पत्रकार यानी लोकतंत्र का चौथा धब्बा...
प्रभात गौड़मामा खबरुद्दीन से पार पाना बेहद कठिन होता है, लेकिन उस दिन मामा घर पर नहीं थे। उनका बेटा मोनू राम मिल गया। बोला, 'भइया, ये बुद्धिजीवी लोग कौन होते हैं?' दिल ने कहा, कहीं मामा की जगह आज उनके बेटे से तो मुठभेड़ नहीं हो जाएगी, दिमाग बोला, हो भी गई तो इसे तो रपटा ही लूंगा।
मैंने समझाया, 'अरे ये विचारक किस्म के लोग होते हैं। यह वह वर्ग है जो देश और समाज के बारे में सोचता है। किसी भी राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय, सामाजिक, आर्थिक विषय पर बात कर लो, तुम्हारे जैसों की तो बखिया उधेड़ देंगे। यह तबका देश और समाज के बारे में सोचता है। समाज को बेहतरी की ओर ले जाना इनका लक्ष्य होता है और सामाजिक कुरीतियां इन्हें छू भी नहीं पातीं।'
मोनू राम ने पूछा, 'ओह.. फिर तो ये लोग आम आदमी से कुछ हटकर हुए। एक तरह से समाज और देश के लीडर और पथ-प्रदर्शक।'
'और क्या,' मेरी आवाज में दंभ था। मोनू राम ने तुरंत सवाल दागा, 'तो क्या पत्रकारों को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है?'
'अरे पत्रकार ही तो सबसे बड़े बुद्धिजीवी होते हैं। उनके पास विज़न होता है। हर सूचना को पाठकों तक पहुंचाकर वे समाज के प्रति महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभाते हैं। किसी और प्रफेशन के लोग कर सकते हैं ऐसा?' मैंने कहा।
मोनू राम बोला, 'पर भैया मेरा एक दोस्त एक अखबार के फीचर्स विभाग में रिपोर्टर है। वह जब असाइनमेंट पर जाता है, तो आयोजकों से गाड़ी मंगा लेता है, पूरे दिन के लिए। इवेंट कवर करके पूरे दिन गाड़ी को अपने पर्सनल कामों के लिए यूज करता है। इवेंट से बगैर खाए लौटने में उसे बेइज्जती महसूस होती है और हां, क्या मजाल कि कोई उसका गिफ्ट गड़प कर जाए। इससे भी मजे की बात यह है कि इवेंट वह प्रेस रिलीज देखकर लिखता है।' मुझ पर घड़ों पानी पड़ गया। भावों को छिपाते हुए मैंने कहा, 'अरे सब थोड़े ही करते हैं ऐसा। वो 'धमाका दर्पण' टाइप के किसी सड़क छाप अखबार का छुटभैया पत्रकार होगा।'
'पर भैया बड़े पत्रकार तो और भी बड़े गुल खिलाते हैं। मेरा मुंह न खुलवाओ तो ही अच्छा है। देखो भइया, मैंने कुछ साल पहले तक एक ट्राऐंगल बनाया था, जिसके तीनों कोनों पर मैं पुलिस, नेता और क्रिमिनल्स को रखता था। अब इस ट्राएंगल को मैंने रेक्टऐंगल बना दिया है और चौथे कोने पर पत्रकारों को रख दिया है। आप लोग जर्नलिस्टों को लोकतंत्र का चौथा खंभा कहते हैं। मैं तो उन्हें लोकतंत्र का चौधा धब्बा मानता हूं,' मोनू राम के स्वर अब ज्यादा तल्ख हो चुके थे।
'यह तो देख लिया, यह नहीं देखता कि कितने नॉलेजेबल होते हैं ये लोग।' मैंने पत्रकारों की एक और खूबी को ब्रह्मास्त्र के रूप में यूज किया।
'काहे की नॉलेज? क्राइम कवर करने वाली एक पत्रकार को यह नहीं मालूम कि डीसीपी बड़ा होता है या एसीपी। एक अखबार में इंटरव्यू देने आए एक जर्नलिस्ट ने एक सवाल के जवाब में कहा कि क्वात्रोकी एक जहाज का नाम है। एक और मोहतरमा ने तो हद कर दी। एक फंक्शन में शिवराज पाटिल आए थे। वह उनसे बोलीं - सर आपकी अगली अलबम कौन सी आ रही है। दरअसल, उन्हें लगा कि वह गुलजार हैं। कुछ और उदाहरण दूं क्या?' मोनू राम आरपार के मूड में था।
'अच्छा अगर नॉलेज नहीं है, तो अखबारों में इतने बड़े-बड़े लेख कैसे छप जाते हैं?' मैंने बचकाना तर्क दिया।
मोनू राम तपाक से बोला, 'अरे यार, इंटरनेट किसलिए है? वैसे भी मैंने तो सुना है कि हिंदी के पत्रकार अंग्रेजी अखबारों से चीजों को टापते हैं और इंग्लिश के पत्रकार विदेशी अखबारों से।'
मैंने अगला तीर छोड़ा, 'तू कुछ भी बोल, लेकिन सच यही है कि पत्रकार की देश और समाज के प्रति रेस्पॉन्सिबिलिटी होती है।'
'और अकाउंटेबिलिटी किसके प्रति होती है?' पहली बार मोनू राम को इतना उग्र देखा था।
'अपने रीडर्स और ऑडियंस के प्रति' मैंने तुरंत कहा।
'नाग-नागिन के खेल और दुनिया खत्म होने जैसी बकवास खबरें दिखाकर। है ना?' मोनू राम ने मुझे चिढ़ाया।
मैंने कहा, 'तू नहीं समझेगा। ये सब टीआरपी का चक्कर है। टीरआरपी बढ़ेगी, तब ही तो चैनल चलेगा। फायदा नहीं कमाएंगे क्या?'
'अरे बिल्कुल कमाओ फायदा, पर फिर समाज, देश, क्या हुआ, क्या होना चाहिए, क्या सही, क्या गलत जैसी बड़ी-बड़ी किताबी बातें क्यों करते हो भाई और करते हो तो थोड़ा-बहुत अपनी जिंदगी में भी तो उतारो उन्हें। वैसे भी मेरा मानना है कि इस देश को आतंकवाद से भी बड़ा खतरा बुद्धिजीविता से है।'
मुझे खिसियाहट होने लगी। मैं उठकर चल दिया। घर जाते वक्त मोनू राम के बारे में मुझे वर्ड्सवर्थ का एक कथन याद आ रहा था - 'द चाइल्ड इज फादर ऑफ द मैन'। कमबख्त, वाकई मामा का भी बाप निकला।
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