Wednesday, November 17, 2010

आखिर इसकी कीमत आम लोगों को ही तो चुकानी पड़ेगी

image आनंद प्रधान

आखिर इसकी कीमत आम लोगों को ही तो चुकानी पड़ेगी
क्या चैनलों में राजनीतिक रिपोर्टिंग का मर्सिया पढ़ने का समय आ गया है? संभव है कि सवाल आपको बेतुका लगे. लेकिन अगर आपने हाल में  ‘स्टार न्यूज’ के नेशनल एडिटर और ठेठ राजनीतिक रिपोर्टर दीपक चौरसिया को राखी सावंत से या ‘आज तक’ के ब्यूरो चीफ और राजनीतिक रिपोर्टर रहे अशोक सिंहल को राहुल महाजन की पत्नी डिंपी महाजन से एक्सक्लूसिव इंटरव्यू करते देखा हो तो यह सवाल उतना बेतुका नहीं लगेगा. असल में, यह सवाल उठाने की जरूरत इसलिए पड़ रही है कि चैनलों पर राजनीतिक खबरों की रिपोर्टिंग न सिर्फ लगातार घट रही है बल्कि उसे न्यूज एजेंडा से हाशिए पर धकेल दिया गया है. अधिकांश चैनलों में राजनीतिक रिपोर्टिंग फैशन से बाहर हो गई है. एक समय था जब राजनीतिक रिपोर्टर स्टार माने जाते थे लेकिन अब हालत यह है कि उनकी खबरों की चैनलों में पूछ नहीं रह गई है. सभी व्यावहारिक अर्थों में वे बेकार हो गए हैं. ऐसे ज्यादातर रिपोर्टरों के लिए मक्खियां मारने की नौबत आ गई है.
ऐसा नहीं है कि इस बीच देश में राजनीतिक सरगर्मियां या हलचलें बंद हो गई हैं. राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीति में वह सभी कुछ चल रहा है जो अखबारों और चैनलों को हमेशा ही कवरेज के लिए खींचता रहा है. एक दौर था जब राजनीतिक खबरों के बिना किसी चैनल या उसके बुलेटिन की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. बुलेटिनों में 30 से 40 फीसदी खबरें राजनीतिक हुआ करती थीं और राजकाज को लेकर लगभग 50 फीसदी. राष्ट्रीय जीवन में राजनीति की भूमिका और आम लोगों के जीवन को प्रभावित करने की उसकी क्षमता को देखते हुए उसे यह महत्व मिलना गलत नहीं था. लोकतंत्र के चौथे खंभे के बतौर भी मीडिया से यह अपेक्षा की जाती है कि वह नागरिकों को देशकाल और राजकाज के बारे में पर्याप्त रूप से सूचित और सचेत रखे. बिना सूचित और सचेत नागरिकों के कोई लोकतंत्र नहीं चल सकता है. राजनीतिक खबरों को अन्य खबरों की तुलना में इसलिए भी अधिक महत्व मिलता रहा है क्योंकि इनके जरिए ही राजनीतिक तंत्र, राजनीतिक वर्गों और सत्ता तंत्र को जनता के प्रति जवाबदेह और जिम्मेदार बनाया जा सकता है. यही कारण है कि राजनीतिक रिपोर्टिंग पत्रकारिता का प्राण रही है. पत्रकारिता का विकास इसी रिपोर्टिंग के जरिए हुआ है.
मुद्दा केवल राजनीतिक कवरेज में मात्रात्मक गिरावट का ही नहीं बल्कि राजनीतिक रिपोर्टिंग की गुणवत्ता का भी है
लेकिन लगता है कि हिंदी समाचार चैनलों में राजनीतिक रिपोर्टिंग को पांच ‘सी’ (क्रिकेट,सिनेमा,सेलेब्रिटी,क्राइम,कामेडी) की नजर लग गई है. स्वतंत्र मीडिया शोध संस्था- सेंटर फार मीडिया स्टडीज के एक सर्वेक्षण के मुताबिक 2005 से 2007 के बीच हिंदी और अंग्रेजी के छह समाचार चैनलों के प्राइम टाइम (रात 8 बजे से 10 बजे) पर राजनीतिक कवरेज में 50 प्रतिशत से अधिक की गिरावट दर्ज की गई. हालांकि आम चुनावों के साथ-साथ कई विधानसभा चुनावों के कारण 2009 में राजनीतिक कवरेज में सुधार आया, लेकिन फिर भी वह 2005 की तुलना में कुछ प्रतिशत कम ही था. दूसरी ओर, पांच ‘सी’ का कवरेज ढाई गुना से ज्यादा बढ़ गया है.
मुद्दा केवल राजनीतिक कवरेज में मात्रात्मक गिरावट का ही नहीं बल्कि राजनीतिक रिपोर्टिंग की गुणवत्ता का भी है. इस आकलन से असहमत होना मुश्किल है कि हाल के वर्षों में राजनीतिक रिपोर्टिंग की न सिर्फ धार कुंद हुई है बल्कि वह उथली भी हुई है. चैनलों की राजनीतिक रिपोर्टिंग राजनेताओं की बयानबाजियों, आरोप-प्रत्यारोपों और मिलने-टूटने तक सिमटकर रह गई है. यही नहीं, ज्यादातर राजनीतिक रिपोर्टर अपनी राजनीतिक बीट कवर करते हुए इस कदर ‘स्टाकहोम सिंड्रोम’ के शिकार हो गए हैं कि वे उन पार्टियों और उनके बड़े नेताओं के माउथपीस-से बन गए हैं. सबसे खतरनाक बात तो यह हुई है कि कई बड़े राजनीतिक रिपोर्टर, संपादक और टीवी पत्रकार नेताओं की किचेन कैबिनेट के हिस्सा बन गए हैं. वे नेताओं, उनके गुटों/धड़ों और दूसरे नेताओं और उनके गुटों/धड़ों के बीच, पार्टियों और पार्टियों के बीच और मंत्रियों-नेताओं और कॉरपोरेट समूहों के बीच लॉबीइंग भी करने लगे हैं. मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, अफसरों की नियुक्ति में भूमिका निभाने लगे हैं. राजनीतिक रिपोर्टिंग के नाम पर एक तरह की एम्बेडेड पत्रकारिता हो रही है. इससे राजनीतिक पत्रकारिता की साख को धक्का लगा है. ऐसे राजनीतिक रिपोर्टर और संपादक स्वतंत्र और तथ्यपूर्ण राजनीतिक रिपोर्टिंग करने में सक्षम नहीं रह गए हैं. दूसरी ओर, चैनलों में राजनीतिक रिपोर्टरों की एक बड़ी तादाद ऐसी भी है जिन्हें भारतीय राजनीति का क-ख-ग भी नहीं मालूम है और न उनमें जानने की इच्छा है. वे राजनीतिक रिपोर्टिंग के नाम पर बाइट पत्रकारिता करते हैं और उनसे इससे अधिक की अपेक्षा करना उनके साथ अन्याय है.
इस तरह, इस तितरफा प्रक्रिया के बीच राजनीतिक रिपोर्टिंग का लगातार क्षय और क्षरण हो रहा है. इसके कारण लोकतंत्र का भी क्षरण और छीजन हो रहा है. कमजोर पड़ती राजनीतिक रिपोर्टिंग के कारण राजनीतिक दल, राजनेता और पूरा राजनीतिक तंत्र निरंकुश और अनुत्तरदायी होता जा रहा है. यह सबके लिए चिंता की बात है. आखिर इसकी कीमत आमलोगों को ही तो चुकानी पड़ेगी.

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