप रहते है अपना काम करते है और किसी अपने की भी समस्या आए तो कह देते है कि “उधो का ना लेना, ना माधो को कुछ देना”. “अहं ब्रम्हास्मि”, मैं, मैं और केवल मैं, मैंमय जीवन से कुछ लोग उन्हें भले ही आत्म केंद्रित होने या रहने का आरोपी बनाएँ लेकिन साहब ऐसे ही लोग सुख, समृद्धि और शान्ति की संतुष्टि पाते है. समस्या आग है चाहे अपनी हो या या पराए की तो मेरे प्यारे अब्दुल्ला भाइयों समस्या की आग से दूर अपने स्वार्थ के पानी की कीमत समझो नहीं तो हंसी उड़ाकर ज़माना तो यही कहेगा कि...
“बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना,
ऐसे मनमौजी को मुश्किल है समझाना.”
ऐसे मनमौजी को मुश्किल है समझाना.”
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