प्रेमचंद की जयंती पर विशेष
Friday, August 01 2008
जमींदारी, कर्जखोरी, गरीबी और उपनिवेशवाद को उकेरने वाले आदर्शोन्मुख यथार्थवादी साहित्य के कालजयी रचनाकार प्रेमचंद को बांग्ला साहित्यकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने उपन्यास सम्राट का नाम दिया था।
कोलकाता में वणिक प्रेस के महावीर प्रसाद पोद्दार प्रेमचंद की रचनाएं बांग्ला साहित्यकार शरत बाबू को पढ़ने के लिए देते थे। एक दिन जब वह शरत बाबू के घर गये तो उन्होंने देखा कि शरत बाबू प्रेमचंद का कोई उपन्यास पढ़ रहे थे।
उत्सुकतावश उन्होंने उपन्यास उठाकर देखा तो शरत बाबू ने उस पर अपनी हस्तलिपि में 'उपन्यास सम्राट प्रेमचंद' लिख रखा था। बस इसके बाद से पोद्दार ने प्रेमचंद को उपन्यास सम्राट प्रेमचंद लिखना प्रारंभ कर दिया।
प्रेमचंद के बेटे और साहित्यकार अमृतराय के अनुसार वह उर्दू मासिक पत्रिका 'जमाना' के संपादक मुंशी दयानारायण निगम की सलाह पर धनपतराय से प्रेमचंद बने लेकिन उन्होंने मुंशी शब्द का स्वयं कभी प्रयोग नहीं किया।
यह शब्द सम्मान सूचक है जिसे उनके प्रशंसको ने लगा दिया होगा। हालांकि कहते हैं कि मासिक पत्रिका 'हंस' में प्रेमचंद और कन्हैयालाल मुंशी दो सह संपादक थे चूंकि संपादक का नाम प्रेमचंद मुंशी छपता था जिसके चलते कालांतर में उनका नाम मुंशी प्रेमचंद लोकप्रिय हो गया।
प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 में वाराणसी के करीब लमही गांव में हुआ था। उनके पिता अजायबराय डाकमुंशी थे। प्रेमचंद का पहला विवाह सफल नहीं रहा और उन्होंने प्रगतिशील परंपरा के अनुरूप बाल विधवा शिवरानी से 1906 में विवाह किया।
सरस्वती पत्रिका के दिसंबर अंक में 1915 में प्रेमचंद की पहली कहानी "सौंत' प्रकाशित हुई थी और 1936 में अंतिम कहानी "कफन" छपी थी। बीस साल की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं।
उन्होंने हिन्दी में कल्पना के स्थान पर यथार्थवाद की शुरूआत की। हिन्दी साहित्य के स्त्री विमर्श और दलित चिंतन की जड़े प्रेमचंद के साहित्य में काफी गहराई से देखी जा सकती हैं। अपने जीवनकाल में उन्होंने 15 उपन्यास, 300 से अधिक कहानियां, 3 नाटक, 10 अनुवाद, 7 बाल पुस्तकें और अनेकों लेख लिखे लेकिन उन्हें शोहरत उपन्यास और कहानी में मिली।
उर्दू के संस्कार लेकर आये प्रेमचंद हिन्दी के युगान्तकारी रचनाकार बने। उनका निधन 8 अक्टूबर 1936 में हुआ उस वक्त वह उपन्यास "मंगलसूत्र" लिख रहे थे जो अधूरा रह गया।
दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के प्रमुख सुधीश पचौरी ने कहा कि प्रेमचंद को केवल ग्रामीण परिवेश का रचनाकार कहना सही नहीं है। उनके साहित्य में पूरा भारत झांकता है और बड़े नगरों का भी वर्णन मिलता है।
उन्होंने कहा कि हर साहित्यकार अपने युग का धर्म निभाता है और प्रेमचंद ने भी ऐसा ही किया। उनके दौर में किसानों की समस्याएँ मुंह फैलाये खड़ी थी। इसीलिए उस दौर में प्रेमचंद ने किसानों की समस्याओं पर अधिक लिखा।
उन्होंने कहा कि शहरीकरण के चलते रचनाकार शहरों से आये हैं। शहरों और मध्यमवर्गीय समाज की समस्या को उठा रहे हैं। आदिवासी जीवन पर लिखने वाले रचनाकारों की आजकल अधिकता बढ़ी है जो प्रेमचंद के साहित्य में नहीं दिखाई देता।
प्रसिद्ध साहित्यकार राजेन्द्र यादव ने कहा कि प्रेमचंद की 70 फीसदी से अधिक कहानियां संघर्ष और बदलते समाज को चित्रित करती हैं। प्रेमचंद के अनुगामी भी उसी यातना और संघर्ष पर लिखकर उनकी विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं।
उन्होंने कहा कि वक्त के साथ एक बड़ा अंतर यह आया है कि प्रेमचंद के साहित्य में अनुभूति दिखाई देती है जबकि वर्तमान समय के लेखकों में कहीं न कहीं इसका अभाव झलकता है।
युवा लेखकों से उन्होंने कहा कि वे महान रचनाकार प्रेमचंद की विषयवस्तु और दृष्टिकोण को समझने का प्रयास करें ताकि जीवन के संघर्ष की यथार्थ तस्वीर प्रस्तुत की जा सके।
जमींदारी, कर्जखोरी, गरीबी और उपनिवेशवाद को उकेरने वाले आदर्शोन्मुख यथार्थवादी साहित्य के कालजयी रचनाकार प्रेमचंद को बांग्ला साहित्यकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने उपन्यास सम्राट का नाम दिया था।
कोलकाता में वणिक प्रेस के महावीर प्रसाद पोद्दार प्रेमचंद की रचनाएं बांग्ला साहित्यकार शरत बाबू को पढ़ने के लिए देते थे। एक दिन जब वह शरत बाबू के घर गये तो उन्होंने देखा कि शरत बाबू प्रेमचंद का कोई उपन्यास पढ़ रहे थे।
उत्सुकतावश उन्होंने उपन्यास उठाकर देखा तो शरत बाबू ने उस पर अपनी हस्तलिपि में 'उपन्यास सम्राट प्रेमचंद' लिख रखा था। बस इसके बाद से पोद्दार ने प्रेमचंद को उपन्यास सम्राट प्रेमचंद लिखना प्रारंभ कर दिया।
प्रेमचंद के बेटे और साहित्यकार अमृतराय के अनुसार वह उर्दू मासिक पत्रिका 'जमाना' के संपादक मुंशी दयानारायण निगम की सलाह पर धनपतराय से प्रेमचंद बने लेकिन उन्होंने मुंशी शब्द का स्वयं कभी प्रयोग नहीं किया।
यह शब्द सम्मान सूचक है जिसे उनके प्रशंसको ने लगा दिया होगा। हालांकि कहते हैं कि मासिक पत्रिका 'हंस' में प्रेमचंद और कन्हैयालाल मुंशी दो सह संपादक थे चूंकि संपादक का नाम प्रेमचंद मुंशी छपता था जिसके चलते कालांतर में उनका नाम मुंशी प्रेमचंद लोकप्रिय हो गया।
प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 में वाराणसी के करीब लमही गांव में हुआ था। उनके पिता अजायबराय डाकमुंशी थे। प्रेमचंद का पहला विवाह सफल नहीं रहा और उन्होंने प्रगतिशील परंपरा के अनुरूप बाल विधवा शिवरानी से 1906 में विवाह किया।
सरस्वती पत्रिका के दिसंबर अंक में 1915 में प्रेमचंद की पहली कहानी "सौंत' प्रकाशित हुई थी और 1936 में अंतिम कहानी "कफन" छपी थी। बीस साल की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं।
उन्होंने हिन्दी में कल्पना के स्थान पर यथार्थवाद की शुरूआत की। हिन्दी साहित्य के स्त्री विमर्श और दलित चिंतन की जड़े प्रेमचंद के साहित्य में काफी गहराई से देखी जा सकती हैं। अपने जीवनकाल में उन्होंने 15 उपन्यास, 300 से अधिक कहानियां, 3 नाटक, 10 अनुवाद, 7 बाल पुस्तकें और अनेकों लेख लिखे लेकिन उन्हें शोहरत उपन्यास और कहानी में मिली।
उर्दू के संस्कार लेकर आये प्रेमचंद हिन्दी के युगान्तकारी रचनाकार बने। उनका निधन 8 अक्टूबर 1936 में हुआ उस वक्त वह उपन्यास "मंगलसूत्र" लिख रहे थे जो अधूरा रह गया।
दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के प्रमुख सुधीश पचौरी ने कहा कि प्रेमचंद को केवल ग्रामीण परिवेश का रचनाकार कहना सही नहीं है। उनके साहित्य में पूरा भारत झांकता है और बड़े नगरों का भी वर्णन मिलता है।
उन्होंने कहा कि हर साहित्यकार अपने युग का धर्म निभाता है और प्रेमचंद ने भी ऐसा ही किया। उनके दौर में किसानों की समस्याएँ मुंह फैलाये खड़ी थी। इसीलिए उस दौर में प्रेमचंद ने किसानों की समस्याओं पर अधिक लिखा।
उन्होंने कहा कि शहरीकरण के चलते रचनाकार शहरों से आये हैं। शहरों और मध्यमवर्गीय समाज की समस्या को उठा रहे हैं। आदिवासी जीवन पर लिखने वाले रचनाकारों की आजकल अधिकता बढ़ी है जो प्रेमचंद के साहित्य में नहीं दिखाई देता।
प्रसिद्ध साहित्यकार राजेन्द्र यादव ने कहा कि प्रेमचंद की 70 फीसदी से अधिक कहानियां संघर्ष और बदलते समाज को चित्रित करती हैं। प्रेमचंद के अनुगामी भी उसी यातना और संघर्ष पर लिखकर उनकी विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं।
उन्होंने कहा कि वक्त के साथ एक बड़ा अंतर यह आया है कि प्रेमचंद के साहित्य में अनुभूति दिखाई देती है जबकि वर्तमान समय के लेखकों में कहीं न कहीं इसका अभाव झलकता है।
युवा लेखकों से उन्होंने कहा कि वे महान रचनाकार प्रेमचंद की विषयवस्तु और दृष्टिकोण को समझने का प्रयास करें ताकि जीवन के संघर्ष की यथार्थ तस्वीर प्रस्तुत की जा सके।
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