Wednesday, November 10, 2010

बांधों से उजड़ती नदियां

बांधों से उजड़ती नदियां

प्रतिमत


हरीश चंदोला
उत्तराखंड में कोई नदी बची ही नहीं है, जिस पर बांध बनाकर जल-विद्युत परियोजना का कार्य न हो रहा या प्रस्तावित न हो। उत्तराखंड ने लगभग सभी नदियों को निजी कंपनियों के पास बिजली बनाने के लिए बेच दिया है। भागीरथी और अलकनंदा जैसी बड़ी नदियों पर तो पांच या उससे भी अधिक परियोजनाएं शुरू की जाने वाली हैं। यह सही है कि इन पर टिहरी जैसे बड़े बांध नहीं बनाए जाएंगे, लेकिन बिजली बनाने के लिए प्रत्येक पर एक छोटा बांध बनाना आवश्यक है, जो उनकी जलधारा को रोक उसे सुरंग या नहर में प्रवाहित कर सके, ताकि जल तब तेजी से नीचे जाकर बिजली पैदा करनेवाली चरखियों (टरबाइन्स) को घुमा सके।

ये छोटे बांध भी नदी की धारा को प्रभावित करते हैं। बदरीनाथ के पास लामबगड़ में अलकनंदा को रोकने के लिए एक छोटा बांध बनाया गया है, जहां से उसकी धारा को एक सुरंग में डाल 16 किलोमीटर नीचे 400 मेगावाट बिजली उत्पादित हो रही है। सुरंग में डालने के बाद बचा जल इतना कम है कि उसे नदी नहीं कहा जा सकता। इस राज्य में नदियों पर बननेवाली 145 सुरंगों के बाद जो जल बाहर बहेगा, वह इतना कम होगा कि उससे सिंचाई नहीं हो पाएगी, जो कि अभी हो रही है। सुरंगों के शुरू से अंत तक के भाग में नदियों की पुरानी सतह पर इतना कम पानी रह जाएगा कि उसकी नमी क्षेत्र के लिए कम पड़ जाएगी। नमी के अभाव से खेती-पाती, घास और वन सब प्रभावित हो सूखने लगेंगे। संभव है, ऐसा तुरंत न हो। लेकिन कुछ वर्षों में जब पहाड़ नमी की कमी से मरुभूमि हो जाएंगे, तब वहां जीवन के साधन समाप्त होने से मनुष्य शायद न रह पाएं। भूमिगत नहरों या सुरंगों के बनने से पानी के स्त्रोत समाप्त हो रहे हैं। पीने का पानी सतह पर आने के बजाय भूमिगत हो नीचे चला जा रहा है। सुरंगों के बनने से पहाड़ों की सतह पर बड़े़-बड़े परिवर्तन हो रहे हैं। जमीन धंस रही है, खेत और मकान ढह रहे हैं, घास-वनस्पति समाप्त हो रही है और वन्यजीव अपने स्थान छोड़ दूर चले जा रहे हैं।

इसका बड़ा उदाहरण जोशीमठ के सामने का चांई गांव है। उसके नीचे से एक 16 किलोमीटर की सुरंग बिजलीघर को चली गई है। सुरंग बनने से गांव के 20 घर टूट गए हैं, और 25 घरों में इतनी बड़ी दरारें आ गई हैं कि उनमें रहना सुरक्षित नहीं है। गांव के बीचोंबीच एक बड़ी दरार आ गई है, जिससे आर-पार जाने में कठिनाई हो रही है। पानी के सोते सूख गए हैं, ढलानों पर घास नहीं उपज रही, खेतों की पैदावार घट गई है। विस्थापितों के पुनर्वास का सवाल अलग है। यही सब कुछ टिहरी जनपद में भिलंगना नदी पर फलेंडा में बनती पन बिजली योजना में हो रहा है। यही हाल अन्य जगहों में भी होगा। राज्य क्या इतनी जगहों में इन समस्याओं को हल कर पाएगा? बिजली तो पैदा हो जाएगी, लेकिन लोगों का क्या होगा? सबसे पहले चांई गांव में पड़े दुष्प्रभाव का गहन अध्ययन होना चाहिए और यह पता करना चाहिए कि उससे और जगहों पर कैसे बचा जाए। जरूरी यह है कि जहां ऐसी योजनाएं चल रही या प्रस्तावित हैं, वहां की भूगर्भीय संरचना की पूरी जांच हो। पहले कहा जा रहा था कि हाथी पर्वत, जिससे सुरंग बनाकर विष्णुप्रयाग योजना से बिजली बनाई जाएगी, बहुत मजबूत चट्टानों का बना है। लेकिन सुरंग बनने के बाद उसके ऊपर चांई में घर और खेत टूटने पर पता लगा कि चट्टानें उतनी मजबूत नहीं थीं।

चांई के उजड़ने के सभी कारणों की जांच करने के बजाय शासन केवल एक ही पहलू पर विचार कर रहा है कि जिन लोगों के घर टूट गए हों, उनके पुनर्वास की व्यवस्था कहां की जाए। कहा जा रहा है कि उन्हें कहीं और जमीन दी जाएगी और घर बनाने के लिए 80,000 रुपये। क्या इतने धन से घर बन पाएगा? अगर उन्हें खेती के लायक जमीन न दी गई, तो वे खाएंगे क्या? पशु कहां रखेंगे? कुछ वर्ष पहले तक चांई गांव जोशीमठ को ही नहीं, बदरीनाथ धाम को भी दूध पहुंचाता था। आज उस गांव की गाएं दूर टीन के छप्परों के नीचे भूख से मर रही हैं।

हाथी पर्वत के सामने के पहाड़ पर 500 मेगावाट की विष्णुगाड-धौली पन बिजली परियोजना की शुरुआत हो गई है। इसमें भी तपोवन से जोशीमठ शहर के नीचे तक धौली नदी का पानी लाने के लिए 16 किलोमीटर सुरंग बनेगी। यह सुरंग इस शहर के नीचे से ही नहीं, लगभग 11 गांवों-बस्तियों के नीचे से जाएगी। उत्तर प्रदेश भूगर्भीय विभाग के अनुसार जोशीमठ बर्फ के लाए पुराने मलबे पर बसा है। इसके नीचे सुरंग बनाने से वह ढह ही नहीं जाएगा, दो-तीन किलोमीटर नीचे विष्णुप्रयाग के गर्त में भी पहुंच सकता है। जोशीमठ में पीने का पानी उसके ऊपर के औली बांज वन से आता है, जिसके नीचे से यह सुरंग जाएगी। तय है कि पानी के वे सोते सुरंग की खुदाई से भूमिगत हो जाएंगे और शहरवालों को पीने का पानी नहीं मिल पाएगा।

बिजली बनाकर बेचने से करोड़ों रुपये का लाभ होता है। एक बार सुरंग बना ली और बिजली घर स्थापित कर लिया, तो फिर कंपनी को अधिक खर्च नहीं करना पड़ता। नदी का वह पानी, जिससे बिजली बनती है, मुफ्त में मिलता है। ठीक है, बिजली की जरूरत है। लेकिन गांवों, बस्तियों और पर्यावरण को बरबाद कर मिलने वाली बिजली कुछ ज्यादा ही महंगी नहीं है?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

साभार – अमर उजाला

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