Monday, November 29, 2010

स्वामी ओमानन्द सरस्वती

स्वामी ओमानन्द सरस्वती का जीवन-चरित/द्वितीय अध्याय

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स्वामी ओमानन्द सरस्वती
(आचार्य भगवानदेव)
(१९१०-२००३) का

जीवन चरित

लेखक
डॉ० योगानन्द
(यह जीवनी सन् १९८३ ई० में लिखी गई थी)


द्वितीय अध्याय


Contents

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राष्ट्रीय आन्दोलन में पदार्पण

यह सन् १९३१ का वह समय था जब परतंत्रता में जकड़ा भारत अपने इस कलंक को मिटाने के लिए खड़ा हो गया था । लगभग दो वर्ष पूर्व रामप्रसाद बिस्मिल, रोशन, लाहिड़ी और अशफाक फांसी का फंदा गले में डालकर शहादत दे चुके थे । "मेरी छाती पर पड़ी चोट अंग्रेजी साम्राज्य के कफन की कील बनेगी ।" लालाजी की मृत्युशय्या से दी गई यह चुनौती नवयुवकों को ललकार रही थी । वीर भगतसिंह की फांसी ने तो राष्ट्र को झकझोर कर रख दिया था । दूसरी ओर गांधी जी स्वदेशी आंदोलन के द्वारा राष्ट्र में आजादी के लिये लड़ मरने की तमन्ना जगाने हेतु मैदान में उतर चुके थे । १९२९ के लाहौर अधिवेशन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पूर्ण स्वतन्त्रता का प्रस्ताव पारित कर चुकी थी । अब उसकी प्राप्ति के लिए योजनाओं को मूर्त रूप देने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो चुकी थी । ऐसे समय में नवयुवक भगवानसिंह ने कॉलिज छोड़कर चुनौती भरे मार्ग में पदार्पण किया । दिल्ली में पढ़ते समय आर्यसामाजिक कार्यों में भाग लेने और क्रांतिकारी साहित्य पढ़ते रहने से इस कार्य के लिये इनकी मानसिक पृष्ठभूमि पहले ही से दृढ़ बन चुकी थी । अब इन्होंने अपनी पूरी शक्ति और समय इस कार्य में लगाने का निश्चय कर लिया ।

नमक और मीठे का त्याग

एक बार कांग्रेस की ओर से कार्य करने स्वामी स्वरूपानन्द जी महाराज नरेला आये । उन्होंने नरेला को केन्द्र बनाकर राष्ट्रीय आंदोलन के लिए कार्य आरम्भ किया । स्वामी जी को आर्यसमाज मन्दिर (कमरे) में ही ठहराया गया । युवक भगवानसिंह उनके निकट सम्पर्क में आये । स्वामी स्वरूपानन्द के तप त्यागमय जीवन से इनको बहुत अधिक प्रेरणा मिली । स्वामी जी की प्रेरणा से इन्होंने नमक और मीठे का सर्वथा परित्याग कर दिया । मिर्च पहले ही छोड़ चुके थे । जीवनभर इस व्रत को निभाने का इन्होंने प्रण किया । तब से आज तक आप अपने इस प्रण पर अडिग हैं । लगभग ५२ वर्ष के इस लम्बे समय में इन्होंने एक बार भी नमक और मीठे का प्रयोग ही नहीं किया । कहने में और सुनने में यह बात छोटी हो सकती है किन्तु वे व्यक्ति भलीभांति जानते हैं कि इस प्रकार के व्रत निभाना कितना कठिन है जिन्होंने जीवन में इस प्रकार के नियम निभाने का भरसक प्रयास किया है किन्तु सफल नहीं हो पाये । ज्ञान और कर्मेन्द्रियों पर काबू पाने के लिये जहां कई और तप आवश्यक हैं वहां जिह्वा के स्वाद पर नियन्त्रण सबसे अधिक आवश्यक है । देवपथ के पथिक के लिए कदाचित् यह प्रथम चुनौती है । इस चुनौती को ब्रह्मचारी भगवानसिंह ने न केवल स्वीकार ही किया अपितु इस पर सफलता भी पाई । इसके लिये वे अपने आपको स्वामी स्वरूपानन्द जी का आभारी मानते हैं ।

स्वामी स्वरूपानन्द जी गरीबों के सच्चे सेवक थे । वे कट्टर आर्यसमाजी और महर्षि स्वामी दयानन्द जी के परम भक्त थे । वे कहा करते थे कि हम तो केवल पांच आने में पढ़े हैं । रात्रि में केवल पांच आने का तेल जलाकर हमने अपनी पढ़ाई पूरी की है । वे जन्मना ब्राह्मण परिवार से थे परन्तु जातपात में उनका नितान्त विश्वास नहीं था ।

इन्हीं स्वामी जी महाराज के संसर्ग में रहकर युवक भगवानसिंह के संस्कार और अधिक पक्के हुये और इन्होंने अब जीवनभर ब्रह्मचारी रहकर देश-सेवा करने का संकल्प मन में धारण कर लिया । इन्होंने कांग्रेस के जलसों में भाग लेना और स्वयं जगह-जगह पर मीटिंगें करके राष्ट्रीय आन्दोलन को आगे बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई ।

अंग्रेजी सरकार तथा पिता जी से संघर्ष

युवक भगवानसिंह की गतिविधियों पर अंग्रेजी सरकार के गुप्तचरों की निगाहें रहने लगीं । गाँववालों ने भी इनके पिता को कहा कि भगवानसिंह को रोको अन्यथा घर पर आपत्ति आ जायेगी । उस समय अंग्रेजों का बहुत दबदबा था और गांव के अधिकांश बड़े लोग उनके साथ सहानुभूति रखते थे, कुछ डर से तो कुछ लालच के कारण । कुछ गिने-चुने सिरफिरे लोग थे जो अंग्रेजों और उनके पिट्ठुओं से टकराने का साहस बटोर पाते थे । विशेषकर बड़े जमींदार तो अधिक डरते थे । इसका परिणाम ब्रह्मचारी भगवानसिंह को भी भुगतना पड़ा । इनके पिता इनसे खिन्न रहने लगे । एक दिन ऐसा आया जब उन्होंने अपनी अप्रसन्नता बड़े कठोर शब्दों में प्रकट कर ही दी । घटना इस प्रकार घटी कि एक दिन युवक भगवानसिंह माजरा डबास में हुये कांग्रेस के जलसे में बोलने गये । जलसे में बड़ी भीड़ थी । गुप्तचरों का होना स्वाभाविक था । भगवानसिंह बड़े जोश में बोले और उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष के लिए लोगों का आह्वान किया । लोगों को उनका भाषण बहुत पसन्द आया । प्रतिक्रियास्वरूप बीच-बीच में अनेक बार तालियों की गड़गड़ाहट हुई । जलसा समाप्त होने के बाद जब ये घर लौटे, उससे पहले ही पिता जी को वहां की कार्यवाही का सब पता चल गया था । परिणाम यह हुआ कि पिताजी ने घर में घुसते ही क्रोध में तमतमाकर कहा - "यह सब नहीं चलेगा । मुझे देखते बहुत दिन हो गये हैं । तुम्हें घर या कांग्रेस दोनों में से एक को चुनना होगा । घर छोड़ दो या कांग्रेस छोड़ दो । अब यह तुम पर है, तुम क्या फैसला करते हो ।" भगवानसिंह ने उस समय पिता जी की बात का कोई उत्तर नहीं दिया, चुप रहे । इन्हें यह तो आभास था कि पिता जी अप्रसन्न हैं किन्तु यह अनुमान इन्हें भी नहीं था कि पिता जी इतने कठोर हो जायेंगे और मुझे इस कठिन परीक्षा में डाल देंगे । अस्तु ! इन्होंने बहुत शान्तचित्त होकर इस पर विचार किया और दोनों ही न छोड़ने का निश्चय किया । सोचा, पिता जी आज नहीं तो कल शान्त हो जायेंगे ।

दूसरे दिन चौ. अभयराम (चौ. रामदेव के पिता) और इनके पिता जी ने इनको समझाने के लिये बिठा लिया । बहुत देर तक वे समझाते रहे कि आप कांग्रेस से नाता तोड़ लें परन्तु ब्रह्मचारी भगवानसिंह का अन्त में एक ही उत्तर था - "देखिये, मैं आप दोनों का अत्यधिक आदर करता हूं किन्तु इसे मेरी धृष्टता मत मानिये, मेरे विचार ऐसे हैं । मुझे चाहे फांसी लगे, मैं कांग्रेस नहीं छोड़ सकता ।" पिता जी पुत्र के स्वभाव से भलीभांति परिचित थे, इसलिये उन्होंने फिर कभी इन पर इस प्रकार का दबाव नहीं डाला और ये कांग्रेस के काम में और अधिक उत्साह से जुट गये ।

नमक सत्याग्रह का समर्थन

महात्मा गांधी की लोकप्रियता अपने उत्कर्ष पर थी । गांधी जी द्वारा आरम्भ किया गया 'नमक सत्याग्रह' प्रबल जन-आन्दोलन का रूप धारण कर चुका था । गांधी जी के इस सत्याग्रह से लगभग ५० वर्ष पहले महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने "आदि सत्यार्थप्रकाश" में नमक-कर के विरोध में लिखकर इस दिशा में जन-जागरण की नींव डाल दी थी । इसके कारण सभी आर्यसमाजी नमक-कर विरोधी सत्याग्रह में सबसे आगे आये और उन्होंने गांधी जी के इस सत्याग्रह को जन-जन तक पहुंचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई । परिणामस्वरूप विरोध प्रकट करने हेतु देश में जगह-जगह पर नमक बनाया जाने लगा । दिल्ली में सीलमपुर में नमक बनने लगा । युवक भगवानसिंह भी नमक देखने सीलमपुर गये । वहां से लौटकर इन्होंने अपने अन्य युवक साथियों को एकत्र करके नरेला में भी नमक बनाना प्रारम्भ किया । इस रूप में इन्होंने एक महान् राष्ट्रीय-यज्ञ का शुभारम्भ नरेला में कर दिया । अपने इस कार्य में सैंकड़ों लोगों ने भाग लिया । इसी के साथ नरेला में कांग्रेस का एक बड़ा संगठन बन गया । इस संगठन में युवकों का नेतृत्व भगवानसिंह ने ही सम्भाला । नित्य-प्रातः प्रभातफेरी निकालने का नियम बना लिया । इन प्रभातफेरियों में भाग लेने वाले लोग आज भी ब्रह्मचारी जी के उत्साह को याद कर प्रसन्न हो उठते हैं । प्रभातफेरी के लिए सबको एकत्र करना और पूरे नरेला गांव को गांधी जी व राष्ट्रीय नातों से गुंजा देना इनके नित्यकर्म में सम्मिलित हो गया । दिन भर कांग्रेस के जलसों में व्याख्यान देकर पूरे क्षेत्र में कांग्रेस एवं आजादी के लिए भारी कार्य किया । थोड़े ही दिन बाद नरेला में माता कस्तूरबा पधारीं । उनके सामने जलसे में ब्रह्मचारी भगवानसिंह और इनके साथियों ने योगासन और लाठी चलाने का प्रदर्शन किया । माता कस्तूरबा इनसे बहुत प्रभावित हुईं और उन्होंने इनको अपने हाथ से पारितोषिक दिया ।

नरेला में कांग्रेस का कार्य

लोग पहले-पहल नरेला में कांग्रेस के कार्यों में भाग लेने से डरते थे परन्तु थोड़े दिन बाद ही स्वामी स्वरूपानन्द जी की प्रेरणा, कार्य और उत्साहवर्धन तथा भगवानसिंह आदि युवकों के परिश्रम से ऐसी स्थिति पैदा हो गई कि उसी नरेला में अब लोगों में कांग्रेस का कार्य करने के लिए प्रतिस्पर्धा पैदा हो गई । एक समय ऐसा भी आया जब नरेला में ६९ आदमी गिरफ्तार हुये, इनमें सनोठ निवासी मास्टर राजेराम भी थे । बाद में श्री नत्थवा तथा श्री गोपाल ने कांग्रेस के काम के लिये नम्बरदारी छोड़ी और जेल गये । नत्थवा के सुपुत्र श्री हरनन्द, श्री जयलाल स्वर्णकार, श्री रतीराम (स्वामी ईशानन्द) और पं० टेकचन्द आदि अनेक लोगों ने जेल-यातनाएं सहन कीं ।

आर्यसमाजियों पर अंग्रेज सरकार के झूठे मुकदमे

जेल जाने वाले प्रत्येक आर्यसमाजी व कांग्रेसी पर अंग्रेजी सरकार ने झूठे मुकदमे बनाये और गांव से ही शिनाख्ती गवाह भी तैयार कर लिये । समस्या उस समय बहुत भयावह बन गई जब स्वयं भगवानसिंह के पिता चौ. कनकसिंह भी सरकारी गवाह बना लिये गये । लोगों ने व्यंग करना प्रारम्भ किया । भगवानसिंह ने इसके विरुद्ध अनशन कर दिया । पिता ने पुत्र का आग्रह माना और प्रतिज्ञा की कि मैं भविष्य में सरकारी गवाह नहीं बनूंगा, न ही सरकार की कोई सहायता करूंगा । इसके उपरान्त चौ. कनकसिंह भी प्रत्यक्ष रूप में कांग्रेस के सहयोगी बन गये । इनके अपने घर का कुल-पुरोहित पं० रविदत्त था जो कांग्रेसवालों के खिलाफ गवाही देता था, उसको भी भगवानसिंह ने विरोध में गवाही न देने के लिये तैयार करने का प्रयास किया किन्तु वह नहीं माना । इसी कारण इन्होंने उसका अपने घर से पुरोहिताई का सम्बंध समाप्त कर दिया । अन्ततोगत्वा उसको भी अपने भूल पर पश्चाताप हुआ । कांग्रेस के कार्यकर्त्ताओं पर बनने वाले मुकदमों के गवाहों को तोड़ने का काम सदा ही भगवानसिंह अपने ऊपर लेते रहे और उसमें उन्हें सदा सफलता मिली ।

नैष्ठिक ब्रह्मचर्य की दीक्षा

इस समय भगवानसिंह को कई मोर्चों पर लड़ाई लड़नी पड़ रही थी । एक ओर आर्यसमाज के कार्य की चिन्ता तो दूसरी ओर कांग्रेस के कार्य को आगे बढ़ाकर देश को स्वतन्त्र कराने का कठिन लक्ष्य । तीसरी ओर बढ़ते हुए ईसाई मिशनरियों के प्रभाव को रोकना तथा इधर आर्षग्रन्थों का अध्ययन कर विद्वत्ता प्राप्त करने की तमन्ना और इन सबसे ऊपर अपने आपको तप-त्याग की भट्ठी में तपाने की चिरपालित अभिलाषा, जो कि संघर्ष के मार्ग में उतरने और आगे बढ़ने के लिए कदाचित् पहली शर्त नजर आ रही थी । इसी शर्त एवं चुनौति को वे अपने मन में स्वीकार कर चुके थे । इसके लिए अब उन्होंने सार्वजनिक रूप से आगे आने का निश्चय किया । सन् १९३६ ई० में आर्यसमाज नरेला के वार्षिकोत्सव पर हजारों लोगों की उपस्थिति में आजीवन ब्रह्मचारी रहने की भीषण प्रतिज्ञा की और नैष्ठिक ब्रह्मचर्य की दीक्षा ले ली । तत्कालीन प्रथा के अनुसार माता-पिता ने बाल्यावस्था में ही विवाह कर दिया था, उसको भी सर्वदा के लिए तिलांजलि दे दी । घर वालों में घोर निराशा छा गई । कहा गया कि इसने तो हमारे कुल का दीपक ही बुझा दिया । पर कौन जानता था कि इसी एक दीपक से हजारों लाखों दीपक जाज्वल्यमान होंगे जो सामाजिक कुरीतियों की राख में दबकर जलते हुये भी बुझे समान हैं । मैं समझता हूं कि मेरा यह लिखना न तो अतिशयोक्ति है और न ही भावुकतावश ही, अपितु यह एक खुला सत्य है । जो लोग आचार्य भगवानदेव (अब स्वामी ओमानन्द जी महाराज) के कार्य से परिचित हैं वे जानते हैं कि आचार्य जी के समाज-सुधार और शिक्षा के क्षेत्र में किये गये कार्यों ने कितना बड़ा क्रान्तिकारी परिवर्तन किया है ।

भगवानसिंह से भगवानदेव

युवक भगवानसिंह ने आजीवन ब्रह्मचारी रहने का व्रत लिया । घर-बार छोड़कर मोहमाया से छूटकर सांसारिक बन्धन तोड़ दिये और ये देवमार्ग के पथिक बन गये । अतः इनका नाम भगवानसिंह से "ब्रह्मचारी भगवानदेव" हो गया । अब इनको सभी इसी नाम से अभिहित करने लगे ।

एक वह समय था जब कांग्रेस के कार्यों में अगुआ बनने पर पिता ने इनको घर छोड़ने के लिये कहा था - तब इन्होंने घर न छोड़ने का निश्चय किया था और अब वह समय आ गया, जब माता-पिता, सगे सम्बन्धी सब घर न छोड़ने का आग्रह कर रहे थे, तो ब्रह्मचारी जी घर छोड़ने के लिये न केवल उतावले ही थे, अपितु सर्वदा के लिये छोड़ रहे थे । कैसी विपरीत परिस्थिति थी । इसे समय का खेल कहें, भाग्य का चक्र या परिस्थितियों की देन । आप ही निर्णय कीजिये ।

आर्य विद्यार्थी आश्रम की स्थापना

नैष्ठिक ब्रह्मचर्य की दीक्षा के साथ ही ब्रह्मचारी भगवानदेव ने घर सर्वथा त्याग दिया और नरेला में "विद्यार्थी आश्रम" की स्थापना की । ब्रह्मचारी जी ने आश्रम में असहाय विद्यार्थियों को पढ़ाने की पूरी व्यवस्था की । कालान्तर में इसके साथ ही एक औषधालय और गोशाला भी खोली गई । पुस्तकालय का भी यहां निर्माण किया । ब्रह्मचारी जी ने स्वयं भी अब आर्ष ग्रन्थों को सुयोग्य विद्वानों से पढ़ना प्रारम्भ किया । यहीं पर उद्‍भट दार्शनिक पं० विष्णुदत्त जी से आपने दर्शनों का अध्ययन किया । साथ ही संस्कृत साहित्य व वैदिक वाङ्‍मय का भी अध्ययन प्रारम्भ किया । यहीं पर रहते हुए आपने एक "उपदेशक विद्यालय" भी खोला । इसका उद्देश्य था - विद्वान् उपदेशक तैयार करना, जो गांव-गांव में घूमकर प्रचार-कार्य करें । इस विद्यालय में स्वामी योगानन्द, पं० हरिशरण, पं० भद्रसेन तथा पं० सेवाराम (पुरोहित) आदि प्रमुख युवकों ने विद्याध्ययन किया । कुछ समय बाद ब्रह्मचारी जी ने पं० भद्रसेन को व्याकरणादि पढ़ने के लिये बाहर गुरुकुल डोरली में भेज दिया जिससे वे विद्वान् बनकर आयें और आश्रम में विद्यार्थियों को पढ़ायें ।

ईसाई पादरियों के जाल का उच्छेद

इसके साथ ही आपने नरेला और आसपास के गांवों में हरिजन तथा दूसरे गरीब वर्ग के लोगों में रात्रि पाठशालायें चलाने और उनमें आर्यसमाज के प्रचार का कार्य भी धूमधाम से आरम्भ किया । यह इसलिये भी आवश्यक था कि उन दिनों इस क्षेत्र में ईसाई मिशनरियों का जाल फैला हुआ था । वे धन और सेवा के नाम पर तेजी से यहां के गरीब लोगों को ईसाई बना रहे थे । उस समय ईसाई बनने का अर्थ केवल इस धर्म में दीक्षित हो जाना नहीं था अपितु ईसाई बनने वाले प्रत्येक व्यक्ति की भक्ति और आस्था की भूमि भारतभू न रहकर इंग्लैंड की धरती हो जाती थी । वे भारत में अंग्रेजी शासन के सबसे बड़े शुभचिन्तक और राष्ट्रवादियों के शत्रु बन जाते थे । इस प्रकार अंग्रेजी शासन को यहां चिरस्थायी और सुदृढ़ बनाने के लिए धर्म के नाम पर गहरा षड्यन्त्र रचा जा रहा था । अंग्रेजी साम्राज्यवाद के पेड़ को इस प्रकार फूलते-फलते देख ब्रह्मचारी जी कैसे चुप बैठ सकते थे । उन्होंने अपनी सेवा और प्रचार-कार्य द्वारा थोड़े समय में ही इस पेड़ को जड़ सहित उखाड़ फेंका ।

पाठकवृन्द ! आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि सन् १९३१ की जनगणना में इस क्षेत्र में १० हजार लोगों ने अपने आपको ईसाई लिखवाया था । मुखमेलपुर जैसे छोटे गांवों में भी अनेक लोग ईसाई बन गये थे । वहां एक मिट्टी का गिरजाघर भी बनाया था । यहां के अनेक गांवों की यही हालत थी परन्तु ब्रह्मचारी जी ने इतना अधिक परिश्रम किया कि १९४१ की जनगणना में इस पूरे क्षेत्र में एक भी आदमी ने अपने आपको ईसाई नहीं लिखवाया । यह सब ब्रह्मचारी जी के ही कार्य का प्रताप था । चौ. हीरासिंह भू.पू. कार्यकारी पार्षद आदि प्रमुख व्यक्तियों ने इस दिशा में बड़ा भारी कार्य किया । उन्होंने तो पूरी अंग्रेजी सरकार से भी टक्कर ली । वे गिरफ्तार भी हुए किन्तु इसके लिए ब्रह्मचारी जी ने जो कठोर परिश्रम किया उसकी मात्र कल्पना ही की जा सकती है । दिनभर प्रचार, सेवा, औषध-निर्माण और औषधियां बिना पैसे गरीबों में बांटना, उनकी हर प्रकार की सहायता करना और रात में जगह-जगह पाठशालायें चलाना - यह ब्रह्मचारी जी के ही बूते की बात थी । इनकी पाठशालायें भी एक-दो जगह नहीं, पच्चीस-तीस जगह चलती थीं । साथ ही जगह-जगह सहभोज करके गरीब लोगों को अपने साथ मिलाने का कार्यक्रम भी तेजी से चला रखा था । क्योंकि हिन्दू समाज की रूढ़ियों और समाज में प्रचलित छूआछूत का भूत दिखलाकर ईसाई प्रचारक अछूत समझे जाने वाले भाइयों के मन में हिन्दु समाज विरोधी एक ऐसी दरार डाल देते थे जो बड़ी ही कठिनाई से पाटी जा सकती थी । यदि उस समय आर्यसमाज व कांग्रेस ने छूआछूत विरोधी अभियान इतना तेजी से न चलाया होता और जगह-जगह सहभोज आयोजित न किये होते तो कदाचित् हमें और लम्बे समय तक परतन्त्रता का दुःख भोगना पड़ता ।

महात्मा गांधी तथा जवाहरलाल नेहरू का नरेला में आगमन

अन्य स्थानों के अतिरिक्त नरेला में भी बड़े-बड़े सहभोजों का आयोजन किया गया । गांधी जी भी दो बार नरेला पधारे और उन्होंने भी सहभोज में भाग लिया । एक सहभोज में खेड़ा गढ़ी स्कूल के हैडमास्टर श्री चौ. चन्दनसिंह होत्री (डॉ. रणजीतसिंह के पिता) अपने स्कूल के सब विद्यार्थियों को लेकर पधारे । वे कट्टर आर्यसमाजी थे। सहभोजों का प्रबन्ध करने का कार्यभार ब्रह्मचारी भगवानदेव, स्वामी स्वरूपानन्द, पं० टेकचन्द, चौ. हीरासिंह, वैद्य कर्मवीर आदि पर होता था । श्री दलेलसिंह जैन दिल्ली ने इसमें विशेष सहयोग दिया । जवाहरलाल नेहरू भी नरेला में आये । इन सबके जलसों का प्रबन्ध ब्रह्मचारी जी ही करते थे ।

मिस सरकार से टक्कर

इस क्षेत्र में ईसाइयों की शक्ति का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि नरेला में एक क्रिश्चियन "मिस सरकार" ने १९ बीघा जमीन मोल ली । यह भूमि "क्रिश्चियन फैलोशिप आश्रम" नमक संस्था के लिए मुसद्दीलाल हाई स्कूल के समीप ही ली थी । उसका उद्देश्य था स्कूल के अबोध व युवक बच्चों को और हरिजन भाइयों को यहां बैठकर आसानी से ईसाई बनाया जा सकेगा परन्तु ब्रह्मचारी जी के रहते उनका स्वप्न साकार कैसे हो सकता था । ब्रह्मचारी जी ने भी उसके मुकाबले में कार्यक्रम आरम्भ कर दिये । चिड़कर उस क्रिश्चियन महिला ने ब्रह्मचारी जी, श्री जयलाल स्वर्णकार, श्री ताराचन्द सु० श्री प्रभुदयाल आदि पांच व्यक्तियों पर मार-पिटाई का मुकदमा दर्ज करा दिया । ब्रह्मचारी जी ने भी बदले की कार्यवाही के रूप में उसकी भूमि पर झूठा हकसफा करा दिया । हकसफा चौ. नथवा पाना पुपोसिया और चौ. धर्मसिंह जी (श्री मा० पूर्णसिंह जी आर्य के पिता) पाना मामूरपुर ने किया । श्री पं० मूलचन्द गौतम व श्री मनीराम जी ने पैरवी की और श्री हरनन्दनसिंह सुपुत्र चौ० नथवा को मुख्त्यार बनाया । यह कार्य नीतिसम्मत ही था कि "शठे शाठ्यं समाचरेत्" । इस मुकदमे में एडवोकेट लाला रतनलाल जी शाहपुर जट्ट (दिल्ली वालों) ने बड़ा ही सराहनीय कार्य किया । उन्होंने बिना कोई पैसा लिये वकालत कर मुकदमा लड़ा । अन्त में मुकदमे में ब्रह्मचारी जी आदि की विजय हुई और ईसाई मिशनरियों को भागना पड़ा । नरेला के आस-पास के ३३ गांवों में बहुत सारे व्यक्ति ईसाई बन चुके थे किन्तु ब्रह्मचारी जी के कार्य के कारण एक भी ईसाई इन गांवों में नहीं रहा । इस कार्य में पं० मूलचन्द, पं० टेकचन्द व श्री सत्यवीर सुपुत्र छज्जूराम आदि का विशेष सहयोग मिला ।

आर्य वीरदल आदि के द्वारा जन-सेवा

ब्रह्मचारी जी ने यहां रहते हुये आर्य वीरदल की शाखा का भी नियमित रूप से संचालन आरम्भ किया । वर्षा आदि के समय जब तरह-तरह की बीमारियां फैलने लगतीं तो आप अपने सहयोगी मा० मामचन्द व पं० मूलचन्द आदि के साथ गाँव-गाँव में जाकर रोगियों की निःस्वार्थ सेवा में दिन-रात एक कर देते थे । आपकी इस सेवा ने चमत्कार कर दिखाया और पूरा क्षेत्र आपको देवता के समान मानने लगा । विद्यार्थी आश्रम में औषधालय चलाने के लिये श्री सत्यवीर सुपुत्र लाला काशीराम नरेला वालों ने दान दिया । वैद्य कर्मवीर जी इसी औषधालय में काम करने के लिये नरेला आये थे । आगे चलकर सन् १९४२ की बाढ़ में इस आश्रम के औषधालय की तीस-चालीस हजार की दवाइयां पानी में बह गईं । बाढ़ के कारण ही गोशाला भी यहां से हटानी पड़ी ।

सेवा का प्रभाव

ब्रह्मचारी जी की सेवा का कितना अधिक प्रभाव था यह इन घटनाओं से जाना जा सकता है ।
१) 
एक बार ब्रह्मचारी जी गुरुकुल के लिये अन्न संग्रह कर रहे थे । जब ये चौ. जयलाल के घर पहुंचे तो घर पर उनकी मां मिली । परिवार का और कोई सदस्य न देख ब्रह्मचारी जी वापिस लौटना चाहते थे परन्तु उस माई ने बहुत अधिक आग्रह करके इनको रोक लिया और अन्न ले जाने का आग्रह किया । ब्रह्मचारी जी अन्न लेकर आ गये । बाद में जब ब्र० भगवानदेव जी की माता जी आईं और उन्होंने इनको धमकाया, बतलाया कि तुम तो जयलाल के घर का सब अन्न ले आये हो, उनके यहां तो खाने का अनाज भी नहीं बचा । वास्तव में उस देवी ने अपने घर में जितना भी अन्न था, वह सब का सब श्रद्धावश ब्रह्मचारी जी को दे दिया था । क्योंकि ब्रह्मचारी जी ने रुग्णावस्था में उस देवी का उपचार व अत्यधिक सेवा की थी, जिस कारण उसकी ब्रह्मचारी जी के प्रति बहुत अधिक श्रद्धा व भक्ति थी ।
२) 
इसी तरह एक बार युवक जोतराम ब्रह्मचारी जी के पास आया और उनको दो आने हाथ में थमाकर कहने लगा - "ब्रह्मचारी जी, यह तुच्छ सी भेंट मैं आर्यसमाज निर्माण कार्य के लिये दे रहा हूं । यह पैसे मुझे घरवालों ने देवी के मेले में जाने के लिए दिये थे ।" वैसे तो दो आने का दान अपने आप में छोटा-सा दान लगता है किन्तु उस व्यक्ति की भावनाओं को आप देखिये और उनका आकलन कीजिये तो यह बहुत बड़ा दान था । यह श्री चौ. जोतराम ब्रह्मचारी जी द्वारा नरेला में प्रारम्भ की गई रात्रि पाठशाला का सबसे पहला विद्यार्थी था ।
३) 
ब्रह्मचारी जी की सेवा का प्रभाव दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा था । उनका कठोर तप और त्याग सेवा के साथ सोने पर सुहागे का काम करता था । ये बिना किसी भेदभाव के सब की सेवा में जुटे रहते थे । मानवमात्र इनके लिये समान था । ये हिन्दुओं की भांति मुसलमानों में भी सेवा-कार्य बराबर करते रहते थे । इस कारण मुसलमान भाई भी इनको उसी तरह सम्मान देते थे । इन्हीं दिनों एक बार ब्रह्मचारी जी आर्यसमाज भवन-निर्माण के लिए चन्दा कर रहे थे । नरेला बाजार में चन्दा करते-करते बीच में ये एक दुकान छोड़कर आगे चले गये । किसी सहयोगी ने वैसे ही कह दिया कि यह मुसलमान की दुकान है इससे दान नहीं मिलेगा । ब्रह्मचारी जी ने उसकी बात पर विश्वास कर लिया और उस दुकान को छोड़ आगे वाली पर दान लेने लगे । जब तीन-चार दुकान आगे जा चुके तब उस मुस्लिम दुकानदार को पता चला कि ब्रह्मचारी जी चन्दा कर रहे हैं । वह दुकान पर बैठे ग्राहकों के बीच में अचानक उठा और दौड़कर ब्रह्मचारी जी के पास पहुंचा तथा कहा "ब्रह्मचारी जी ! आप मुझे मुसलमान होने के कारण छोड़ गये । मैंने भी तो आर्यसमाज से बहुत कुछ सीखा है और लाभ उठाया है । मेरा भी दान अवश्य लीजिये ।" यह कहते हुए उसने बहुत ही श्रद्धाभाव से एक रुपया ब्रह्मचारी जी को दिया । दान की रसीद देते हुये ब्रह्मचारी जी का उत्तर था - "आपका यह एक रुपया हमारे लिये एक लाख रुपयों के बराबर है । हमें भ्रम था, क्षमा कीजिये ।" वास्तव में ब्रह्मचारी जी की सेवा और उच्चरित्र का ही यह चमत्कार था ।
४) 
ब्रह्मचारी जी व इनके साथियों को आर्यसमाज में व्यायाम करते हुये देखकर कई मुस्लिम भाई भी आर्यसमाज में आने लगे थे । इनमें एक नत्थूखां भी था जिसने ब्रह्मचारी जी की प्रेरणा से मांस खाना छोड़ दिया । ब्रह्मचारी भगवानदेव जी ने मुद्‍गर (मोगरी) चलाना लालू नामक मुसलमान से सीखा जो आर्यसमाज में आता था ।
५) 
ब्रह्मचारी जी ने पिछड़े वर्ग के लोगों को भी इसी तरह गले लगाया और उनको समाज में सम्मानपूर्ण स्थान दिलाने के लिये भरसक प्रयास किया । इस सेवा का ही यह परिणाम था कि हरिजन व भंगी कहे जाने वाले बहुत से भाई आर्यसमाज के सदस्य बने । उनमें आत्मसम्मान की भावनायें इन्होंने जगाईं और उनके लिये समाज की रूढ़ियों से लोहा लिया । ऐसा करते हुये अनेक कठिनाइयों का भी सामना करना पड़ा । एक बार एक विचित्र घटना घटी । ब्रह्मचारी जी ने आर्यसमाज के उत्सव पर आये हुए उपदेशकों को फूलसिंह नामक सदस्य से, जो वाल्मीकि था, भोजन परोसवा दिया । समाज का रसोइया ब्राह्मण था । वह यह देखकर भाग गया । ब्रह्मचारी जी को स्वयं भोजन पकाना पड़ा ।
६) 
उस समय मृत्यु होने पर वाल्मीकि सब गाड़े जाते थे, जलाये नहीं जाते थे । फूलसिंह पहला वाल्मीकि भाई था जिसका ब्रह्मचारी जी ने दाह संस्कार करवाया । इसी तरह एक बाबा को भी गाड़ दिया था । उसके गाड़े हुए शरीर को निकलवाया और दाह-कर्म किया । इस दिशा में ब्रह्मचारी जी ने अथक परिश्रम किया और घर-घर जाकर इन सबको समझाया । तब इन्होंने अपने मुर्दों को जलाना आरम्भ किया । इस प्रकार इनकी सेवा और कार्य का प्रभाव समाज के हर वर्ग में निरन्तर बढ़ता गया और लोगों की कुरीतियां व रूढ़ियां समाप्त होती गईं । ब्रह्मचारी जी आर्यसमाज, आर्य विद्यार्थी, आश्रम और कांग्रेस का काम दिन-रात करते रहे । इसी बीच हैदराबाद का आर्य सत्याग्रह प्रारम्भ हो गया ।

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