लाला शिवदयाल ंसिह ''स्वामी जी महाराज''
इस सत्संग के मूल प्रवर्तक लाल शिव दयाल ंसिंह खत्री थे जो आगरा में सं0 1875 को बारह बजे रात में उत्पन्न हुए थे । कहा जाता है कि उनके आविर्भाव के सम्बन्ध में तुलसी साहब ने पहले ही भविष्यवाणी कर दी थी । उनके पिता दिलवाली ंसिंह पहले नानक पंथी थे और ''जपुजी'' , ''सोदर'' , ''सुखनामी'' आदि का पाठ भी किया करते थे किन्तु संत तुलसी साहब के प्रभाव में आकर उनका आकर्षण साहिब पंथ की ओर तीव्र होने लगा । सम्पूर्ण परिवार ही संत तुलसी साहब के प्रति श्रध्दा-भक्ति रखने लगा । बाल्यावस्था में ही स्वामी जी महाराज को सन्तमत द्वारा अनुप्राणित आध्यात्मि वातावरण प्राप्त हो चुका था । अत: आध्यात्म मार्ग में अग्रसर होते हुए उन्हें बाधाओं का सामना नहीं करना पड़ा ।
शैशवावस्था में इन्होंने नागरी लिपि और हिन्दी भाषा तथा गुरुमुखी का सम्यक् ज्ञान प्राप्त कर लिया । फिर उन्होंने फारसी , अरबी तथा संस्कृत भाषाओं को सीख लिया । इनकी पत्नी जिनको ''पंथानुयायी ''राधा जी'' कहा करते थे आध्यात्मिक बातों में गहरी रुचि रखती थीं । इन्होंने कुछ दिनों तक फारसी का अध्यापन -कार्य भी किया । इनके परिवार की जीविका का प्रमुख साधन महाजनी था । जब इनके बड़े भाई की डाक विभाग में नौकरी लग गयी तब ब्याज के पैसे से
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पारिवारिक खर्च चलाना इनको अनुचित प्रतीत हुआ और अपने सभी कर्जदारों को लेन-देन से मुक्त करके परिश्रम से अर्जित धन द्वारा जीविका चलाने लगे । सं0 1935 के आषाढ़ मास में आपने महासमाधि ले ली । इनकी समाधि स्वामी बाग के निकट बनायी गयी ।
शैशवावस्था में ही लाला शिवदयाल ंसिह आध्यात्मिक चिन्तन और सत्संग के प्रति रुचि रखने लग गये थे । आप अपने किसी कमरे में बैठकर घंटों चिन्तन और मनन करते रहते थें । कभी-कभी ऐसा भी हो जाता था कि आप तीन-तीन दिनों तक कमरे से बाहर निकलते ही नहीं थे । सं0 1917 से उन्होंने सन्त मत का उपदेश देना आरम्भ कर दिया । सत्रह वर्ष तक यह कार्य उनके घर पर ही सम्पादित होता रहा। भक्तों और जिज्ञासुओं की अपार भीड़ को देखते हुए उन्होंने उपदेश देने के स्थान में परिवर्तन कर दिया और आगरा से लगभग तीन मील दूर एक स्थान चुन लिया जहां एक बाग भी लगा दिया गया । संत तुलसी के निधनोपरांत साहिब पंथ के अनेक अनुयायियों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण कर लिया । उनके सिध्दान्तों में विश्वास करने वाले केवल हिन्दू मतावलम्बी ही नहीं थे , उनके मुस्लिम , जैन तथा ईसाई स्त्री-पुरुषों के वे आकर्षण केन्द्र बन गये थे । उनके अनुयायियों में उनके छोटे भाई प्रतापंसिह सेठ भी थे जिन्हें आगे चलकर भक्त चाचाजी कहने लगे थे । उन्हीं से सूचना पाकर राय सालिगराम बहादुर उर्फ ''हजूर'' साहब ने भी स्वामी महाराज का शिष्यत्व ग्रहण कर लिया जो स्वामी महाराज के निधनोपरांत उनके उत्तराधिकारी बन गये । स्वामी जी महाराज ने ''सार वचन'' (नज्म) और सार वचन (नस) की रचना की थी जिनमें उन्होंने ''सुरत शब्द योग'' को सर्वाधिक महत्व दिया है । स्वामी जी महाराज की मुख्य समाधि-निर्माण का कार्य सं0 1961 में ही आरम्भ कर दिया गया था जो अब तक निर्मित होता जा रहा है । उसमें शुध्द संगमरमर तथा अन्य बहुमूल्य पत्थरों का प्रयोग किया जा रहा है । संभवत: यह समाधि विश्व की एक अन्यतम कलाकृति होगी ।
राय सालिग राम साहब राय बहादुर हजूर महाराज साहेब
राम सालिगराम उर्फ हजूर महाराज साहेब का आविर्भाव सं0 1885 को आगरा के एक प्रतिष्ठित माथुर परिवार में हुआ था। इनके जन्म के संदर्भ में यह कहा जाता है कि ये 18 माह तक अपनी माता के गर्भ में रहे । इनके पिता राय बहादुर ंसिंह एक वकील थे । बाल्यावस्था में इन्हें फारसी की शिक्षा मिली और तदनन्तर अंग्रेजी की अध्ययन उस समय प्रचलित सीनियर कक्षा तक किया । 1847 में से डाक विभाग में द्वितीय क्लर्क के रूप में नियुक्त हुए और सं0 1881 में ये पोस्ट मास्टर जनरल के उच्च पद पर सुशोभित हो गये । 1871 में तत्कालीन अंग्रेजी सरकार ने इन्हें राय बहादुर की उपाधि प्रदान की । नौकरी करते समय रिक्त काल में ये ज्योतिष शास्त्र का अध्ययन करते थे और फारसी में इस विद्या से सम्बन्धित एक ग्रंथ की रचना भी की ।
सं0 1915 में उनकी भेंट लाल प्रतापंसिह उर्फ चाचा जी से हुयी और इनका संकेत पाकर स्वामी जी महाराज का दर्शन करने के उद्देश्य से वे आगरा चले आये । स्वामी जी महाराज के आध्यात्मिक व्यक्तित्व से ये इतने अधिक प्रभावित हुए कि उनका दर्शन किये बिना इनसे रहा ही नहीं जाता था । उन्होंने अपने को स्वामल जी महाराज के पावन-चरणों में एक सेवक रूप में अपने को समर्पित कर दिया । ये स्वामी जी के प्रति इतने आस्थावान बन गये थे कि उनका चरणामृत ,
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मुखअमृत (जूठन) यहां तक कि '' पीक दान का अमृत'' नित्यश: लिया करते थे । सं0 1933 में इन्होंने स्वामी जी महाराज की आज्ञा से अपनी व्यक्तिगत आय द्वारा भूखण्ड क्रय करके उसमें बाग लगवा दिया और मकान बनवाकर उनके चरणों में अर्पित कर दिया । वही बाग राधा स्वामी बाग के नाम से प्रसिध्द है ।
स्वामी जी महाराज के निधनोपरांत ये राधास्वामी बाग में साप्ताहिक सत्संग चलाने लगे । यह कार्यक्रम लगभग तीन वर्ष तक अनवरत गति से चलता रहा । राधास्वामी बाग तथा राधा बाग के सम्पूर्ण व्यय का भार इन्होंने स्वयं वहन किया । सं0 1944 में उन्होंने सरकारी नौकरी से जब पेंशन प्राप्त कर ली , तब भी उनके यहां अनेक जिज्ञासु आने लगे । स्वामी जी महाराज के समय में प्रचलित आरती विधि में उन्होंने कुछ परिवर्तन कर दिया । वे दिन रात में केवल तीन घंटे ही विश्राम करते थे ।
उन्होंने अनेक पुस्तकों का भी सृजन किया । सार उपदेश , प्रेम उपदेश , गुरु उपदेश , प्रश्नोत्तर , युगल प्रकाश तथा प्रेम पत्र (6 भाग) इनके प्रधान ग्रंथ है । समग्र रचनाएं ग्रंथ में हैं केवल प्रेम बानी जो चार भागों में प्रकाशित है , पद्य में है । प्रेम पत्रावली के कुछ वचन अलग करके मुद्रित हुए है जिनके नाम हैं -''राधास्वामी मत संदेश'' , ''राधा स्वामी मत उपदेश'' तथा ''सहज उपदेश'' । इसी प्रकार स्वामी जी महाराज के ''सार-वचन'' (नज्म) तथा ''हुजूर महाराज साहेब'' की प्रेम वानियों में से भी कुछ चुनकर ''भेद वानी'' (4 भाग) ''प्रेम प्रकाश'' , ''नाम माला'' तथा ''विनती तथा प्रार्थना'' नामक संग्रह प्रकाशित हुए हैं । ''संत संग्रह'' नामक पुस्तक का भी प्रकाशन दो भागों में उन्होंने किया जिनमें संतो की कतिपय वानियां संगृहीत हैं । ''राधा स्वामी मत प्रकाश'' की रचना उन्होंने आंग्ल भाषा में की है ।
हुजूर महाराज साहेब'' ने सत्संग का कार्य-क्रम बीस वर्षों तक चलाया । वे बहुत मधुर स्वभाव के संत थे । उनका व्यक्तित्व बड़ा ही आकर्षक था । सं0 1955 में सत्तर वर्ष की अवस्था में उन्होंने अपने प्राणों का विसर्जन कर दिया । प्रेम -विलास भवन में उन्होंने अपने पार्थिव शरीर का परित्याग किया था और उसी भवन में उन्हें समाधि भी दे दी गयी ।
ब्रह्मशंकर मिश्र ''महाराज साहेब''
संत ब्रह्म शंकर मिश्र अपने सत्संग में ''महाराज साहेब'' के रूप में प्रसिध्द हैं । उनका जन्म काशी के एक कुलीन ब्राह्मण परिवार में सन् 1861 को हुआ था । उनके पिता पं0 रामयश मिश्र संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे । ''महाराज साहेब'' अपने गुरु हुजूर महाराज साहेब की भांति सदा गृहस्थाश्रम में बने रहे । कल्कत्ताा विश्वविद्यालय से एम0 ए0 की उपाधि प्राप्त करने के अनन्तर वे बरेली कालेज में प्रोफेसर के रूप में काम करने लगे । अनेक वर्षों तक इलाहाबाद में स्थित एकाउन्टेन्ट जनरल आफिस में भी नौकरी की किन्तु उनकी आध्यात्मिक साधना का क्रम कभी टूटा नहीं । ''हुजूर महाराज साहेब'' के पार्थिव शरीर का परित्याग करने पर उत्तराधिकारी के रूप में सं0 1955 से लेकर सं0 1964 तक इलाहाबाद केन्द्र के ही वे सत्संग का कार्यक्रम अबाध गति से चलाते
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रहे । उन्होंने सं0 1932 मे ही दीक्षा ग्रहण कर ली थी । सं0 1964 में काशी में आपका स्वर्गवास हो गया । काशी के कबीर चौरा मुहल्ले में स्थित स्वामी बाग नामक स्थान पर आपको समाधिस्थ कर दिया गया । उन्होंने अंग्रेजी में ''डिस्कोर्सेज ऑन राधास्वामी फेथ'' नामक एक महत्वपूर्ण पुस्तक की रचना की थी।
राधास्वामी सत्संग का विकेन्द्रीकरण
महाराज साहब के निधनोपरान्त इस सत्संग का विकेन्द्रीकरण आरम्भ हो गया। उनके शिष्य मुंशी कामता प्रसाद ने आगरा में और ठाकुर अनुकूल चन्द चक्रवर्ती ने पवना (पूर्व बंगाल) में अपनी-अपनी स्वतंत्र गद्दियों की स्थापना कर ली। महाराज साहब के पश्चात उनकी बड़ी बहन श्रीमती माहेश्वरी देवी अथवा बुआ जी साहिबा उनकी गद्दी पर बैठी। 56 वर्ष की आयु में उनका देहावसान सं0 1969 में हो गया। अत: प्रयाग की गद्दी माधव प्रसाद सिंह उर्फ ''बाबू साहब'' के हाथ में आ गयी और इनके पुत्र योगेन्द्र शंकर उर्फ ''भैया जी साहब'' ने काशी में पृथक गद्दी की स्थापना कर ली।
बहुत से अनुयायी बुआजी साहिबा को नहीं , मुंशी कामता प्रसाद ''सरकार साहब'' को चतुर्थ गुरु के रूप में स्वीकार करते है। सं0 1971 में उनका भी शरीर अन्त हो गया। अत: उनका स्थान सर आनन्द स्वरूप उर्फ साहब जी ने ले लिया। इन्होने ''महाराज साहब'' से दीक्षा ग्रहण की थी। इनका ध्यान आध्यात्मिक विकास के साथ औद्योगिक विकास पर भी केन्द्रित था। अत: आगरा के निकट दयाल बाग को औद्योगिक केन्द्र बना दिया और वहां एक सफल कर्मयोगी का जीवन व्यतीत करते हुए सं0 1994 में महाप्रयाण किया और उनके स्थान पर राय साहब गुरु चरन दास मेहता उर्फ ''मेहता जी साहब'' गद्दी के उत्तराधिकारी घोषित कर दिये गये।
महर्षि शिव व्रत लाल
महर्षि शिवव्रत लाल भी हुजूर महाराज साहब के शिष्य थे। उन्होने सं0 1978 में गोपी गंज में अपनी गद्दी का शुभारम्भ किया। ये एक योग्य व्यक्ति थे। इन्होने आध्यात्मिक जटिल विषयों को सरल व्याख्या करके सर्वसाधारण्ा के लिये बोधगम्य बना दिया। उन्होने कबीर बीजक को टीका तथा विभिन्न संतो की जीवनी पर प्रकाश डालते हुए उनकी रचनाओं का सुन्दर संग्रह भी प्रकाशित किया। अपने विचारों के प्रचारार्थ उन्होने नाना पत्र पत्रिकाओं तथा विचार मालाओं को भी प्रकाशित किया। ''अवधूत गीता'' तथा ''श्रीमद्भागवत गीता'' का अनुवाद - कार्य भी किया। इनका समय सं0 1916 से सं0 1996 तक था।
यद्यपि राधा स्वामी सत्संग की प्रधान शाखाएं दयाल बाग और स्वामी बाग की ही समझी
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जाती है किन्तु उनके अनेक उपसम्प्रदायों का भी निर्माण हो गया। गाजीपुर , गोपीगंज , काशी इत्यादि में ऐसे ही उपसम्प्रदायों का गठन किया गया था जिसका ऊपर संकेत दिया जा चुका है। राय वृन्दावन ने एक वृन्दावनी सम्प्रदाय भी चला दिया। जिसमें राधा स्वामी नाम के स्थान पर ''सतगुरु राम'' नाम को अधिक महत्व प्राप्त हुआ। बाबा जैमल सिंह ने , जो पहले से ही सिक्ख धर्मानुयायी थे डेरा व्यास में गद्दी बना डाली किन्तु उन्होने कभी सत्तनाम की टेक नहीं छोड़ी। उनके निधनोपरान्त व्यास वाली गद्दी के उत्तराधिकारी बाबा सावन सिंह हो गये। ''राधास्वामी नाम को अस्वीकृति प्रदान करने वाले बाबू श्यामलाल जिन्होने 1987 के लगभग ''धारा सिंह प्रताप'' का नाम स्वीकार कर लिया था ग्वालियर में अपनी एक अलग शाखा के निर्माण की चेष्टा की जो व्यापक रूप से प्रचार नहीं पा सकी।
कुछ व्यक्ति ऐसे भी हुए जिन्होने ''राधा स्वामी'' राम के महत्व को तो स्वीकृति प्रदान की किन्तु मूल केन्द्र से अपने को अलग कर लिया। गरीब दास ने देहली में तथा अनुकूल चन्द चक्रवर्ती ने पवना में अपनी गद्दी बना ली जो सत्संग के मुख्य ध्येय से पृथक हो गयी जान पड़ने लगी। बाबा गरीब दास के अनुयायियों में जहां झाड़ फूंक की व्यवस्था की गई वहां अनुकूल बाबू के अनुयायी वैष्णवों की भांति कीर्तन करने लगे।
राधा स्वामी शब्द पर विचार कर लेना भी आवश्यक है। यह शब्द उस परमोच्च सत्ता का बोधक है जो समस्त सृष्टि का मूल स्रोत है। यह शब्द संत गुरु वा परम गुरु के लिये भी व्यवहृत होता है और उस मत का भी पर्यायवाची है जिसके मूल प्रवर्तक के रूप में स्वामी जी महाराज प्रख्यात है। स्वामी शब्द से तात्पर्य उस परम पिता से है जो विश्व का नियन्ता है और वहां से प्रवाहित होने वाली वेतन धारा को राधा कहा जाता है। परमोच्च सत्ता ही पिता है और उनमें प्रवाहित होने वाली चेतन धारा माता। इस सन्दर्भ में यह भी निवेदन करना अपेक्षित है कि राधा स्वामी सम्प्रदाय में पिण्ड के तीन भिन्न - भिन्न प्रदेश माने गये है - पिण्ड प्रदेश , ब्रह्माण्ड प्रदेश तथा दयाल देश। पिंड देश भौतिक है और उसमें चेतन का अंश गौण रूप में है । ब्रह्माण्ड देश में चेतन की प्रधानता है और भौतिक अंश गौण है । दयाल प्रदेश शुध्द चेतन का देश जहां भौतिक अंश का पूर्णत: अभाव है । राधा स्वामी का स्वरूप भी इन तीनों ही प्रदेशों में भिन्न है । सबसे नीचे वाले पिंड प्रदेश में वह तरंग की एक लहर मात्र का रूप ग्रहण करता है जिसके हाथों में स्थूल भौतिक पदार्थों का समस्त अधिकार होता है । मनुष्य उस परात्पर सागर की एक बिन्दु है जो भौतिकता से आवृत्त होकर बंधन मुक्त हो जाता है । उस पिंड प्रदेश से ऊपर ब्रह्माण्ड प्रदेश में परम तत्व सागर की एक तरंग की भांति व्यक्तित्व धारण कर विद्यमान रहता है । वही वेदान्तियों का ब्रह्म है । सबसे उच्चतम दयाल प्रदेश में राधा स्वामी का कोई पृथक व्यक्तित्व नहीं रहता । वहां वह अपार सागर की भांति व्यापक और गभ्मीर बना रहता है । इन भेदों से परिचित होकर संत गुरु के बताये मार्ग पर चलने से ही जीव का कल्याण सम्भव है ।
उक्त धारा से सम्बन्ध जोड़ने के लिए ''सुरत शब्द योग'' का अभ्यास अनिवार्य है । इसके लिए ''सुमिरन'' , ध्यान'' और ''भजन'' तीन प्रकार की साधनाओं का विशेष महत्व समझा गया है । मौन सुमिरन चित्त को भगवान की ओर उन्मुख करता है । ध्यान से चित्त उस केन्द्र बिन्दु पर स्थिर होता है और भजन के माध्यम से साधक ब्रह्म में लीन हो जाता है । इसी को साधारण योग की परिभाषा में धारणा ध्यान और समाधि कहा जाता है ।
''राधा स्वामी सत्संग'' में उपासना वा भक्ति का विशेष महत्व है । किन्तु उपासना किसकी
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हो ? इसमें शब्द स्वरूप राधा-स्वामी , संत गुरु वा साध गुरु की उपासना का ही विधान है । सत्संग में संत गुरु , परम सन्त तथा साधु गुरु में भी अन्तर माना गया है । सन्त लोक में पहुंचने वाले को सन्त गुरु , राधास्वामी के मुकाम पर पहुंचने वाले को परम सन्त और ब्रह्म लोक तक पहुंचने वाले को साधु गुरु की संज्ञा दी गई है ।
''हुजुर महाराज साहेब'' ने वैराग्य की अपेक्षा भक्ति और अनुराग को अधिक महत्व दिया है क्योंकि भक्ति का अभ्यास करने से सांसारिकता के प्रति वैराग्य भाव स्वत: जागृत हो जाता है । भक्ति के लिए भी उन्होंने दीनता को अनिवार्य माना है । दीनता का भाव जागृत होते ही साधक में शरणापन्न होने की भावना का समावेश हो जाता है । सांसारिक प्रेम वास्तव में मोह है । इस सन्त में दीनता , प्रपत्ति और प्रेम का समान महत्व प्राप्त है ।
इस पंथ के चार मुख्य अंग हैं -पूरा गुरु , नाम , सत्संग तथा अनुराग । तदनुसार साधक को पूरे गुरु से उपदेश ग्रहण करना चाहिए । पूरा गुरु संत सत्गुरु वा साधु गुरु का पर्याय है । जो ध्वन्यात्मक रूप से सभी घटों मे परिव्याप्त है । वही नाम है । शब्द और उसकी ध्वनि में भेद नहीं है । कृत्रिम नाम व्यर्थ सिध्द होते हैं । सत्संग का तात्पर्य है कि संत सद्गुरु का सानिध्य , उनकी सेवा करना और उनके उपदेशों को हृदयंगम कर सुरति के सहारे अन्तर में प्रतिध्वनित शब्द को सुनना तथा मन से सच्चे नाम का सुमिरन करते हुए उनके स्वरूप में ध्यान केन्द्रित करना । अनुराग का तात्पर्य उस सात्विक प्रेम से है जिससे प्रेरित होकर साधक स्वामी के दर्शन-लाभ की तीव्र आकांक्षा से भर जाता है ।
राधा स्वामी सत्संग के कुछ नैतिक नियम हैं , जिनका पालन करने से साधक आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख होता है । मांस तथा मादक वस्तुओं का सेवन , आकर्षक वस्त्राभूषणों का प्रयोग , अधिक निद्रा और व्यर्थ की बातचीत में समय का अपव्यय राजनीति आन्दोलनों में सक्रिय सहयोग देना इत्यादि गर्हित माने गये हैं । अपने पूर्व धर्म का पालन करते हुए अपनी जीविका चलाना और सत्संग करना इत्यादि इस पंथ के नैतिक नियमों के अन्तर्गत आते हैं । संत सतगुरु के प्रति श्रध्दा भाव रखते हुए उनके द्वारा स्पर्श की गई वस्तु का व्यवहार भी नियमानुकूल है ।
संत मत सत्संग
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