Thursday, November 11, 2010

by Punya Prasun Bajpai at 11:13 AM

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Saturday, October 9, 2010

बिहार चुनाव की खामोशी

जहां राजनीति का ककहरा अक्षर ज्ञान से पहले बच्चे सीख लेते हों, वहां चुनाव का मतलब सिर्फ लोकतंत्र को ढोना भर नहीं होता। उसका अर्थ सामाजिक जीवन में अपनी हैसियत का एहसास करना भी होता है। लेकिन इस बार ऐसा कुछ भी नहीं है तो मतलब साफ है राजनीति की हैसियत अब चुनाव से खिसक कर कहीं और जा रही है। चुनाव के ऐलान के बाद से बिहार में जिस तरह की खामोशी चुनाव को लेकर है, उसने पहली बार वाकई यह संकेत दिये हैं कि राजनीतिक तौर पर सत्ता की महत्ता का पुराना मिजाज बदल रहा है। लालू यादव के दौर तक चुनाव का मतलब सत्ता की दबंगई का नशा था। यानी जो चुनाव की प्रक्रिया से जुड़ा उसकी हैसियत कहीं न कहीं सत्ताधारी सरीखी हो गयी। और सत्ता का मतलब चुनाव जीतना भर नहीं था, बल्कि कहीं भी किसी भी पक्ष में खड़े होकर अपनी दबंगई का एहसास कराना भी होता है।

लालू 15 बरस तक बिहार में इसीलिये राज करते रहे क्योंकि उन्होंने सत्ता के इस एहसास को दिमागी दबंगई से जोड़ा। लालू जब सत्ता में आये तो 1989-90 में सबसे पहले यही किस्से निकले की कैसे उंची जाति के चीफ सेक्रेट्ररी से अपनी चप्पल उठवा दी। या फिर उंची जाति के डीजीपी को पिछड़ी जाति के थानेदार के सामने ही माफी मंगवा दी। यानी राजनीतिक तौर पर लालू यादव ने नेताओ को नहीं बल्कि जातियों की मानसिकता में ही दबंगई के जरीये समूचे समाज के भीतर सत्ता की राजनीति के उस मिजाज को जगाया, जिसमें चुनाव में जीत का मतलब सिर्फ सत्ता नहीं बल्कि अपने अपने समाज में अपनो को सत्ता की चाबी सौंपना भी था। सत्ता की कई चाबी का मतलब है लोकतंत्रिक व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने की ताकत। यानी पुलिस प्रशासन से लेकर व्यवस्था बनाये रखने वाले किसी भी संस्थान की हैसियत चाहे मायने रखे लेकिन चुनौती देने और अपने पक्ष में हर निर्णय को कराने की क्षमता दबंगई वाले सत्ताधारी की ही है।

चूंकि जातीय समीकरण के आसरे चुनाव जीतने की मंशा चाहे लालू प्रसाद यादव या नीतीश कुमार में हो, लेकिन लालू के दौर में जातीय समीकरण का मतलब हारी हुई जातियों के भीतर भी दबंगई करता एक नेता हमेशा रहता था। फिर यह सत्ता आर्थिक तौर पर अपने घेरे में यानी अपने समाज में रोजगार पैदा करने का मंत्र भी होता है। इसलिये चुनाव का मतलब बिहार में सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को प्रभावित करने वाला भी है। लेकिन नीतीश कुमार के दौर में यह परिस्थितियां न सिर्फ बदली बल्कि नीतीश की राजनीति और इस दौर की आर्थिक परिस्थितियो ने दबंगई सत्ता के तौर तरीको को ही बदल दिया। 1990 से 1995 तक सत्ता की जो दबंगई कानून व्यवस्था को खारिज कर रही थी, बीते पांच बरस में नीतीश ने समाज के भीतर जातियों के उस दबंग मिजाज को ही झटका दिया और राजनीतिक बाहुबली इसी दौर में कानून के शिकंजे में आये।

सवाल यह नहीं है कि नीतीश कुमार के शासन में करीब 45 हजार अपराधियों को पकड़ा गया या कहें कानून के तहत कार्रवाई की गई। असल में अपराधियो पर कार्रवाई के दौरान वह राजनीति भी खारिज हुई जिसमें सत्ता की खुमारी सत्ताधारी जातीय दबंगई को हमेशा बचा लेती थी। यानी पहली बार मानसिक तौर पर जातीय सत्ता के पीछे आपराधिक समझ कत्म हुई। यह कहना ठीक नहीं होगा कि बिहार में जातीय समिकरण की राजनीति ही खत्म हो गई। हकीकत तो यह है कि राजद या जेडीयू में जिस तरह टिकटों की मांग को लेकर हंगामा हो रहा है, वह जातीय समीकरण के दुबारा खड़े होने को ही जतला रहा है। यानी अपराध पर नकेल कसने या बाहुबलियों को सलाखों के पीछे अगर बीते पांच साल में नीतीश सरकार ने भेजा है तो भी जातीय समीकरण को वह भी नहीं तोड़ पाये हैं। वहीं नीतीश के दौर में एक बडा परिवर्तन बाजार अर्थव्यवस्था के फैलने का भी है। सिर्फ सड़कें बनना ही नहीं बल्कि उनपर दौडती गाड़ियों की खरीद फरोख्त में बीत पांच साल में करीब तीन सौ फिसदी की वृद्धि लालू यादव के 15 साल के शासन की तुलना में बढ़ी। और रियल इस्टेट में भी बिहार के शहरी लोगों ने जितनी पूंजी चार साल में लगायी, उतनी पूंजी 1990 से 2005 के दौरान भी नहीं लगी।

यह परिवर्तन सिर्फ बिहारियो के अंटी में छुपे पैसे के बाहर आने भर का नहीं है बल्कि पुरानी मानसिकता तोड़ कर उपभोक्ता मानसिकता में ढलने का भी है। इस मानसिकता में बदलाव की वजह ग्रामीण क्षेत्रों या कहें खेती पर टिकी अर्थव्यवस्था को लेकर नीतीश सरकार की उदासी भी है। नीतीश कुमार ने चाहे मनमोहन इक्नामिक्स को बिहार में अभी तक नहीं अपनाया है, लेकिन मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था में जिस तरह बाजार और पूंजी को महत्ता दी जा रही है, नीतीश कुमार उससे बचे भी नहीं है। इसका असर भी यही हुआ है कि खेती अर्थव्यस्था को लेकर अभी भी बिहार में कोई सुधार कार्यक्रम शुरु नहीं हो पाया है। जमीन उपजाऊ है और बाजार तक पहुंचने वाले रास्ते ठीक हो चले हैं, इसके अलावे कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर नही बनाया गया। बल्कि नीतीश कुमार की विश्वास यात्रा पर गौर करें तो 31 जिलों में 12416 योजनाओं का उद्घाटन नीतिश कुमार ने किया। सभी योजनाओ की राशि को अगर मिला दिया जाये तो वह 35 अरब 51 करोड 95 लाख के करीब बैठती है। इसमें सीधे कृषि अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाली योजनायें 18 फीसदी ही हैं। जबकि नीतीश कुमार ने 25 दिसंबर 2009 से 25 जून 2010 के दौरान जो भी प्रवास यात्रा की उसमें ज्यादातर जगहों पर उनके टेंट गांवों में ही लगे। यानी जो ग्रामीण समाज सत्ता की दबंगई लालू यादव के दौर में देखकर खुद उस मिजाज में शरिक होने के लिये चुनाव को अपना हथियार मानता और बनाता था...वही मिजाज नीतीश के दौर में दोधारी तलवार हो गया। यानी चुनाव के जरीये सत्ता की महत्ता विकास की ऐसी महीन लकीर को खींचना है, जिसमें खेती या ग्रामीण जीवन कितना मायने रखेगा यह दूर की गोटी हो गई। यानी देश में मनमोहन इक्नामिक्स में बजट तैयार करते वक्त अब वित्त मंत्री को कृषि से जुड़े समाज की जरुरत नहीं पड़ती और बिहार में नीतिश की इक्नामिक्स लालू के दौर की जर्जरता की नब्ज पकड कर विकास को शहरी-ग्रामीण जीवन का हिस्सा बनाकर राजनीति भी साधती है और मनमोहन के विकास की त्रासदी में बिहार का सम्मान भी चाहती है।

यानी चुनाव को लेकर बिहार में बदले बदले से माहौल का एक सच यह भी है कि राजनीति अब रोजगार नहीं रही। रोजगार का मतलब सिर्फ रोजी-रोटी की व्यवस्था भर नहीं है बल्कि राजनीतिक कैडर बनाने की थ्योरी भी है और सत्ता को समानांतर तरीके से चुनौती देना भी है। दरअसल, नीतीश के सुशासन का एक सच यह भी है कि समूची सत्ता ही नीतीश कुमार ने अपने में सिमटा ली है और खुद नीतीश कुमार सत्ताधारी होकर भी दबगंई की लालू सोच से हटकर खुद को पेश कर रहे हैं, जिनके वक्त सत्ता का मतलब जाति या समाज पर धाक होती थी। बिहार में राजनीतिक विकास का चेहरा इस मायने में भी पारपंरिक राजनीति से हटकर है, क्योकि नीतीश कुमार की करोड़ों-अरबो की योजनाएं बिहारियों को सरकार की नीतियों के भरोसे ही जीवन दे रही हैं। जो कि पहले जातीय आधार पर जीवन देती थी। मसलन राज्यभर के शिक्षको के वेतन की व्यवस्था कराने का ऐलान हो या फिर दो लाख से ज्यादा प्रारंभिक शिक्षकों की नियुक्ति या फिर 20 हजार से ज्यादा रिटायर सौनिकों को काम में लगाना। और इसी तरह कमोवेश हर क्षेत्र के लिये बजट की व्यवस्था कर सभी तबके को राहत देने की बात। लेकिन यह पूरी पहल मनरेगा सरीखी ही है। जिसमें लोगो को एकमुश्त वेतन तो मिल रहा है लेकिन इसका असर राज्य के विकास पर क्या पड़ रहा है, यह समझ पाना वाकई मुश्किल है। क्योंकि सारे बजट लक्ष्यविहिन है। एक लिहाज से कहें तो वेतन या रोजगार के साधन खड़ा न कर पाने की एवज में यह धन का बंटवारा है। लेकिन इसका असर भी राजनीति की पारंपरिक धार को कम करता है और राजनीति को किसी कारपोरेट की तर्ज पर देखने से भी नहीं कतराता। कहा यह भी जा सकता है कि बिहार में भी पहली बार चुनाव के वक्त यह धारणा ही प्रबल हो रही है कि जिसके पास पूंजी है, वह सबसे बडी सत्ता का प्रतीक है। और सत्ता के जरीये पूंजी बनाना अब मुश्किल है।

कहा यह भी जा सकता है कि विकास के जिस ढांचे की बिहार में जरुरत है, उसमें मनमोहन सिंह का विकास फिट बैठता नहीं और नीतीश कुमार के पास उसका विकल्प नहीं है। और लालू यादव की पारंपरिक छवि नितीश के अक्स से भी छोटी पड़ रही है। इसका चुनावी असर परिवर्तन के तौर पर यही उभरा है कि जातियों के समीकरण में पांच बरस पहले जो अगड़ी जातियां नीतिश के साथ थीं, अब उनके लिये कोई खास दल मायने नहीं रख रहा। जो कांग्रेस पांच बरस पहले अछूत थी, अब उसे मान्यता मिलने लगी है। और विकास पहली बार एक मुद्दा रहा है। लेकिन यह तीनों परिवर्तन भी बिहार की राजनीतिक नब्ज से दूर हैं, जहां जमीन और खेती का सवाल अब भी सबसे बड़ा है। यानी भूमि सुधार से लेकर खेती को विकास के बाजार मॉडल के विकल्प के तौर पर जो नेता खड़ा करेगा, भविष्य का नेता वहीं होगा। नीतीश कुमार ने तीन साल पहले भू-अर्जन पुनस्थार्पन एंव पुनर्वास नीति के जरीये पहल करने की कोशिश जरुर की लेकिन महज कोशिश ही रही क्योकि बिहार की पारंपरिक राजनीति की आखिरी सांसें अभी भी चल रही हैं। शायद इसीलिये इसबार चुनाव में जेपी की राह से निकले नीतीश-लालू आमने-सामने खड़े हैं। जबकि बिहार की राह जेपी से आगे की है और संयोग से यह रास्ता कांग्रेस के युवराज भी समझ पा रहे हैं, इसलिये वह युवा राजनीति को उस बिहार में खोज रहे हैं, जहां राजनीति का ककहरा बचपन में ही पढ़ा जाता है।

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