संसार में सूर्य की ऊर्जा को ग्रहण करके भोजन के निर्माण का कार्य केवल हरे पौधे ही कर सकते हैं। इसलिए पौधों को उत्पादक कहा जाता है। पौधों द्वारा उत्पन्न किए गए भोजन को ग्रहण करने वाले जंतु शाकाहारी होते हैं और उन्हें हम प्रथम श्रेणी के उपभोक्ता कहते हैं।
जैसे-गाय, भैंस, बकरी, भेड़, हाथी, ऊंट, खरगोश, बंदर ये सभी प्रथम श्रेणी के उपभोक्ता कहलाते हैं। प्रथम श्रेणी के उपभोक्ताओं को भोजन के रूप में खाने वाले जंतु मांसाहारी होते हैं और वे द्वितीय श्रेणी के उपभोक्ता कहलाते हैं। इसी प्रकार द्वितीय श्रेणी के उपभोक्ताओं को खाने वाले जंतु तृतीय श्रेणी के उपभोक्ता कहलाते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि ऊर्जा का प्रवाह सूर्य से हरे पौधों में, हरे पौधों से प्रथम श्रेणी के उपभोक्ताओं में और प्रथम श्रेणी के उपभोक्ताओं से द्वितीय श्रेणी के उपभोक्ताओं से और फिर उनसे तृतीय श्रेणी के उपभोक्ताओं की ओर होता है। सभी पौधे और जंतु वे चाहे किसी भी श्रेणी के हों, मरते अवश्य हैं। मरे हुए पौधों व जंतुओं को सड़ा-गलाकर नष्ट करने का कार्य जीवाणु और कवक करते हैं। जीवाणु और कवकों को हम अपघटक कहते हैं।
ऊर्जा के प्रवाह को जब हम एक पंक्ति के क्रम में रखते हैं तो खाद्य श्रृंखला बन जाती है। जैसे हरे पौधे-कीड़े-मकोड़े-सर्प-मोर। यह एक खाद्य श्रृंखला है। इसमें हरे पौधे उत्पादक, कीड़े प्रथम श्रेणी के उपभोक्ता, मेंढक द्वितीय श्रेणी का उपभोक्ता, सर्प तृतीय श्रेणी का उपभोक्ता और मोर चतुर्थ श्रेणी का उपभोक्ता है। इसी प्रकार की बहुत-सी खाद्य श्रृंखलाएं विभिन्न पारितंत्रों में पायी जाती हैं।
प्रकृति की व्यवस्था स्वयं में पूर्ण है। प्रकृति के सारे कार्य एक सुनिश्चित व्यवस्था के अतंर्गत होते रहते हैं। यदि मनुष्य प्रकृति के नियमों का अनुसरण करता है तो उसे पृथ्वी पर जीवन-यापन की मूलभूत आवश्यकताओं में कोई कमी नहीं रहती है। मनुष्य का दुश्चिंतन ही है, जो अपने संकीर्ण स्वार्थ के लिए प्रकृति का अति दोहन करता है, जिसके कारण प्रकृति का संतुलन डगमगा जाता है।
परिणामत बाढ़, सूखा जैसी आपदाएं भारी जान-माल की हानि पहुंचाती हैं। प्रकृति के स्वाभाविक कार्य में कोई बाधा न डाली जाए तो ही पर्यावरण को सुरक्षित रखा जा सकता है। यदि किसी खाद्य श्रृंखला को तोड़ दिया जाए, तो मनुष्य को हानि ही हानि होती है। उदाहरण के लिए एक वन में शेर भी रहते हैं और हिरन भी। खाद्य श्रृंखला के अनुसार हिरन प्रथम श्रेणी का उपभोक्ता और शेर द्वितीय श्रेणी का उपभोक्ता है। शेर हिरन को खाता रहता है। यदि शेरों का शिकार कर दिया जाए तो हिरन वन में बहुत अधिक संख्या में हो जाते हैं और उनके लिए वन की घास कम पड़ती है तो वे फसलों को हानि पहुंचाकर पर्यावरण के संतुलन को बिगाड़ देते हैं।
इसी प्रकार एक वन में से हिरनों का शिकार कर दिया जाए तो शेर को वन में भोजन न मिलने पर वह बस्ती की ओर आता है और नर भक्षी हो जाता है। जो खाद्य श्रृंखला प्राकृतिक रूप से चल रही थी, उसे तोड़ने पर पर्यावरण को सुरक्षित रखना संभव नहीं हो सकता है।
पर्यावरण के संरक्षण में अपघटक अर्थात् जीवाणु और कवकों का बहुत अधिक योगदान है। मरे हुए जीव-जंतुओं को सड़ा-गला कर अपघटन का कार्य ये ही करते हैं। यदि ये अपघटक न रहे होते तो इस पृथ्वी पर मरे हुए जीवों के ढेर लगे दिखाई देते और यह पृथ्वी मनुष्य के रहने योग्य नहीं रह जाती।
बहुत से जीव-जंतु हमें बिल्कुल अनुपयोगी और हानिकारक प्रतीत होते हैं, लेकिन वे खाद्य श्रृंखला की प्रमुख कड़ी होते हैं और उनका पर्यावरण के संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान होता है। जैसे कीड़े-मकोड़े पौधों के तनों और पत्तियों को खाकर फसलों को बहुत हानि पहुंचाते हैं। ये पक्षियों का भोजन बनकर पक्षियों से फसल को सुरक्षित रखते हैं और पक्षी इन कीड़ों को खाकर कीड़ों से फसल की रक्षा करते हैं। इन कीड़ों के अभाव में पक्षी फसलों को अपेक्षाकृत अधिक हानि पहुंचा सकते थे।
इसी प्रकार सांप मनुष्य को बड़ा हानिकारक और खतरनाक दिखाई देता है, लेकिन यह एक खाद्य श्रृंखला का महत्वपूर्ण अंग होने के कारण मानव जाति के लिए बड़ा उपयोगी है, किसानों का मित्र भी है। चूहा किसानों का शत्रु है, जो बहुत मात्रा में अन्न को खाकर बर्बाद कर देता है। सांप चूहों को खाकर उनकी संख्या को नियंत्रित करता रहता है। यदि खेतों में सांप न होते तो चूहों की संख्या इतनी अधिक हो जाती कि ये सारी फसल को खा जाते। घास के मैदान में फुदकने वाला मेंढक व्यर्थ का जंतु प्रतीत होता है, लेकिन मक्खी-मच्छरों को खाकर पर्यावरण के संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान देता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि खाद्य श्रृंखला को तोड़ने पर मनुष्य को हानि ही हानि होती है। इससे पर्यावरण का संतुलन बिगड़ता है। यह तो रही वन और कृषि योग्य भूमि के परतंत्र की बात। जलीय परतंत्र को देखें तो समुद्र में खाद्य श्रृंखला इस प्रकार रहती है- हरी शैवाल उत्पादक होती है। शैवाल को छोटी मछलियां और छोटी मछलियों को बड़ी मछलियां खा जाती हैं।
इस प्रकार मछलियों की संख्या नियंत्रित रहती है, अन्यथा यदि छोटी मछली को बड़ी मछली न खाती तो मछलियों की संख्या बहुत अधिक बढ़ जाती है। फलस्वरूप समुद्र में मछलियों की भीड़ हो जाती और समुद्र का पर्यावरण ही गड़बड़ा जाता।
हरे वृक्ष प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में कार्बन डाईऑक्साइड को लेते हैं और ऑक्सीजन को निकालते हैं, इस प्रकार वातावरण को शुद्ध करते हैं। ऑक्सीजन सभी जंतुओं को सांस लेने के लिए अति आवश्यक है। मनुष्य ने अत्यधिक संख्या में वृक्षों को काट कर इस श्रृंखला को तोड़ा है जिसका परिणाम बाढ़, सूखा जैसी प्राकृतिक आपदाओं के रूप में तथा वायु-प्रदूषण के कारण विभिन्न बीमारियों के रूप में मनुष्य को सहन करना पड़ रहा है। पर्यावरण को सुरक्षित रखने के लिए आवश्यक है कि हम स्वाभाविक खाद्य श्रृंखलाओं में कोई व्यवधान उत्पन्न न करें।
जीव जीवस्य भोजनम् के अनुसार कोई जीव किसी का भक्षण करता है तो कोई दूसरा जीव उसका भक्षण कर जाता है। सभी समुचित संख्या में पृथ्वी पर उत्पन्न होते रहें, ताकि खाद्य श्रं=खलाएं सुचारू रूप से चलती रहें, इसके लिए समस्त जीवों का सरंक्षण करना मनुष्य का कर्त्तव्य है। मनुष्य के लिए जीव हत्या पाप है। मनुष्य अप्राकृतिक रूप से तो सर्वभक्षी है। वह सभी श्रेणी के जीव- जंतुओं को खा सकता है, लेकिन शारीरिक संरचना और प्राकृतिक स्वभाव के अनुसार वह शुद्ध शाकाहारी है। मांसाहार के लिए एवं शिकार के शौक में मनुष्य ने तमाम वन के जंतुओं का शिकार कर पर्यावरण के संतुलन को बिगाड़ा है। आज सभी मनुष्यों का यह धर्म है कि पर्यावरण के संरक्षण के लिए वे जीव-हत्या जैसे जघन्य अपराध से बचें, सभी जंतुओं को संरक्षण प्रदान करें, अधिक से अधिक वृक्ष लगाएं। हरे वृक्ष शाकाहारी और मांसाहारी जंतु सभी को यदि संरक्षण मिलता रहा तो खाद्य श्रृंखलाओं में कोई व्यवधान नहीं आएगा और इसी से पृथ्वी का पर्यावरण भी सुरिक्षत रह सकेगा। सरकार भी इसके लिए प्रयत्नशील है। इस प्रकार के पक्षी और अन्य जंतुओं के शिकार पर पूर्णत कानूनी रोक लगी हुई है। कानून अपनी जगह काम करता है, लेकिन बिना जन-चेतना के किसी भी सफलता की आशा रखना व्यर्थ है।
समाज के निर्माण में लगी समाज सेवी संस्थाओं को विभिन्न प्रचार माध्यमों से जन- चेतना जाग्रत करने में अपने समय, धन एवं श्रम का सदुपयोग करना चाहिए। विद्यालयों में छात्रों को पर्यावरण संरक्षण हेतु अपने दैनिक कार्यों में ऐसी आदतें डालने का प्रयास करना चाहिए, ताकि पृथ्वी का वातावरण सुन्दर, सुरम्य एवं मनमोहक बन सके। वृक्षारोपण एवं वन्य जीव संरक्षण का महत्व जन-जन को समझाने का प्रयास किया जाना चाहिए। चूंकि वृक्ष खाद्य श्रृंखला की प्रथम कड़ी हैं, अतपर्यावरण के संरक्षण में वृक्षों का सबसे अधिक महत्व है। अपने जन्म दिन पर, बच्चों के जन्मदिन पर, विवाह दिवस पर, विवाह की रजत जयंती पर अथवा अन्य मांगलिक अवसरों पर स्मृति के रूप में वृक्ष लगाने की स्वस्थ परंपरा आरंभ करने की आवश्यकता है। समाज को इस दिशा में सकारात्मक पहल कर इस प्रथा को स्थायित्व प्रदान करने का प्रयास करना चाहिए।
जैसे-गाय, भैंस, बकरी, भेड़, हाथी, ऊंट, खरगोश, बंदर ये सभी प्रथम श्रेणी के उपभोक्ता कहलाते हैं। प्रथम श्रेणी के उपभोक्ताओं को भोजन के रूप में खाने वाले जंतु मांसाहारी होते हैं और वे द्वितीय श्रेणी के उपभोक्ता कहलाते हैं। इसी प्रकार द्वितीय श्रेणी के उपभोक्ताओं को खाने वाले जंतु तृतीय श्रेणी के उपभोक्ता कहलाते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि ऊर्जा का प्रवाह सूर्य से हरे पौधों में, हरे पौधों से प्रथम श्रेणी के उपभोक्ताओं में और प्रथम श्रेणी के उपभोक्ताओं से द्वितीय श्रेणी के उपभोक्ताओं से और फिर उनसे तृतीय श्रेणी के उपभोक्ताओं की ओर होता है। सभी पौधे और जंतु वे चाहे किसी भी श्रेणी के हों, मरते अवश्य हैं। मरे हुए पौधों व जंतुओं को सड़ा-गलाकर नष्ट करने का कार्य जीवाणु और कवक करते हैं। जीवाणु और कवकों को हम अपघटक कहते हैं।
ऊर्जा के प्रवाह को जब हम एक पंक्ति के क्रम में रखते हैं तो खाद्य श्रृंखला बन जाती है। जैसे हरे पौधे-कीड़े-मकोड़े-सर्प-मोर। यह एक खाद्य श्रृंखला है। इसमें हरे पौधे उत्पादक, कीड़े प्रथम श्रेणी के उपभोक्ता, मेंढक द्वितीय श्रेणी का उपभोक्ता, सर्प तृतीय श्रेणी का उपभोक्ता और मोर चतुर्थ श्रेणी का उपभोक्ता है। इसी प्रकार की बहुत-सी खाद्य श्रृंखलाएं विभिन्न पारितंत्रों में पायी जाती हैं।
प्रकृति की व्यवस्था स्वयं में पूर्ण है। प्रकृति के सारे कार्य एक सुनिश्चित व्यवस्था के अतंर्गत होते रहते हैं। यदि मनुष्य प्रकृति के नियमों का अनुसरण करता है तो उसे पृथ्वी पर जीवन-यापन की मूलभूत आवश्यकताओं में कोई कमी नहीं रहती है। मनुष्य का दुश्चिंतन ही है, जो अपने संकीर्ण स्वार्थ के लिए प्रकृति का अति दोहन करता है, जिसके कारण प्रकृति का संतुलन डगमगा जाता है।
परिणामत बाढ़, सूखा जैसी आपदाएं भारी जान-माल की हानि पहुंचाती हैं। प्रकृति के स्वाभाविक कार्य में कोई बाधा न डाली जाए तो ही पर्यावरण को सुरक्षित रखा जा सकता है। यदि किसी खाद्य श्रृंखला को तोड़ दिया जाए, तो मनुष्य को हानि ही हानि होती है। उदाहरण के लिए एक वन में शेर भी रहते हैं और हिरन भी। खाद्य श्रृंखला के अनुसार हिरन प्रथम श्रेणी का उपभोक्ता और शेर द्वितीय श्रेणी का उपभोक्ता है। शेर हिरन को खाता रहता है। यदि शेरों का शिकार कर दिया जाए तो हिरन वन में बहुत अधिक संख्या में हो जाते हैं और उनके लिए वन की घास कम पड़ती है तो वे फसलों को हानि पहुंचाकर पर्यावरण के संतुलन को बिगाड़ देते हैं।
इसी प्रकार एक वन में से हिरनों का शिकार कर दिया जाए तो शेर को वन में भोजन न मिलने पर वह बस्ती की ओर आता है और नर भक्षी हो जाता है। जो खाद्य श्रृंखला प्राकृतिक रूप से चल रही थी, उसे तोड़ने पर पर्यावरण को सुरक्षित रखना संभव नहीं हो सकता है।
पर्यावरण के संरक्षण में अपघटक अर्थात् जीवाणु और कवकों का बहुत अधिक योगदान है। मरे हुए जीव-जंतुओं को सड़ा-गला कर अपघटन का कार्य ये ही करते हैं। यदि ये अपघटक न रहे होते तो इस पृथ्वी पर मरे हुए जीवों के ढेर लगे दिखाई देते और यह पृथ्वी मनुष्य के रहने योग्य नहीं रह जाती।
बहुत से जीव-जंतु हमें बिल्कुल अनुपयोगी और हानिकारक प्रतीत होते हैं, लेकिन वे खाद्य श्रृंखला की प्रमुख कड़ी होते हैं और उनका पर्यावरण के संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान होता है। जैसे कीड़े-मकोड़े पौधों के तनों और पत्तियों को खाकर फसलों को बहुत हानि पहुंचाते हैं। ये पक्षियों का भोजन बनकर पक्षियों से फसल को सुरक्षित रखते हैं और पक्षी इन कीड़ों को खाकर कीड़ों से फसल की रक्षा करते हैं। इन कीड़ों के अभाव में पक्षी फसलों को अपेक्षाकृत अधिक हानि पहुंचा सकते थे।
इसी प्रकार सांप मनुष्य को बड़ा हानिकारक और खतरनाक दिखाई देता है, लेकिन यह एक खाद्य श्रृंखला का महत्वपूर्ण अंग होने के कारण मानव जाति के लिए बड़ा उपयोगी है, किसानों का मित्र भी है। चूहा किसानों का शत्रु है, जो बहुत मात्रा में अन्न को खाकर बर्बाद कर देता है। सांप चूहों को खाकर उनकी संख्या को नियंत्रित करता रहता है। यदि खेतों में सांप न होते तो चूहों की संख्या इतनी अधिक हो जाती कि ये सारी फसल को खा जाते। घास के मैदान में फुदकने वाला मेंढक व्यर्थ का जंतु प्रतीत होता है, लेकिन मक्खी-मच्छरों को खाकर पर्यावरण के संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान देता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि खाद्य श्रृंखला को तोड़ने पर मनुष्य को हानि ही हानि होती है। इससे पर्यावरण का संतुलन बिगड़ता है। यह तो रही वन और कृषि योग्य भूमि के परतंत्र की बात। जलीय परतंत्र को देखें तो समुद्र में खाद्य श्रृंखला इस प्रकार रहती है- हरी शैवाल उत्पादक होती है। शैवाल को छोटी मछलियां और छोटी मछलियों को बड़ी मछलियां खा जाती हैं।
इस प्रकार मछलियों की संख्या नियंत्रित रहती है, अन्यथा यदि छोटी मछली को बड़ी मछली न खाती तो मछलियों की संख्या बहुत अधिक बढ़ जाती है। फलस्वरूप समुद्र में मछलियों की भीड़ हो जाती और समुद्र का पर्यावरण ही गड़बड़ा जाता।
हरे वृक्ष प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में कार्बन डाईऑक्साइड को लेते हैं और ऑक्सीजन को निकालते हैं, इस प्रकार वातावरण को शुद्ध करते हैं। ऑक्सीजन सभी जंतुओं को सांस लेने के लिए अति आवश्यक है। मनुष्य ने अत्यधिक संख्या में वृक्षों को काट कर इस श्रृंखला को तोड़ा है जिसका परिणाम बाढ़, सूखा जैसी प्राकृतिक आपदाओं के रूप में तथा वायु-प्रदूषण के कारण विभिन्न बीमारियों के रूप में मनुष्य को सहन करना पड़ रहा है। पर्यावरण को सुरक्षित रखने के लिए आवश्यक है कि हम स्वाभाविक खाद्य श्रृंखलाओं में कोई व्यवधान उत्पन्न न करें।
जीव जीवस्य भोजनम् के अनुसार कोई जीव किसी का भक्षण करता है तो कोई दूसरा जीव उसका भक्षण कर जाता है। सभी समुचित संख्या में पृथ्वी पर उत्पन्न होते रहें, ताकि खाद्य श्रं=खलाएं सुचारू रूप से चलती रहें, इसके लिए समस्त जीवों का सरंक्षण करना मनुष्य का कर्त्तव्य है। मनुष्य के लिए जीव हत्या पाप है। मनुष्य अप्राकृतिक रूप से तो सर्वभक्षी है। वह सभी श्रेणी के जीव- जंतुओं को खा सकता है, लेकिन शारीरिक संरचना और प्राकृतिक स्वभाव के अनुसार वह शुद्ध शाकाहारी है। मांसाहार के लिए एवं शिकार के शौक में मनुष्य ने तमाम वन के जंतुओं का शिकार कर पर्यावरण के संतुलन को बिगाड़ा है। आज सभी मनुष्यों का यह धर्म है कि पर्यावरण के संरक्षण के लिए वे जीव-हत्या जैसे जघन्य अपराध से बचें, सभी जंतुओं को संरक्षण प्रदान करें, अधिक से अधिक वृक्ष लगाएं। हरे वृक्ष शाकाहारी और मांसाहारी जंतु सभी को यदि संरक्षण मिलता रहा तो खाद्य श्रृंखलाओं में कोई व्यवधान नहीं आएगा और इसी से पृथ्वी का पर्यावरण भी सुरिक्षत रह सकेगा। सरकार भी इसके लिए प्रयत्नशील है। इस प्रकार के पक्षी और अन्य जंतुओं के शिकार पर पूर्णत कानूनी रोक लगी हुई है। कानून अपनी जगह काम करता है, लेकिन बिना जन-चेतना के किसी भी सफलता की आशा रखना व्यर्थ है।
समाज के निर्माण में लगी समाज सेवी संस्थाओं को विभिन्न प्रचार माध्यमों से जन- चेतना जाग्रत करने में अपने समय, धन एवं श्रम का सदुपयोग करना चाहिए। विद्यालयों में छात्रों को पर्यावरण संरक्षण हेतु अपने दैनिक कार्यों में ऐसी आदतें डालने का प्रयास करना चाहिए, ताकि पृथ्वी का वातावरण सुन्दर, सुरम्य एवं मनमोहक बन सके। वृक्षारोपण एवं वन्य जीव संरक्षण का महत्व जन-जन को समझाने का प्रयास किया जाना चाहिए। चूंकि वृक्ष खाद्य श्रृंखला की प्रथम कड़ी हैं, अतपर्यावरण के संरक्षण में वृक्षों का सबसे अधिक महत्व है। अपने जन्म दिन पर, बच्चों के जन्मदिन पर, विवाह दिवस पर, विवाह की रजत जयंती पर अथवा अन्य मांगलिक अवसरों पर स्मृति के रूप में वृक्ष लगाने की स्वस्थ परंपरा आरंभ करने की आवश्यकता है। समाज को इस दिशा में सकारात्मक पहल कर इस प्रथा को स्थायित्व प्रदान करने का प्रयास करना चाहिए।
No comments:
Post a Comment