कबीरा खड़ा बाजार में: कबीर दास और उनके दोहे
ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर कहने वाले कबीर दास जैसा व्यक्तित्व शायद ही किसी और हिन्दी साहित्यकार का होगा। स्कूल के वक्त भी वो कबीर और उनके दोहे ही थे जो आसानी से समझ में आते थे। उनका व्यक्तित्व अनुपम तो था ही लेकिन उनके जन्म को लेकर कई किंवदन्तियाँ भी प्रचलित थी।कुछ लोगों का मानना है कि वो काशी में किसी गरीब विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न हुए फिर उसने बदनामी की डर से नवजात शिशु को लहरतारा ताल के पास फेंक दिया, जहाँ से नीरु नाम का जुलाहा उन्हें अपने घर ले आया। फिर नीरू और उसकी पत्नी नीमा ने उनका पालन-पोषण किया।
वहीं कुछ कबीर पंथियों का मानना है कि वो काशी के लहरतारा तालाब में उत्पन्न मनोहर पुष्प कमल के ऊपर बालक के रुप में पाये गये। ऐसे ही एक प्राचीन ग्रंथ के अनुसार किसी प्रतीति नाम देवाङ्गना के गर्भ से भक्तराज प्रहलाद ही कबीर के रुप में प्रकट हुए थे। लेकिन ये तो तय है कि कबीर दास और लहरतारा तालाब में एक संबन्ध तो था ही।
कबीर का जन्म १२९७ में ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन हुआ वो निडर और खरा खरा बोलने वाले कवि थे। जिन्हें बाद में संत का दर्जा भी प्राप्त हुआ। उन्होंने कभी भी किसी सम्प्रदाय और रुढियों की परवाह नही करी। यही नही उन्होंने हिंदू-मुसलमान सभी समाज में व्याप्त रुढिवादिता तथा कट्टपरंथ का खुलकर विरोध किया। १४१० में देह त्यागने से पहले काशी छोड़कर मगहर चले जाने की वजह भी उसी रूढ़िवादिता को उनका जवाब था, उस समय ये मान्यता थी कि काशी में मरने वाले को मोक्ष प्राप्त होता है। मगहर में कबीर की समाधि भी है और यहाँ हिन्दू मुसलमान दोनों श्रद्धा से सिर नवाने आते हैं।
कबीर दास वास्तव में फकीर थे वाणी से भी पहनावे और रहन सहन में भी। अपने पढ़े लिखे होने के संबन्ध में वो कहते हैं – ‘मसि कागद छूवो नहीं, कलम गही नहीं हाथ।’ कबीर के नाम से जितना भी हमें पढ़ने को मिलता है वो उनके शिष्यों का लिखा हुआ है, वो तो सिर्फ मुहँ से बाँचते थे। कबीर कर्मकाण्ड के विरोधी थे, ना ही मूर्तिपूजक थे इसलिये मंदिर मस्जिद भी नही जाते थे, उनका मानना था कि ईश्वर एक ही है। मूर्ति पूजा को लक्ष्य करते हुए उन्होंने कहा -
पाहन पूजे हरि मिलैं, तो मैं पूजौं पहार।
वा ते ता चाकी भली, पीसी खाय संसार।।
कबीर की वाणी का संग्रह ‘बीजक’ नाम के संग्रह के रूप से प्रसिद्ध है। इस संग्रह के तीन भाग हैं – रमैनी, सबद और साखी। यह कई भाषाओं की खिचड़ी है जिनमें पंजाबी, राजस्थानी, खड़ी बोली, अवधी, पूर्बी, ब्रजभाषा प्रमुख हैं।
अब नजर डालते हैं कबीर के कुछ प्रसिद्ध दोहों पर
कबीर के दोहों में जो मिठास और सच्चाई है वो मुझे भजनों में भी नजर नही आती इसीलिये कबीर के दोहे कभी भी, कहीं भी मैं सुन सकता हूँ, जबकि भजनों के लिये ऐसा नही कह सकता। कबीर कभी किसी धर्म से नही बंधे ना ही उनके दोहे, जितने भक्तिभाव से उनकी रचनायें भारत में गायी गयी और सराहयी गयी उतने ही तन्मयता से देश के बाहर भी। नीचे के कुछ विडियों में यही परीलिक्षित होता है, अब कबीर दास से संबन्धित कुछ विडियो भी देखिये और उनके बांचे दोहों को भी सुनिये -
ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर!
साँईं इतना दीजिये जामें कुटुम्ब समाये
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधू ना भूखा जाये।
बुरा जो देखन में चला, बुरा ना मिलया कोई
जो मन खोजा आपना, मुझ से बुरा ना कोई।
माया मरी ना मन मरा, मर मर गये शरीर
आशा त्रिश्णा ना मरी, कह गये दास कबीर।
दुख में सुमिरन सब करें, सुख में करे ना कोये
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुख काहे को होये।
चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोए
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा ना कोए।
धीरे धीरे रे मना, धीरज से सब होये
माली सिंचे सौ घड़ा, ऋतु आये फ़ल होये।
ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोये
औरों को शीतल करे, आपहुँ शीतल होये।
जाती ना पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान
मोल करो तलवार की पड़ी रेहन जो म्यान।
माटी कहे कुम्हार से, काहे रोंदे मोहे
ईक दिन ऐसा आयेगा, मैं रौंदूगीं तोहे।
साधु ऐसा चाहिये, जैसा सूप सुहाय
सार सार को गही रहे, थोथा देय उडाय।
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर
पंथी को छाया नही, फल लगे अति दूर।
विडियो -१
कबीरा खड़ा बाजार में: कबीर दास और उनके दोहे
ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर कहने वाले कबीर दास जैसा व्यक्तित्व शायद ही किसी और हिन्दी साहित्यकार का होगा। स्कूल के वक्त भी वो कबीर और उनके दोहे ही थे जो आसानी से समझ में आते थे। उनका व्यक्तित्व अनुपम तो था ही लेकिन उनके जन्म को लेकर कई किंवदन्तियाँ भी प्रचलित थी।कुछ लोगों का मानना है कि वो काशी में किसी गरीब विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न हुए फिर उसने बदनामी की डर से नवजात शिशु को लहरतारा ताल के पास फेंक दिया, जहाँ से नीरु नाम का जुलाहा उन्हें अपने घर ले आया। फिर नीरू और उसकी पत्नी नीमा ने उनका पालन-पोषण किया।
वहीं कुछ कबीर पंथियों का मानना है कि वो काशी के लहरतारा तालाब में उत्पन्न मनोहर पुष्प कमल के ऊपर बालक के रुप में पाये गये। ऐसे ही एक प्राचीन ग्रंथ के अनुसार किसी प्रतीति नाम देवाङ्गना के गर्भ से भक्तराज प्रहलाद ही कबीर के रुप में प्रकट हुए थे। लेकिन ये तो तय है कि कबीर दास और लहरतारा तालाब में एक संबन्ध तो था ही।
कबीर का जन्म १२९७ में ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन हुआ वो निडर और खरा खरा बोलने वाले कवि थे। जिन्हें बाद में संत का दर्जा भी प्राप्त हुआ। उन्होंने कभी भी किसी सम्प्रदाय और रुढियों की परवाह नही करी। यही नही उन्होंने हिंदू-मुसलमान सभी समाज में व्याप्त रुढिवादिता तथा कट्टपरंथ का खुलकर विरोध किया। १४१० में देह त्यागने से पहले काशी छोड़कर मगहर चले जाने की वजह भी उसी रूढ़िवादिता को उनका जवाब था, उस समय ये मान्यता थी कि काशी में मरने वाले को मोक्ष प्राप्त होता है। मगहर में कबीर की समाधि भी है और यहाँ हिन्दू मुसलमान दोनों श्रद्धा से सिर नवाने आते हैं।
कबीर दास वास्तव में फकीर थे वाणी से भी पहनावे और रहन सहन में भी। अपने पढ़े लिखे होने के संबन्ध में वो कहते हैं – ‘मसि कागद छूवो नहीं, कलम गही नहीं हाथ।’ कबीर के नाम से जितना भी हमें पढ़ने को मिलता है वो उनके शिष्यों का लिखा हुआ है, वो तो सिर्फ मुहँ से बाँचते थे। कबीर कर्मकाण्ड के विरोधी थे, ना ही मूर्तिपूजक थे इसलिये मंदिर मस्जिद भी नही जाते थे, उनका मानना था कि ईश्वर एक ही है। मूर्ति पूजा को लक्ष्य करते हुए उन्होंने कहा -
पाहन पूजे हरि मिलैं, तो मैं पूजौं पहार।
वा ते ता चाकी भली, पीसी खाय संसार।।
कबीर की वाणी का संग्रह ‘बीजक’ नाम के संग्रह के रूप से प्रसिद्ध है। इस संग्रह के तीन भाग हैं – रमैनी, सबद और साखी। यह कई भाषाओं की खिचड़ी है जिनमें पंजाबी, राजस्थानी, खड़ी बोली, अवधी, पूर्बी, ब्रजभाषा प्रमुख हैं।
अब नजर डालते हैं कबीर के कुछ प्रसिद्ध दोहों पर
कबीर के दोहों में जो मिठास और सच्चाई है वो मुझे भजनों में भी नजर नही आती इसीलिये कबीर के दोहे कभी भी, कहीं भी मैं सुन सकता हूँ, जबकि भजनों के लिये ऐसा नही कह सकता। कबीर कभी किसी धर्म से नही बंधे ना ही उनके दोहे, जितने भक्तिभाव से उनकी रचनायें भारत में गायी गयी और सराहयी गयी उतने ही तन्मयता से देश के बाहर भी। नीचे के कुछ विडियों में यही परीलिक्षित होता है, अब कबीर दास से संबन्धित कुछ विडियो भी देखिये और उनके बांचे दोहों को भी सुनिये -
ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर!
साँईं इतना दीजिये जामें कुटुम्ब समाये
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधू ना भूखा जाये।
बुरा जो देखन में चला, बुरा ना मिलया कोई
जो मन खोजा आपना, मुझ से बुरा ना कोई।
माया मरी ना मन मरा, मर मर गये शरीर
आशा त्रिश्णा ना मरी, कह गये दास कबीर।
दुख में सुमिरन सब करें, सुख में करे ना कोये
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुख काहे को होये।
चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोए
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा ना कोए।
धीरे धीरे रे मना, धीरज से सब होये
माली सिंचे सौ घड़ा, ऋतु आये फ़ल होये।
ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोये
औरों को शीतल करे, आपहुँ शीतल होये।
जाती ना पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान
मोल करो तलवार की पड़ी रेहन जो म्यान।
माटी कहे कुम्हार से, काहे रोंदे मोहे
ईक दिन ऐसा आयेगा, मैं रौंदूगीं तोहे।
साधु ऐसा चाहिये, जैसा सूप सुहाय
सार सार को गही रहे, थोथा देय उडाय।
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर
पंथी को छाया नही, फल लगे अति दूर।
विडियो -१
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