पुस्तक : दिल्ली शहर दर शहर
लेखक : निर्मला जैनकुल कीमत : 250 रुपए
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
निर्मला जैन की यह किताब जिस दिल्ली की बात करती है वह पूरी बीसवीं सदी तक फैली हुई है. एक तरह से यह उस दिल्ली की कहानी है जिसे उन्होंने अपने जन्म से अब तक बदलते-बिखरते और टूटते-जुड़ते देखा है. किताब का शुरुआती हिस्सा, जो स्वतंत्नता से पहले की पुरानी दिल्ली पर है, लाजवाब है और बाद के पन्नों के लिए उम्मीद पैदा करता है. लेकिन ज्यों-ज्यों वे आगे बढ़ती हैं, उनका क्षेत्न सिकुड़ता जाता है.
वे उन दिनों से अपनी बात आरंभ करती हैं जब दिल्ली सिर्फ पुरानी दिल्ली वालों की थी और जिसे वे अपने बचपन की पैनी आंखों से देख रही थीं. उसके गली-कूचों, बाजारों, वैद्य-हक़ीमों, संस्कृति और परंपराओं को बयान करते हुए वे संपूर्ण हैं और बहुत खूबसूरती से अपने घर और गली को पूरे शहर से जोड़ देती हैं. चटोरेपन के लिए मशहूर दिल्ली वालों और इसके हुनरमंद हलवाइयों को एक पूरा अध्याय समर्पित है. ऐसे कम ही शहर होते हैं जहां के लोग किसी खास दुकान की जलेबी या परांठे खाने के लिए सपरिवार तीस-चालीस किलोमीटर दूर भी पहुंच जाते हैं. निर्मला को इसी दिल्ली पर नाज है और होना भी चाहिए.
नई दिल्ली के निर्माण से संबंधित कई रोचक जानकारियां भी वे अपने पाठकों को देती हैं और उनकी दृष्टि उस वर्ग-विभाजन को बार-बार भेदती है, जिसे ध्यान में रखकर गोरे साहबों और उनके क़रीबी हिंदुस्तानियों के लिए नई दिल्ली बनाई गई थी और पुरानी दिल्ली उसके पुराने बाशिंदों के लिए छोड़ दी गई थी. वे नई दिल्ली की वास्तुकला का भी विश्लेषण करती हैं और इसे बनाने वाले ल्यूटियन की दो महत्वपूर्ण उपलब्धियों का भी - छायादार सड़कें और ऐसी इमारतें जिनमें जून की गर्मी में भी कूलर की जरूरत नहीं पड़ती.
अपने व्यक्तिगत अनुभवों के जरिए निर्मला आजादी से पहले की अंग्रेजीपरस्त शिक्षा-व्यवस्था के बारे में भी लिखती हैं जिसमें संस्कृत भी अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाई जाती थी. वे हिंदू-मुस्लिम एकता के बारे में भी लिखती हैं और दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान व्याप्त डर के बारे में भी. इसी के साथ कई नई बातें मुझे पता चलीं, जो शायद आपके लिए भी नई हों. जैसे स्वाधीनता के कई वर्ष बाद तक भी चांदनी चौक के दोनों सिरों को जोड़ने के लिए धीमी गति वाली एक ट्राम चलती थी या लालकिले से फतेहपुरी तक, यानी चांदनी चौक के बीचोंबीच एक नहर बहती थी या जी.बी. रोड की वेश्याओं का ठिकाना चौथे दशक से पहले चावड़ी बाजार में था. मगर आप ग़ौर करें कि जितनी भी नई बातें उन्होंने लिखी हैं, उनमें से अधिकांश पुरानी दिल्ली की ही हैं. शायद उन्होंने उसी को ज्यादा क़रीब से देखा है और इसीलिए उसे लिखते हुए वे अधिक सहज हैं. मगर इस स्थिति में पुस्तक के नाम में ‘दिल्ली’ के स्थान पर ‘पुरानी दिल्ली’ होना चाहिए. जब भी वे आजादी के बाद की या चांदनी चौक और लाल किले के पार की, यानी विस्तार के लिहाज से नई दिल्ली की बात करती हैं तो भटक जाती हैं और शहर की बजाय उसकी राजनैतिक गतिविधियों की बातें करने लगती हैं.
आजादी के बाद के अध्यायों में वे दिल्ली विश्वविद्यालय के अपने जीवन और हिंदी साहित्य को ही पूरा शहर मान बैठती हैं और उनका लेखन अधिक आत्मकथात्मक हो जाता है. वे समाज की बात करती हैं तो वह साहित्य पर आकर ठहर जाती हैं और उस पर भी नहीं, उसके लोगों पर. अपनी किताब में उपस्थित होते हुए भी अनुपस्थित रहने में निर्मला असफल रही हैं और कई पृष्ठों में उन्होंने वह जगह घेर ली है जिसे उन्होंने अपने शहर को देने का वादा किया था. यह पुस्तक के पूर्वार्ध और उस शहर के साथ भी अन्याय है, जिसमें उनकी आत्मा बसती है.
वे पूरी दक्षिणी दिल्ली के बारे में महज दो-चार बातें कहकर आगे बढ़ जाती हैं और दिल्ली का ही हिस्सा बनते गुड़गांव, नोएडा और फरीदाबाद जैसे शहरों का जिक्र तक करना जरूरी नहीं समझतीं. कॉल सेंटरों से आई आर्थिक और ‘अ’नैतिक क्रांति पर तो वे थोड़ा बहुत लिखती भी हैं, मगर आई टी कंपनियों और मल्टीप्लेक्स संस्कृति को भूल जाती हैं. साथ ही वे संस्कृतियों के घालमेल से भी हल्की सी नाराज नजर आती हैं और इसके जिम्मेदार बाहरी लोगों से भी. वे खुलकर नहीं कहती मगर उनके लिखे को पढ़कर लगता है जैसे बाहर से यहां आकर बसे लोगों ने उनकी पुरानी दिल्ली का शील भंग कर दिया है.
बहरहाल, यदि ऐसा है तो मैं इसपर अपनी आपत्ति दर्ज करता हूं. दिल्ली किसी की नहीं है, इसीलिए हम सबकी है.
गौरव सोलंकी
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