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Tuesday, November 30, 2010
राधा स्वामी सत्संग
लाला शिवदयाल ंसिह ''स्वामी जी महाराज''
इस सत्संग के मूल प्रवर्तक लाल शिव दयाल ंसिंह खत्री थे जो आगरा में सं0 1875 को बारह बजे रात में उत्पन्न हुए थे । कहा जाता है कि उनके आविर्भाव के सम्बन्ध में तुलसी साहब ने पहले ही भविष्यवाणी कर दी थी । उनके पिता दिलवाली ंसिंह पहले नानक पंथी थे और ''जपुजी'' , ''सोदर'' , ''सुखनामी'' आदि का पाठ भी किया करते थे किन्तु संत तुलसी साहब के प्रभाव में आकर उनका आकर्षण साहिब पंथ की ओर तीव्र होने लगा । सम्पूर्ण परिवार ही संत तुलसी साहब के प्रति श्रध्दा-भक्ति रखने लगा । बाल्यावस्था में ही स्वामी जी महाराज को सन्तमत द्वारा अनुप्राणित आध्यात्मि वातावरण प्राप्त हो चुका था । अत: आध्यात्म मार्ग में अग्रसर होते हुए उन्हें बाधाओं का सामना नहीं करना पड़ा ।
शैशवावस्था में इन्होंने नागरी लिपि और हिन्दी भाषा तथा गुरुमुखी का सम्यक् ज्ञान प्राप्त कर लिया । फिर उन्होंने फारसी , अरबी तथा संस्कृत भाषाओं को सीख लिया । इनकी पत्नी जिनको ''पंथानुयायी ''राधा जी'' कहा करते थे आध्यात्मिक बातों में गहरी रुचि रखती थीं । इन्होंने कुछ दिनों तक फारसी का अध्यापन -कार्य भी किया । इनके परिवार की जीविका का प्रमुख साधन महाजनी था । जब इनके बड़े भाई की डाक विभाग में नौकरी लग गयी तब ब्याज के पैसे से
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पारिवारिक खर्च चलाना इनको अनुचित प्रतीत हुआ और अपने सभी कर्जदारों को लेन-देन से मुक्त करके परिश्रम से अर्जित धन द्वारा जीविका चलाने लगे । सं0 1935 के आषाढ़ मास में आपने महासमाधि ले ली । इनकी समाधि स्वामी बाग के निकट बनायी गयी ।
शैशवावस्था में ही लाला शिवदयाल ंसिह आध्यात्मिक चिन्तन और सत्संग के प्रति रुचि रखने लग गये थे । आप अपने किसी कमरे में बैठकर घंटों चिन्तन और मनन करते रहते थें । कभी-कभी ऐसा भी हो जाता था कि आप तीन-तीन दिनों तक कमरे से बाहर निकलते ही नहीं थे । सं0 1917 से उन्होंने सन्त मत का उपदेश देना आरम्भ कर दिया । सत्रह वर्ष तक यह कार्य उनके घर पर ही सम्पादित होता रहा। भक्तों और जिज्ञासुओं की अपार भीड़ को देखते हुए उन्होंने उपदेश देने के स्थान में परिवर्तन कर दिया और आगरा से लगभग तीन मील दूर एक स्थान चुन लिया जहां एक बाग भी लगा दिया गया । संत तुलसी के निधनोपरांत साहिब पंथ के अनेक अनुयायियों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण कर लिया । उनके सिध्दान्तों में विश्वास करने वाले केवल हिन्दू मतावलम्बी ही नहीं थे , उनके मुस्लिम , जैन तथा ईसाई स्त्री-पुरुषों के वे आकर्षण केन्द्र बन गये थे । उनके अनुयायियों में उनके छोटे भाई प्रतापंसिह सेठ भी थे जिन्हें आगे चलकर भक्त चाचाजी कहने लगे थे । उन्हीं से सूचना पाकर राय सालिगराम बहादुर उर्फ ''हजूर'' साहब ने भी स्वामी महाराज का शिष्यत्व ग्रहण कर लिया जो स्वामी महाराज के निधनोपरांत उनके उत्तराधिकारी बन गये । स्वामी जी महाराज ने ''सार वचन'' (नज्म) और सार वचन (नस) की रचना की थी जिनमें उन्होंने ''सुरत शब्द योग'' को सर्वाधिक महत्व दिया है । स्वामी जी महाराज की मुख्य समाधि-निर्माण का कार्य सं0 1961 में ही आरम्भ कर दिया गया था जो अब तक निर्मित होता जा रहा है । उसमें शुध्द संगमरमर तथा अन्य बहुमूल्य पत्थरों का प्रयोग किया जा रहा है । संभवत: यह समाधि विश्व की एक अन्यतम कलाकृति होगी ।
राय सालिग राम साहब राय बहादुर हजूर महाराज साहेब
राम सालिगराम उर्फ हजूर महाराज साहेब का आविर्भाव सं0 1885 को आगरा के एक प्रतिष्ठित माथुर परिवार में हुआ था। इनके जन्म के संदर्भ में यह कहा जाता है कि ये 18 माह तक अपनी माता के गर्भ में रहे । इनके पिता राय बहादुर ंसिंह एक वकील थे । बाल्यावस्था में इन्हें फारसी की शिक्षा मिली और तदनन्तर अंग्रेजी की अध्ययन उस समय प्रचलित सीनियर कक्षा तक किया । 1847 में से डाक विभाग में द्वितीय क्लर्क के रूप में नियुक्त हुए और सं0 1881 में ये पोस्ट मास्टर जनरल के उच्च पद पर सुशोभित हो गये । 1871 में तत्कालीन अंग्रेजी सरकार ने इन्हें राय बहादुर की उपाधि प्रदान की । नौकरी करते समय रिक्त काल में ये ज्योतिष शास्त्र का अध्ययन करते थे और फारसी में इस विद्या से सम्बन्धित एक ग्रंथ की रचना भी की ।
सं0 1915 में उनकी भेंट लाल प्रतापंसिह उर्फ चाचा जी से हुयी और इनका संकेत पाकर स्वामी जी महाराज का दर्शन करने के उद्देश्य से वे आगरा चले आये । स्वामी जी महाराज के आध्यात्मिक व्यक्तित्व से ये इतने अधिक प्रभावित हुए कि उनका दर्शन किये बिना इनसे रहा ही नहीं जाता था । उन्होंने अपने को स्वामल जी महाराज के पावन-चरणों में एक सेवक रूप में अपने को समर्पित कर दिया । ये स्वामी जी के प्रति इतने आस्थावान बन गये थे कि उनका चरणामृत ,
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मुखअमृत (जूठन) यहां तक कि '' पीक दान का अमृत'' नित्यश: लिया करते थे । सं0 1933 में इन्होंने स्वामी जी महाराज की आज्ञा से अपनी व्यक्तिगत आय द्वारा भूखण्ड क्रय करके उसमें बाग लगवा दिया और मकान बनवाकर उनके चरणों में अर्पित कर दिया । वही बाग राधा स्वामी बाग के नाम से प्रसिध्द है ।
स्वामी जी महाराज के निधनोपरांत ये राधास्वामी बाग में साप्ताहिक सत्संग चलाने लगे । यह कार्यक्रम लगभग तीन वर्ष तक अनवरत गति से चलता रहा । राधास्वामी बाग तथा राधा बाग के सम्पूर्ण व्यय का भार इन्होंने स्वयं वहन किया । सं0 1944 में उन्होंने सरकारी नौकरी से जब पेंशन प्राप्त कर ली , तब भी उनके यहां अनेक जिज्ञासु आने लगे । स्वामी जी महाराज के समय में प्रचलित आरती विधि में उन्होंने कुछ परिवर्तन कर दिया । वे दिन रात में केवल तीन घंटे ही विश्राम करते थे ।
उन्होंने अनेक पुस्तकों का भी सृजन किया । सार उपदेश , प्रेम उपदेश , गुरु उपदेश , प्रश्नोत्तर , युगल प्रकाश तथा प्रेम पत्र (6 भाग) इनके प्रधान ग्रंथ है । समग्र रचनाएं ग्रंथ में हैं केवल प्रेम बानी जो चार भागों में प्रकाशित है , पद्य में है । प्रेम पत्रावली के कुछ वचन अलग करके मुद्रित हुए है जिनके नाम हैं -''राधास्वामी मत संदेश'' , ''राधा स्वामी मत उपदेश'' तथा ''सहज उपदेश'' । इसी प्रकार स्वामी जी महाराज के ''सार-वचन'' (नज्म) तथा ''हुजूर महाराज साहेब'' की प्रेम वानियों में से भी कुछ चुनकर ''भेद वानी'' (4 भाग) ''प्रेम प्रकाश'' , ''नाम माला'' तथा ''विनती तथा प्रार्थना'' नामक संग्रह प्रकाशित हुए हैं । ''संत संग्रह'' नामक पुस्तक का भी प्रकाशन दो भागों में उन्होंने किया जिनमें संतो की कतिपय वानियां संगृहीत हैं । ''राधा स्वामी मत प्रकाश'' की रचना उन्होंने आंग्ल भाषा में की है ।
हुजूर महाराज साहेब'' ने सत्संग का कार्य-क्रम बीस वर्षों तक चलाया । वे बहुत मधुर स्वभाव के संत थे । उनका व्यक्तित्व बड़ा ही आकर्षक था । सं0 1955 में सत्तर वर्ष की अवस्था में उन्होंने अपने प्राणों का विसर्जन कर दिया । प्रेम -विलास भवन में उन्होंने अपने पार्थिव शरीर का परित्याग किया था और उसी भवन में उन्हें समाधि भी दे दी गयी ।
ब्रह्मशंकर मिश्र ''महाराज साहेब''
संत ब्रह्म शंकर मिश्र अपने सत्संग में ''महाराज साहेब'' के रूप में प्रसिध्द हैं । उनका जन्म काशी के एक कुलीन ब्राह्मण परिवार में सन् 1861 को हुआ था । उनके पिता पं0 रामयश मिश्र संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे । ''महाराज साहेब'' अपने गुरु हुजूर महाराज साहेब की भांति सदा गृहस्थाश्रम में बने रहे । कल्कत्ताा विश्वविद्यालय से एम0 ए0 की उपाधि प्राप्त करने के अनन्तर वे बरेली कालेज में प्रोफेसर के रूप में काम करने लगे । अनेक वर्षों तक इलाहाबाद में स्थित एकाउन्टेन्ट जनरल आफिस में भी नौकरी की किन्तु उनकी आध्यात्मिक साधना का क्रम कभी टूटा नहीं । ''हुजूर महाराज साहेब'' के पार्थिव शरीर का परित्याग करने पर उत्तराधिकारी के रूप में सं0 1955 से लेकर सं0 1964 तक इलाहाबाद केन्द्र के ही वे सत्संग का कार्यक्रम अबाध गति से चलाते
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रहे । उन्होंने सं0 1932 मे ही दीक्षा ग्रहण कर ली थी । सं0 1964 में काशी में आपका स्वर्गवास हो गया । काशी के कबीर चौरा मुहल्ले में स्थित स्वामी बाग नामक स्थान पर आपको समाधिस्थ कर दिया गया । उन्होंने अंग्रेजी में ''डिस्कोर्सेज ऑन राधास्वामी फेथ'' नामक एक महत्वपूर्ण पुस्तक की रचना की थी।
राधास्वामी सत्संग का विकेन्द्रीकरण
महाराज साहब के निधनोपरान्त इस सत्संग का विकेन्द्रीकरण आरम्भ हो गया। उनके शिष्य मुंशी कामता प्रसाद ने आगरा में और ठाकुर अनुकूल चन्द चक्रवर्ती ने पवना (पूर्व बंगाल) में अपनी-अपनी स्वतंत्र गद्दियों की स्थापना कर ली। महाराज साहब के पश्चात उनकी बड़ी बहन श्रीमती माहेश्वरी देवी अथवा बुआ जी साहिबा उनकी गद्दी पर बैठी। 56 वर्ष की आयु में उनका देहावसान सं0 1969 में हो गया। अत: प्रयाग की गद्दी माधव प्रसाद सिंह उर्फ ''बाबू साहब'' के हाथ में आ गयी और इनके पुत्र योगेन्द्र शंकर उर्फ ''भैया जी साहब'' ने काशी में पृथक गद्दी की स्थापना कर ली।
बहुत से अनुयायी बुआजी साहिबा को नहीं , मुंशी कामता प्रसाद ''सरकार साहब'' को चतुर्थ गुरु के रूप में स्वीकार करते है। सं0 1971 में उनका भी शरीर अन्त हो गया। अत: उनका स्थान सर आनन्द स्वरूप उर्फ साहब जी ने ले लिया। इन्होने ''महाराज साहब'' से दीक्षा ग्रहण की थी। इनका ध्यान आध्यात्मिक विकास के साथ औद्योगिक विकास पर भी केन्द्रित था। अत: आगरा के निकट दयाल बाग को औद्योगिक केन्द्र बना दिया और वहां एक सफल कर्मयोगी का जीवन व्यतीत करते हुए सं0 1994 में महाप्रयाण किया और उनके स्थान पर राय साहब गुरु चरन दास मेहता उर्फ ''मेहता जी साहब'' गद्दी के उत्तराधिकारी घोषित कर दिये गये।
महर्षि शिव व्रत लाल
महर्षि शिवव्रत लाल भी हुजूर महाराज साहब के शिष्य थे। उन्होने सं0 1978 में गोपी गंज में अपनी गद्दी का शुभारम्भ किया। ये एक योग्य व्यक्ति थे। इन्होने आध्यात्मिक जटिल विषयों को सरल व्याख्या करके सर्वसाधारण्ा के लिये बोधगम्य बना दिया। उन्होने कबीर बीजक को टीका तथा विभिन्न संतो की जीवनी पर प्रकाश डालते हुए उनकी रचनाओं का सुन्दर संग्रह भी प्रकाशित किया। अपने विचारों के प्रचारार्थ उन्होने नाना पत्र पत्रिकाओं तथा विचार मालाओं को भी प्रकाशित किया। ''अवधूत गीता'' तथा ''श्रीमद्भागवत गीता'' का अनुवाद - कार्य भी किया। इनका समय सं0 1916 से सं0 1996 तक था।
यद्यपि राधा स्वामी सत्संग की प्रधान शाखाएं दयाल बाग और स्वामी बाग की ही समझी
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जाती है किन्तु उनके अनेक उपसम्प्रदायों का भी निर्माण हो गया। गाजीपुर , गोपीगंज , काशी इत्यादि में ऐसे ही उपसम्प्रदायों का गठन किया गया था जिसका ऊपर संकेत दिया जा चुका है। राय वृन्दावन ने एक वृन्दावनी सम्प्रदाय भी चला दिया। जिसमें राधा स्वामी नाम के स्थान पर ''सतगुरु राम'' नाम को अधिक महत्व प्राप्त हुआ। बाबा जैमल सिंह ने , जो पहले से ही सिक्ख धर्मानुयायी थे डेरा व्यास में गद्दी बना डाली किन्तु उन्होने कभी सत्तनाम की टेक नहीं छोड़ी। उनके निधनोपरान्त व्यास वाली गद्दी के उत्तराधिकारी बाबा सावन सिंह हो गये। ''राधास्वामी नाम को अस्वीकृति प्रदान करने वाले बाबू श्यामलाल जिन्होने 1987 के लगभग ''धारा सिंह प्रताप'' का नाम स्वीकार कर लिया था ग्वालियर में अपनी एक अलग शाखा के निर्माण की चेष्टा की जो व्यापक रूप से प्रचार नहीं पा सकी।
कुछ व्यक्ति ऐसे भी हुए जिन्होने ''राधा स्वामी'' राम के महत्व को तो स्वीकृति प्रदान की किन्तु मूल केन्द्र से अपने को अलग कर लिया। गरीब दास ने देहली में तथा अनुकूल चन्द चक्रवर्ती ने पवना में अपनी गद्दी बना ली जो सत्संग के मुख्य ध्येय से पृथक हो गयी जान पड़ने लगी। बाबा गरीब दास के अनुयायियों में जहां झाड़ फूंक की व्यवस्था की गई वहां अनुकूल बाबू के अनुयायी वैष्णवों की भांति कीर्तन करने लगे।
राधा स्वामी शब्द पर विचार कर लेना भी आवश्यक है। यह शब्द उस परमोच्च सत्ता का बोधक है जो समस्त सृष्टि का मूल स्रोत है। यह शब्द संत गुरु वा परम गुरु के लिये भी व्यवहृत होता है और उस मत का भी पर्यायवाची है जिसके मूल प्रवर्तक के रूप में स्वामी जी महाराज प्रख्यात है। स्वामी शब्द से तात्पर्य उस परम पिता से है जो विश्व का नियन्ता है और वहां से प्रवाहित होने वाली वेतन धारा को राधा कहा जाता है। परमोच्च सत्ता ही पिता है और उनमें प्रवाहित होने वाली चेतन धारा माता। इस सन्दर्भ में यह भी निवेदन करना अपेक्षित है कि राधा स्वामी सम्प्रदाय में पिण्ड के तीन भिन्न - भिन्न प्रदेश माने गये है - पिण्ड प्रदेश , ब्रह्माण्ड प्रदेश तथा दयाल देश। पिंड देश भौतिक है और उसमें चेतन का अंश गौण रूप में है । ब्रह्माण्ड देश में चेतन की प्रधानता है और भौतिक अंश गौण है । दयाल प्रदेश शुध्द चेतन का देश जहां भौतिक अंश का पूर्णत: अभाव है । राधा स्वामी का स्वरूप भी इन तीनों ही प्रदेशों में भिन्न है । सबसे नीचे वाले पिंड प्रदेश में वह तरंग की एक लहर मात्र का रूप ग्रहण करता है जिसके हाथों में स्थूल भौतिक पदार्थों का समस्त अधिकार होता है । मनुष्य उस परात्पर सागर की एक बिन्दु है जो भौतिकता से आवृत्त होकर बंधन मुक्त हो जाता है । उस पिंड प्रदेश से ऊपर ब्रह्माण्ड प्रदेश में परम तत्व सागर की एक तरंग की भांति व्यक्तित्व धारण कर विद्यमान रहता है । वही वेदान्तियों का ब्रह्म है । सबसे उच्चतम दयाल प्रदेश में राधा स्वामी का कोई पृथक व्यक्तित्व नहीं रहता । वहां वह अपार सागर की भांति व्यापक और गभ्मीर बना रहता है । इन भेदों से परिचित होकर संत गुरु के बताये मार्ग पर चलने से ही जीव का कल्याण सम्भव है ।
उक्त धारा से सम्बन्ध जोड़ने के लिए ''सुरत शब्द योग'' का अभ्यास अनिवार्य है । इसके लिए ''सुमिरन'' , ध्यान'' और ''भजन'' तीन प्रकार की साधनाओं का विशेष महत्व समझा गया है । मौन सुमिरन चित्त को भगवान की ओर उन्मुख करता है । ध्यान से चित्त उस केन्द्र बिन्दु पर स्थिर होता है और भजन के माध्यम से साधक ब्रह्म में लीन हो जाता है । इसी को साधारण योग की परिभाषा में धारणा ध्यान और समाधि कहा जाता है ।
''राधा स्वामी सत्संग'' में उपासना वा भक्ति का विशेष महत्व है । किन्तु उपासना किसकी
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हो ? इसमें शब्द स्वरूप राधा-स्वामी , संत गुरु वा साध गुरु की उपासना का ही विधान है । सत्संग में संत गुरु , परम सन्त तथा साधु गुरु में भी अन्तर माना गया है । सन्त लोक में पहुंचने वाले को सन्त गुरु , राधास्वामी के मुकाम पर पहुंचने वाले को परम सन्त और ब्रह्म लोक तक पहुंचने वाले को साधु गुरु की संज्ञा दी गई है ।
''हुजुर महाराज साहेब'' ने वैराग्य की अपेक्षा भक्ति और अनुराग को अधिक महत्व दिया है क्योंकि भक्ति का अभ्यास करने से सांसारिकता के प्रति वैराग्य भाव स्वत: जागृत हो जाता है । भक्ति के लिए भी उन्होंने दीनता को अनिवार्य माना है । दीनता का भाव जागृत होते ही साधक में शरणापन्न होने की भावना का समावेश हो जाता है । सांसारिक प्रेम वास्तव में मोह है । इस सन्त में दीनता , प्रपत्ति और प्रेम का समान महत्व प्राप्त है ।
इस पंथ के चार मुख्य अंग हैं -पूरा गुरु , नाम , सत्संग तथा अनुराग । तदनुसार साधक को पूरे गुरु से उपदेश ग्रहण करना चाहिए । पूरा गुरु संत सत्गुरु वा साधु गुरु का पर्याय है । जो ध्वन्यात्मक रूप से सभी घटों मे परिव्याप्त है । वही नाम है । शब्द और उसकी ध्वनि में भेद नहीं है । कृत्रिम नाम व्यर्थ सिध्द होते हैं । सत्संग का तात्पर्य है कि संत सद्गुरु का सानिध्य , उनकी सेवा करना और उनके उपदेशों को हृदयंगम कर सुरति के सहारे अन्तर में प्रतिध्वनित शब्द को सुनना तथा मन से सच्चे नाम का सुमिरन करते हुए उनके स्वरूप में ध्यान केन्द्रित करना । अनुराग का तात्पर्य उस सात्विक प्रेम से है जिससे प्रेरित होकर साधक स्वामी के दर्शन-लाभ की तीव्र आकांक्षा से भर जाता है ।
राधा स्वामी सत्संग के कुछ नैतिक नियम हैं , जिनका पालन करने से साधक आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख होता है । मांस तथा मादक वस्तुओं का सेवन , आकर्षक वस्त्राभूषणों का प्रयोग , अधिक निद्रा और व्यर्थ की बातचीत में समय का अपव्यय राजनीति आन्दोलनों में सक्रिय सहयोग देना इत्यादि गर्हित माने गये हैं । अपने पूर्व धर्म का पालन करते हुए अपनी जीविका चलाना और सत्संग करना इत्यादि इस पंथ के नैतिक नियमों के अन्तर्गत आते हैं । संत सतगुरु के प्रति श्रध्दा भाव रखते हुए उनके द्वारा स्पर्श की गई वस्तु का व्यवहार भी नियमानुकूल है ।
संत मत सत्संग
कबीर के काव्य की सामाजिक प्रासंगिकता
कबीर के काव्य की सामाजिक प्रासंगिकता
डॉ. किशोरीलाल रैगर
मध्यकालीन भारतीय समाज जहाँ पुरोहितवाद, सामन्तशाही, मिथ्याचार, रूढवादिता, छद्म, जडता, पाखण्ड और अंधविश्वास पर टिका था, वहीं इस युग के संतों ने समस्त रूढयों को अस्वीकार करते हुए लोक और शास्त्र् के अर्थहीन मूल्यों को नकार कर खुला विरोध किया तथा उस परम्परा को समृद्ध किया, जिसका बीजारोपण बौद्ध, सिद्ध, नाथों ने किया था। प्राचीनकालीन वैदिक समाज में जब पापाचारों और मिथ्याचारों का बोलबाला होने लगा था, तब उस चातुर्वर्णव्यवस्था को चुनौती देकर शुद्ध सामाजिकता की स्थापना के लिए जो संघर्ष बुद्ध ने किया उसी को तरजीह देते हुए सिद्धों और नाथों ने उस परम्परा को आगे बढाते हुए निर्गुण संतों तक पहुँचाया। बौद्ध धर्म की तरह ही मध्यकालीन भक्ति आंदोलन भी अद्वितीय था, जिसने सामाजिक जडता को तोडकर जाति-पाँति, ऊँच-नीच, छुआछूत, धनी-निर्धन, देशी-विदेशी, हिन्दू-मुस्लिम, जैन-बौद्ध, शैव-शाक्त, स्त्री-पुरुष आदि के विभेद को दूर कर वास्तविक सत्य का ज्ञान करवाया। जब हम मध्यकालीन निर्गुण संतों की बात करते हैं तो उनमें नानक, कबीर, रविदास, दादू, दरिया, गरीबदास, चरणदास, सुन्दरदास, पलटू आदि का नाम आदर के साथ लेते हैं, जिन्होंने आध्यात्मिक जागृति के साथ-साथ सामाजिक रूढयों और वर्जनाओं को तोडकर सामाजिक समरसता की स्थापना में बडा योगदान दिया। कबीरदास इन निर्गुण संतों में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं।
कबीर के जन्म संबंधी विवादों में यदि न पडें तो काशी के लहरतारा तालाब में ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा संवत् 1455 को कबीर का अवतरण हुआ मानते हैं। इस संबंध में कबीरपंथियों में यह पद बहुत प्रसिद्ध हैं -
‘‘चौदह सौ पचपन साल भए, चंद्रवार एक ठाठ ठए ।
जेठ सुदी बरसायत को पूरनमासी तिथि प्रगट भए ।।
घन गरजे दामिनि दमके बूँदें बरषे झर लाग गए ।
लहर तालाब में कमल खिले, तहँ कबीर भानु प्रकट भए ।।’’
(कबीर ग्रंथावली, डॉ. श्याम सुन्दरदास, पृ.13)
यह युग दिल्ली सल्तनत के लोदीवंशी बादशाहों का युग था। कबीर ने तत्कालीन समाज में अपनी प्रखर सामाजिकता और निर्भयता का परिचय देते हुए धर्म और समाज के कई मिथों को तोडकर सत्य की स्थापना के लिए संघर्ष किया, जिसमें वह सफल भी रहे। इसलिए अपने समय में उनके काव्य की प्रासंगिकता पर किसी प्रकार का प्रश्न चिह्न खडा नहीं किया जा सकता।
वर्तमान युग में जहाँ चारों ओर आपा-धापी, गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा, परस्पर निजी स्वार्थ, कुण्ठाएँ, तनाव, ईर्ष्या-द्वेष, आतंकवाद, धार्मिक उन्माद, साम्प्रदायिकता, जातिवाद, स्त्री-पुरुषवाद, दलित उत्पीडन आदि प्रवृत्तियाँ हावी हैं, जिनके कारण आम व्यक्ति अत्यन्त दुःखी हो रहा है तथा समाज में अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो रही है। ऐसी परिस्थितियों में यदि हम कबीर के काव्य का मूल्यांकन करें तो उसकी प्रासंगिकता हमें उनके समय से आज अधिक उपयुक्त दृष्टिगत होती है। यदि उस कलियुग में कबीर न होते तो उनके द्वारा प्रसूत प्रेमाभक्ति और सामाजिक समरसता का वह बिरवा इस तरह पुष्पित-पल्लवित नहीं होता। इस संबंध में संत पीपा का यह पद द्रष्टव्य है -
‘‘जौ कलि-माँझ कबीर न होते ।
तो लोक वेद अरु कलियुग मिलि करि भगति रसातलि देते।’’ (संत कबीर, डॉ. रामकुमार वर्मा, पृ.5)
तात्पर्य यह है कि यदि इस कलियुग में कबीर का अवतरण न होता तो लोक, वेद और कलियुग ने मिलकर भक्ति को रसातल में पहुँचा दिया होता। इस पद से स्पष्ट है कि उस युग में धार्मिक क्षेत्र् में कितनी अराजकता फैली हुई थी। अतः यह पद कबीर की महत्ता को स्वतः प्रमाणित करता है। ‘‘मासिकागद छूयो नहीं, कलम गह्यौ नहिं हाथ।’’ जैसी स्वीकारोक्ति द्वारा उन्होंने जो कुछ भी प्राप्त किया अपनी साधना और अनुभवों से प्राप्त किया। वह शास्त्रें या पोथियों में लिखी बात नहीं कहते। अनुभूत सत्य होने के कारण ही कबीर की उक्तियाँ शाश्वत सत्य की तरह आज भी प्रासंगिक हैं।
कबीर के काव्य में जितनी प्रेमाभक्ति मिलती है, उतनी ही सामाजिकता भी दृष्टिगोचर होती है। हालाँकि हमें इस विवाद में नहीं पडना चाहिए कि कबीर कवि थे, भक्त थे या समाज सुधारक। वस्तुतः वे रूहानियत की उच्चावस्था को प्राप्त एक ऐसे संवेदनशील संत कवि थे, जो पर-पीडा को न केवल पहचानते थे, अपितु स्वयं अनुभव भी करते थे। इसलिए भले ही उनकी वाणी किसी सामाजिक आंदोलन के लिए न हो, परन्तु वह मनुष्य व समाज के परिष्कार के लिए अवश्य थी। फिर चाहे वह मार्ग भक्ति का हो या समाज सुधारक का, उससे क्या फर्क पडता है, क्योंकि कबीर में एक गहरी संवेदनशीलता है, जिसका प्रयोग उन्होंने मनुष्य के दुःख को दूर करने के लिए उसी तरह करुणा-प्रसूत होकर किया जिस तरह भगवान बुद्ध ने किया था। इस संबंध में डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल का यह मत उचित प्रतीत होता है - ‘‘जन्मजात सामाजिक पहचान के स्थान पर कबीर समाज संवेदना और मूल्यबोध पर आधारित पहचान की खोज करते हैं, अपने लिए भी और अपने श्रोताओं, संवादियों के लिए भी। इस ‘सामाजिक’ खोज म लगे होने के कारण ‘आध्यात्मिक’ खोज उन्हें बेमानी नहीं लगने लगती। उनके लिए ये खोजें विरोधी नहीं परस्पर निर्भर हैं। कबीर सामाजिक व्यवस्था, परम्परा और मान्यताओं के रूपान्तरण का प्रस्ताव करते हुए अपनी वैयक्तिक सत्ता को लगातार रेखांकित करते हैं - इसलिए वे ‘आधुनिक मनुष्य’ को अपने चित्त के अधिक निकट लगते हैं।’’ (‘अकथ कहानी प्रेम की’ ः डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल, पृ.20)।
कबीर आज इसलिए प्रासंगिक हैं, क्योंकि वे पाखण्ड, जडता, अंधविश्वास और रूढयों को स्वीकार नहीं करते, अपितु वैचारिक संवेदना के स्तर पर निर्भय होकर सत्य की स्थापना पर जोर देते हैं, तथा सभी भेदों-विचारों से परे हटकर सत्यानुभूति की बात करते हैं, और लोगों के दुःख को सुख में बदलने के लिए तत्परता दिखाते हैं। इस सम्बन्ध में उनका यह पद देखिए -
‘‘जमतै उलटि भया है राम ।
दुःख विसर्या सुख किया विश्राम ।।
बैरी उलटि भया है मीता ।
साषत उलटि सजन सहज समाऊँ ।।
कहे कबीर सुख सहज समाऊँ ।
आप न डरौं न और डराऊँ ।।’’
(संत काव्य, डॉ. परसुराम चतुर्वेदी, पृ.157 से उद्धृत)
वस्तुतः कबीर न आप डरते हैं और न ही औरों को डराते हैं, अपितु सहज सुख और मित्र्ता की बात करते हैं।
ज्ञान के व्यापक विस्तार के बावजूद आज भी लोग विभिन्न तरह के मिथ्याचारों, ढोंगों, पोंगा-पंथियों और कथित साधुओं के चक्कर में पडकर विभिन्न तरह की धर्म-साधनाओं में बुरी तरह उलझे हुए हैं। कबीर इन कष्टसाध्य साधनाओं, पूजा-पाठ आदि का विरोध करते हुए सहज समाधि पर बल देते हैं। इस संबंध में उनका यह पद हमारी आँखें खोलने के लिए पर्याप्त है -
‘‘साधो सहज समाधि भली ।
गुरु प्रताप जा दिन सो उपजी दिन-दिन अधिक चली।। जहाँ-जहाँ डोलौं सो परिकरमा जो कछु करौं सो सेवा। जब सोवौं तब करौं दण्डवत पूजौ और न देवा।। ..........
कह कबीर यह उनमनि रहनी सो परगट करि भाई। दुःख-सुख से कोई परे परम पद तेहि पद रहा समाई।।’’ (संत कबीर, शांति सेठी-राधा स्वामी सत्संग ब्यास, पृ.177)
वस्तुतः कबीर विभिन्न मत-मतांतरों व कष्ट-साध्य यौगिक क्रियाओं तथा विभिन्न तरह की पूजा-आराधना को पाखण्ड मानते हैं। उनकी दृष्टि में ‘शब्द रूपी राम नाम’ ही इस भवसागर से पार उतारने का एक मात्र् आधार है और इसके लिए किसी मंदिर-मस्जिद में जाने की आवश्यकता नहीं, अपितु समर्थ गुरु की कृपा दृष्टि की आवश्यकता है। उनकी भक्ति पद्धति में ‘‘जलदस्रु भावुकता नहीं थी, जो जरा सी आँच से पिघल जाये। यह प्रेम ज्ञान द्वारा नीत और श्रद्धा द्वारा अनुगमित था। ...उनका मन जिस प्रेम रूपी मदिरा से मतवाला था, वह ज्ञान के महुवे और गुड से बनी थी, इसीलिए अंध-श्रद्धा, भावुकता और हिस्टीरिक प्रेमोन्माद का उनमें एकांत अभाव था।’’ (हिन्दी साहित्य की भूमिका, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृ.105)।
मध्यकालीन समाज में वर्ण-व्यवस्था, जातिवाद, पण्डा- पुरोहितवाद, हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य, साम्प्रदायिकता आम बात थी। कबीर इन पाखण्डों को पनपाने में मुल्ला-मौलवी व पण्डितों दोनों को ही दोषी ठहराते हैं। ध्यातव्य है कि आज कहीं भी जातिगत वैमनस्य या साम्प्रदायिकता का खतरा उत्पन्न होता है, वहाँ धार्मिक गुरु ही सबसे अगुवा होते हैं। ‘‘कबीर समाज में जो विसंगतियाँ देखते हैं, उनके विवरण-विस्तार में अधिक नहीं जाते, उन्हें टुकडों में व्यक्त करते हैं, पर पूरी तल्खी के साथ। सम्प्रदायवाद, जाति-उपजातिवाद पर उनके आक्रमण सबसे तीखे हैं, क्योंकि इससे श्रेणी-वर्ग-विभाजन होता है, मनुष्य खण्ड-खण्ड हो जाता है।’’ (भक्ति काव्य का समाजदर्शन, डॉ. प्रेमशंकर, पृ.94)
कबीर के समय में अधिक समस्या हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य की थी। हिन्दू अपने धर्म को श्रेष्ठ समझते थे, तो मुसलमान अपने धर्म को, जिनको लक्ष्य करते हुए कबीर साफ-साफ शब्दों में कह उठते हैं -
‘‘अरे इन दोउन राह न पाई ।
हिन्दू अपनी करैं बडाई, गागर छुवन न देई ।
वेश्या के पायन तर सौवे, यह देखो हिन्दुआई । मुसलमान के पीर औलिया, मुर्गी मुर्गा खाई ।
खाला केरी बेटी ब्याहैं, घर ही में करैं सगाई । ...................................................
हिन्दुअन की हिन्दुआई देखी, तुरकन की तुरकाई । कहै कबीर सुनौ हे साधौ, कौन राह ह्वै जाई ।।’’ (संत सुधार, खण्ड-1, पृ.109)
कबीर दोनों धर्म वालों की रीति-नीतियों पर ही आश्चर्य प्रकट करते हैं। मुसलमान जहाँ मस्जिद में सजदा करते हैं, वहीं हिन्दू मन्दिर में दण्डवत प्रणाम करते हैं। एक रोजा रखता है, तो दूसरा व्रत-उपवास। एक पश्चिमाभिमुखी होकर नमाज पढता है, तो दूसरा पूर्वाभिमुखी होकर भगवान की पूजा-अर्चना करता है, एक हज यात्र करता है, तो दूसरा अडसठ तीर्थों की यात्र, लेकिन ईश्वर के वास्तविक मर्म को दोनों ही नहीं समझ पाये। इस स्थिति में आज भी किसी तरह का परिवर्तन नहीं हुआ है। अतः इस संबंध में कबीर की यह वाणी बहुत प्रासंगिक
है*-
‘‘अल्लह राम जिउं तेरे नांई ।
बंदे ऊपरि मिहरि करौ मेरे सांई ।।
........................................
क्या उजू जप मंजन कीए क्या मसीति सिरू नाए । दिल महिं कपट, निवाज गुजारै क्या हज काबै जाए।। बाह्मन ग्यारसि करै चौबीसों, काजी माह रमजानां। ग्यारह मास कहौ क्यूं खाली एकहि मांह निमानां।। ...................................................
पूरब दिसा हरी का बासा पच्छिम अलह मुकामां । दिल महिं खोजि दिलै दिलि खोजहु, इहंहं रहीमा रामां।।’’ (कबीर ग्रंथावली, सं. डॉ.पारसनाथ तिवारी,
पृ.103)
यहाँ मेरा उद्देश्य किसी धर्म-विशेष पर प्रहार करने का नहीं, अपितु कबीर के उस विचार को प्रतिस्थापित करना है, जिसके माध्यम से वह दोनों धर्मों को वास्तविकता को उजागर करते हैं। यदि ईमानदारी से निरीक्षण करें तो दोनों धर्मों में आज भी इस तरह की ढेर सारी विकृतियाँ भरी पडी हैं, जिनका उल्लेख संत कबीर स्थान-स्थान पर करते हैं। अतः कबीर कहते हैं कि एक-दूसरे पर दोषारोपण करने की अपेक्षा अपने-अपने हृदय को खोजो, वहीं पर राम और रहीम मिलेंगे, जो दोनों एक ही हैं। उनमें किसी तरह का विरोध और भेदभाव नहीं है।
वर्ण-व्यवस्था, जाति-पाँति, छुआछूत और ऊँच-नीच की कुत्सित व्यवस्था ने सदियों से भारतीय समाज को खोखला किया है, जिसके कारण मनुष्य-मनुष्य के बीच भेदभाव की खाई अत्यधिक गहरी हुई है। आज भी जातियों और उपजातियों को सुदृढ कर और अधिक पेचीदा बनाया जा रहा है। कबीर ने जैव वैज्ञानिक और समाजशास्त्रीय तर्कों द्वारा वर्ण-व्यवस्था और जातिवाद पर करारा प्रहार किया है जो जन्मजात भेदभाव को दूर करता है। उन्होंने कहा है -
‘‘जो पै करता बरन बिचारे। तौ जनतै तीनि डांडि किन सारे।। जे तूँ बाभन बभनी जाया। तो आन बाट होई काहे न आया।। जे तूँ तुरुक तुरुकिनी जाया। तो भीतरी खतना क्यूं न कराया।। कहै कबीर मद्धिम नहिं कोई। सो मद्धिम जा मुख राम न होई।।’’ (कबीर ग्रंथावली, सं.डॉ. पारसनाथ तिवारी, पृ.106)
उन्होंने स्पष्ट किया कि सभी का जन्म एक ही तरह से होता है, चाहे वह ब्राह्मण हो या शूद्र, हिन्दू हो या मुसलमान कोई किसी दूसरे रास्ते से नहीं आता। सबकी उत्पत्ति एक ही परम तत्त्व से हुई है। अतः वर्ण-अवर्ण का विचार ही गलत है। उन्होंने और भी स्पष्ट करते हुए कहा है -
‘‘पानी पवन संजोई करि, कीया है उतपाति ।
सुन्नि में सबद समाइगा, तब कासनि कहिए जाति।।’’ (कबीर ग्रंथावली, सं.डॉ. पारसनपाथ तिवारी, पृ.120)
दुनिया के अन्य देशों में वर्गगत भेदभाव हैं, पर हमारे यहाँ पर जातिगत भेद हैं, जो अत्यधिक खतरनाक हैं, क्योंकि वर्ग बदला जा सकता है, किन्तु जाति नहीं। अतः कबीर ने उस मिथ को तोडने का साहसिक प्रयास किया है, जिसमें कहा गया है कि ‘‘विप्र पूजहि शील-गुन हीना, न शूद्र ज्ञान प्रवीणा।’’ उन्होंने इस व्यवस्था का आध्यात्मिक समाधान देते हुए कहा है कि -
‘‘हम वासी उस देश के, जहाँ जाति-पाँति कुल नाहिं।’’
(कबीर ग्रंथावली, सं. डॉ.पारसनाथ तिवारी, पृ.174)
जाति-व्यवस्था को तोडने का जो कदम कबीर ने उठाया है, वह आज भी हमारे लिए अत्यधिक प्रासंगिक है। उन्होंने और भी अधिक स्पष्ट करते हुए कहा है -
‘‘एक बूंद एकै मल मूतर, एक चाम एक गूदा । एक जोति थै सब उतपना, कौन बाह्मन कौन सूदा।।’’ (कबीर ग्रंथावली, सं. डॉ. पारसनाथ तिवारी, पृ.57)
छुआछूत जाति व्यवस्था को और भी अधिक पुष्ट करती है, जिससे मनुष्य-मनुष्य के बीच भेदभाव की खाई और भी अधिक चौडी होती है। कबीर इस व्यवस्था को सिरे से खारिज करते हैं तथा छुआछूत करने वाले व्यक्तियों को कठघरे में खडा कर उनसे धीरे-सीधे सवाल करते हैं -
‘‘काहे कौ कीजै पांडे छोति बिचारा। छोतिहि तैं उपना सब संसारा।। हमारे कैसे लोहू तुम्हारे कैसे दूध। तुम कैसे बामन हम कैसे सूद।। छोति-छोति करता तुम्हही जाए। तो ग्रभबास काहे कौ आए।। जनमत छोति मरत ही छोति। कहै कबीर हरि की निरमल जोति।।’’ (कबीर ग्रंथावली, डॉ. श्यामसुन्दरदास, पृ.89)
कबीर का यह यक्ष प्रश्न हमें सोचने को विवश करता है कि जब सब मनुष्य एक ही ज्योति से उत्पन्न हुए हैं तो फिर यह छुआछूत और ऊँच-नीच का भेदभाव क्यों ?
कबीर का यह आक्रोश स्वाभाविक है, क्योंकि ऐसी कुत्सित सोच समाज को पतन की ओर धकेलती है। इसी कारण सदियों से भारतीय समाज के खण्ड-खण्ड टुकडे हुए हैं तथा हम प्रगति पथ की ओर अच्छी तरह नहीं बढ पाये हैं।
जाति-पाँति की तरह हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य आज भी बडी समस्या है। कबीर एक ओर हिन्दुओं को तो दूसरी ओर मुसलमानों को समझाते हुए कहते हैं कि जब पूरे जगत् का स्वामी एक ही है तो दो-दो जगदीश कहाँ से आये। अल्लाह, राम, रहीम, केशव, हरि, हजरत ये ईश्वर के ही पर्यायवाची नाम हैं। उन्होंने उदाहरण देकर समझाया है कि जिस प्रकार एक ही सोने से बने विभिन्न प्रकार के गहनों के अलग-अलग नाम होते हैं, उसी प्रकार अपनी सुविधा और आस्था की दृष्टि से हम भगवान के भी अलग-अलग नाम धरते हैं। इसलिए उसकी पूजा करो या नमाज पढो, कोई फकर् नहीं पडता। इस सम्बन्ध में यह पद द्रष्टव्य है -
‘‘दुई जगदीश कहाँ ते आया, कहुँ कौन भरमाया । अल्लाह राम, करीम, केसवा, हरि इहि महं भाव न दूजा।। गहना एक कनक ते गढना, इहि महं भरम न दूजा ।
कहन-सुनन को दुइ करि थापिन, इक नमाज इक पूजा।।’’ (संत सुधार, खण्ड-1, पृ.109-110)
इसलिए कबीर दोनों धर्मावलम्बियों को ही कहते हैं कि ‘‘एक राम जपहु रे, हिन्दू तुरक न कोई।’’
कबीर के समय में अवतारवाद, बहुदेववाद, मूर्तिपूजा, तीर्थाटन, छापा-तिलक आदि का बोलबाला था। कबीर ने स्पष्ट शब्दों में अवतारवाद का घोर विरोध किया है। उनकी दृष्टि में अवतार हो या पैगम्बर दोनों ही परमात्मा नहीं हैं। उन्होंने कहा कि संसार में दशरथ के पुत्र् को ‘राम’ कहा जाता है, किन्तु ‘राम’ का मर्म ही दूसरा है - ‘दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना, राम नाम का मरम है आना।’ उन्होंने राम का ही नहीं हिन्दुओं के अन्य अवतारों का भी खण्डन किया है तथा उस परमात्मा को अगम-अनामी रूप में मानकर घट-घट बासी बताया है। अवतारवाद को बढावा देने के लिए विभिन्न देवी-देवताओं की मूर्ति के रूप में पूजा की जाने लगी थी और यह सर्वविदित है कि मूर्तियाँ मन्दिरों में कैद थीं, जहाँ शूद्रों का प्रवेश नितान्त वर्जित था। ऐसी स्थिति में कबीर ने लोगों को मूर्ति-पूजा के भ्रमजाल से निकालकर स्पष्ट कहा कि पत्थर की मूर्ति की पूजा से यदि भगवान मिलता है तो मैं पूरे पहाड को पूजना श्रेष्ठ समझता हूँ। मूर्ति से भली तो पत्थर की बनी वह चक्की है जिससे आटा पीसा जाता है और उससे संसार का भरण-पोषण होता है। इसलिए मूर्ति पूजा का तीव्र विरोध करते हुए उन्होंने कहा है -
‘‘पाहन कूं का पूजिए, जे जनम का देइ जवाब । अंधा नर आसामुखी, यों ही खावै आब।।’’ (कबीर ग्रंथावली, डॉ.श्यामसुन्दर दास, पृ.34)
उन्होंने और भी स्पष्ट करते हुए कहा है कि मूर्ति पर भोग के रूप में जो प्रसाद चढाया जाता है उसको पुजारी ही डकार जाता है। इस पर करारी चोट करते हुए कबीर कहते हैं*-
‘‘लाडू, लावन, लापसी, पूजा चढे अपार ।
पूजि पुजारी ले गया, मूरत के मुहिं छार ।।’’ (कबीर ग्रंथावली, सं. डॉ.पारसनाथ तिवारी, पृ.109)
कबीर ने मूर्ति पूजा की भाँति मुसलमानों द्वारा मस्जिद बनाने व उसमें नमाज की बाँग देने का भी तीव्र विरोध किया है। इस सम्बन्ध में कबीर ने कहा है -
‘‘कांकर-पाथर जोड के, मस्जिद लई बनाय ।
ता चढ मुल्ला बांग दे, क्या बहिरा हुआ खुदाय।।’’
मुसलमानों द्वारा रोजा रखना फिर गाय या अन्य पशु का वध करना आदि को भी कबीर ने अनुचित मानते हुए पुरजोर विरोध किया है। ‘‘कबीर हर प्रकार के कठमुल्लेपन पर प्रहार करते हैं, क्योंकि मिथ्याचार सत्य-प्राप्ति के मार्ग में बडी बाधा है। कबीर ने मुल्ला-काजी, बाभन-पुरोहित वर्ग के प्रति अपना आक्रोश व्यक्त किया है, क्योंकि वे समाज को सही दिशा में नहीं ले जाते। उनकी ऐसी विचित्र् कर्मकाण्डी व्यवस्था है, जहाँ अचार-विचार के लिए अवसर ही नहीं। यह आक्रमण यदि कोरा भाववादी आक्रोश होता तो अपने समय में ही चीख- चिल्लाकर समाप्त हो जाता। पर कबीर ने इसे व्यापक वैचारिक आधार पर देखा-परखा, तब किसी तात्त्विक निष्कर्ष पर पहुँचे।’’ (भक्तिकाव्य का समाज दर्शन, डॉ. प्रेमशंकर, पृ.93)
कबीर को जहाँ कहीं भी विसंगति लगी और उससे समाज में अंधविश्वास पनपा उसका उन्होंने डटकर विरोध किया। इस क्रम में उनको जप-माला और तिलक-छापा भी युक्ति-युक्त प्रतीत नहीं हुआ। कबीर ने कहा कि यदि माला पहनने से ही भगवान की प्राप्ति होती तो सर्वप्रथम कुएँ से पानी निकलवाने वाले रहट को होती -
‘‘कबीर माला मन की, और संसारी भेष ।
माला पहन्यां हरि मिले, तो अरहट के गलिदेव।।’’ (कबीर ग्रंथावली, डॉ. श्यामसुन्दरदास, पृ.35)
इसी तरह छापा-तिलक लगाकर लोगों को ठगने वालों पर व्यंग्य करते हुए कबीर कहते हैं -
‘‘बैसनो भया तो का भया, बुझा नहीं विवेक।
छापा-तिलक बनाह करि, दगध्या लोक अनेक ।।’’ (कबीर ग्रंथावली, डॉ. श्यामसुन्दरदास, पृ.36)
तत्कालीन समय में तीर्थाटन को मुक्ति का सस्ता साधन माना जाता था। हिन्दू अडसठ तीर्थों की यात्र में विश्वास रखते थे, तो मुसलमान हज करने में। तीर्थाटन करने वाले दोनों ही मजहबों के लोग भ्रम में हैं। कबीर का कहना है कि तीर्थाटन के बाद भी व्यक्ति काल का ग्रास बनता ही है तो फिर तीर्थ यात्र करने से क्या लाभ -
‘‘जोगी, जपी, तपी, संनियासी, बहु तीरथ भ्रमना। लूंचित, मुंडित, मौनी, जटाधारी, अति तऊ मरना।।’’ (कबीर ग्रंथावली, डॉ. श्यामसुन्दरदास, पृ.243)
कबीर ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि तीर्थों में स्नान करने से मन का मैल नहीं धुलता। मन का मैल तभी धुलेगा जब सच्चे गुरु की शरण में जाकर सदाचरण अपनायेंगे तथा शब्द रूपी नाम को अपनायेंगे। मुसलमान की हज यात्र को भी उन्होंने ऐसा ही बताया है। वे कहते हैं -
‘‘कबीर हज करने होई गइआ, कैसी बार कबीर । सांई मुझ महि किआ खता, मुखहु न बोले पीर।।’’ (संत कबीर, डॉ. रामकुमार वर्मा, पृ.297)
हज करने वालों को कितना घमण्ड हो जाता है, इस पर कबीर ने करारा प्रहार किया है। वस्तुतः कबीर एक बौद्धिक बहस छेडते हैं। वे कोरा बयान नहीं देते, अपितु जो कुछ कहते हैं, तर्कों के साथ कहते हैं। इसलिए छह सौ वर्ष गुजर जाने के पश्चात् भी कबीर की वाणी आज भी हमें उसी तरह सावचेत करती है, जितनी उनके समय में। उपर्युक्त विमर्श के पश्चात् यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जब कबीर तमाम तरह के बाह्याचारों को सिरे से खारिज करते हैं, तो वास्तव में वह चाहते क्या थे*? कबीर व उनके समकालीन निर्गुण संत एक ऐसा समाज चाहते थे, जिसमें ऊँच-नीच, जाति-वर्ण, हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य न हो तथा धर्माधिकारी मिथ्याचारों व अंधविश्वासों में लोगों को फँसाये नहीं। वे एक ऐसे वैज्ञानिक समाज की कल्पना करते हैं, जो समरसता पर आधारित हो तथा लोग विवेकसम्मत बात को ही मानें। इसलिए प्रपंचों से दूर वे निर्गुण-निराकार परमब्रह्म की आराधना पर बल देते हैं, जहाँ किसी धर्म, जाति या लिंग का भेद-भाव नहीं तथा ब्राह्याचारों को तो तनिक भी स्थान नहीं हो। ‘‘कबीर निराकार-निर्गुण की भक्ति का प्रतिपादन सोद्देश्य करते हैं, जिसके मूल में सामाजिक-सांस्कृतिक कारक है और कर्मकाण्ड, तीर्थांटन आदि का विरोध भी इसी आशय से है। इससे धार्मिक शोषण से मुक्ति मिलती है। ‘‘देव पूजि-पूजि हिन्दू मुये, तुरक मुये हज जाई, जटा बाँधि-बाँधि योगी मुये, इनमें किनहूँ न पाई।’’ कबीर जातीय सौमनस्य के सबसे प्रबल प्रवक्ता हैं - ‘‘मध्यकालीन सामंती समाज की विसंगतियों पर चोट करते हुए वे जिस व्यंग्य का अस्त्र् अपनाते हैं, वह आज भी प्रासंगिक हैं।’’ (भक्तिकाव्य का समाजदर्शन, डॉ. प्रेमशंकर, पृ.94)
कबीर एक संत कवि ही नहीं महान् विचारक भी हैं, जो अपने समय और समाज की समस्याओं से टकराते हैं, तथा तत्कालीन सामाजिक-धार्मिक अन्तर्विरोधों को एक चुनौती के रूप में देखते हैं एवं उनका युक्ति-युक्त समाधान भी देते हैं। उनकी वाणी में विवेकजन्य करुणा है, क्योंकि वह बुद्ध की तरह समाज को दुःखों के बंधन से मुक्ति दिलाना चाहते हैं। इसलिए कबीर लोगों से सभी तरह के प्रपंचों को छोडकर आध्यात्मिक धरातल पर प्रेम-पंथ की ओर चलने का आग्रह करते हैं। जहाँ आज मनुष्य इतना आपाधापी युक्त हो गया है कि समस्त संवेदनाएँ ही खत्म होती जा रही हैं। ऐसे में कबीर का आध्यात्मिक प्रेम-पंथ हमें जीने की सच्ची राह दिखाता है। कबीर अपनी वाणी के माध्यम से उच्चतर मानवीय मूल्यों का संधान करते हैं तथा खुली राह खडे होकर अपने साथ चलने का आह्वान करते हैं -
‘‘कबीरा खडा बाजार में, लिये लुकाठी हाथ ।
जो घर फूंकै आपना, चलौ हमारे साथ ।।’’
यहाँ घर फूंककर तमाशा देखने वाली बात नहीं, अपितु ‘लुकाठी’ का तात्पर्य उस जलती हुई ‘मशालनुमा लकडी’ से है जो अंधकार की कारा से मुक्ति दिलाकर प्रकाश देती है। उनका कहने का तात्पर्य यह है जो अपने अहं का विसर्जन कर सकता है, वही इस दुर्गम प्रेम पथ पर कबीर के साथ चल सकता है, जहाँ पर चलने के लिए गहरे आत्मविश्वास व आस्था के साथ गुरु कृपा की आवश्यकता है।
पूँजीवाद के इस युग में मनुष्य स्वार्थ में ऐसा लिप्त है कि वह उलटे-सीधे तरीकों से धन सम्पदा का संचय किये जा रहा है, जिसका कोई उद्देश्य नहीं, क्योंकि उसे इस संसार की वास्तविकता का पता नहीं। कबीर के अनुसार मनुष्य अपने जीवन में जो धन जोडता है, उसका तनिक भी उपयोग नहीं कर सकता और न ही वह उसके साथ जाता है। अतः ऐसे लोगों को कबीर सावधान करते हुए कहते हैं -
‘‘काहे कूँ भीत बनाऊँ टाटी, का जाणू कहँ परिहै माटी।। काहू कूँ मंदिर महल चिनाऊँ, मूवाँ पीछे घडी एक रहन न पाऊँ।। काहे कूँ छाऊँ-ऊँच उचेरा, साढै तीन हाथ घर मेरा।।
कहे कबीर नर गरब न कीजै, जेता तन तेती भुह लीजै।।’’ (कबीर ग्रंथावली, श्यामसुन्दरदास, पृ.35)
आधुनिक भौतिकवादियों को कबीर की उपर्युक्त बात भले ही जमती न हो, किन्तु जीवन की कडवी सच्चाई यही है, जिसे नकारा नहीं जा सकता, क्योंकि जीवन क्षण भंगुर है। इसलिए संतोष वृत्ति धारण करते हुए कबीर कहते हैं -
‘‘साईं इतना दीजिए, जामै कुटुम्ब समाय।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाय।।’’
निष्कर्षतः वैसे तो कबीर के काव्य पर चर्चा करें तो उसके अनेकानेक पक्ष हैं, किन्तु हमने उनकी सामाजिक प्रासंगिकता के जिन विभिन्न पहलुओं पर जो विचार-विमर्श किया है, उससे यही प्रतीत होता है कि कबीर का अपने जीवनानुभवों से प्रसूत ‘आँखिन देखी’ बात में पूर्ण विश्वास है। पोथियों में लिखी बातों पर वे प्रश्न चिह्न खडा करते हैं। वे एक ऐसे प्रचेता हैं जिनका पग-पग मानवीय प्रेम, करुणा, शील, क्षमा, दया और संतोष से अटा पडा है। उन्होंने धार्मिक-सामाजिक कर्मकाण्डों, मिथ्याचारों, वर्णजाति, साम्प्रदायिकता आदि के विरुद्ध पूरे साहस के साथ प्रखरता से प्रहार किया है। ये बातें उनके व्यक्तित्व को निखार कर उन्हें निर्भय क्रांतिकारी व्यक्तित्व का दर्जा देती है। वस्तुतः वे चिंताकुल कवि हैं, जिन्हें सामाजिक विसंगतियाँ उद्वेलित करती हैं। इसलिए वे उच्चतर मानवीय मूल्यों एवं आचरण की प्रतिष्ठा के लिए इतने मुखर होकर संवाद करते हैं। ‘‘कबीर की कविता की ताकत इस जद में है कि वे कविता कर रहे हैं, ऐसे जगत् में जहाँ बहुत से लोग साधु का ज्ञान नहीं, उसकी जाति ही पूछते हैं। ...उनकी कविता का सपना किसी एक जाति, बिरादरी, पंथ या मजहब का सपना नहीं, मनुष्य के साझे चैतन्य का सपना है। वह एक और धर्म स्थापित करने का नहीं, धर्म के ‘फाउस्टियन पैक्ट’ से मनुष्य की मुक्ति का, धर्मेतर अध्यात्म का सपना है।’’ (अकथ कहानी प्रेम की, डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल, पृ.38)
कबीर का यह अध्यात्म-सपना उनकी सामाजिक प्रासंगिकता को आज के संदर्भ में स्वतः सिद्ध करता है ताकि मनुष्य वैश्वीकरण के भँवरजाल में न फँसकर अपने आप को उससे बचाये।
त्यौहार मनुष्य को प्रेरणा प्रदान करते हैं : कंवर सिंह महाराज
त्यौहार मनुष्य को प्रेरणा प्रदान करते हैं : कंवर सिंह महाराज
25 Aug 2010 09:17,
(25 Aug 6:00 a.m.) चरखी दादरी, 24 अगस्त (अशोक) : सतगुरु की मौज को जिसने समझ लिया समझो उसने परमात्मा को समझ लिया क्योंकि परमात्मा तक पहुंचने का सद्मार्ग संत सतगुरु की मौज से ही मिलता है। यह सद्वाणी राधा स्वामी पंथ के संत कंवर सिंह महाराज ने महेंद्रगढ़ बाईपास स्थित राधा स्वामी आश्रम में संगत को प्रवचन देते हुए कही। कंवर सिंह महाराज ने सत्संग में उमड़ी साध संगत को कहा कि त्यौहार मनुष्य को प्रेरणा और संकल्प प्रदान करते हैं। उन्होंने श्रद्धालुओं को सद्कार्यों के लिए प्रेरित करते हुए कहा कि अपनी ईमानदारी की कमाई से परमार्थ और परोपकार कमाओ तथा किसी का दिल मत दुखाओ यही सबसे बड़ी भक्ति है। इस अवसर पर कंवर सिंह महाराज ने भक्तों को कन्या भ्रूणहत्या, दहेज प्रथा व नशाखोरी आदि बुराइयों को रोकने का संकल्प दिलवाया। सत्संग से पूर्व महाराज ने आश्रम में पौधारोपण भी किया।
आधुनिक भारत का रहस्य-2
श्रीशिव दयालसिंह : राधा स्वामी सत्संग का नाम सभी ने सुना होगा। दुनियाभर में इस आंदोलन से लगभग दो करोड़ लोग जुड़े होंगे। इस एकेश्वरवादी मूर्ति भंजक संगठन की स्थापना श्रीशिव दयाल सिंह द्वारा की गई थी। आगरा में दयालबाग नामक इस संगठन का मुख्य मंदिर है जहाँ दयाल सिंह की समाधि है।
राधा स्वामी मत की अवधारणा का जन्म 1861 में हुआ था। इसे वेदों पर आधारित संत मत माना जाता है। इस संगठन में बहुदेववाद, मूर्ति पूजा, माँसाहार और मद्यपान - उक्त चार बातें सख्ती से निषेध मानी गई है। इस संगठन का भारतभर में व्यापक प्रचार-प्रसार है।
दादा लेखराज : दादा लेखराज मूलत: हीरों के व्यापारी थे। आपका जन्म पाकिस्तान के हैदराबाद में हुआ था। दादा लेखराज ने सन 1936 में एक ऐसे आंदोलन का सूत्रपात्र किया जिसे आज 'प्रज्ञापिता ब्रह्मा कुमारी ईश्वरीय विद्यालय' के नाम से जाना जाता है। सन् 1937 में आध्यात्मिक ज्ञान और राजयोग की शिक्षा के माध्यम से इस संस्था ने एक आंदोलन का रूप धारण किया।
जब दादा लेखराज को ‘प्रजापिता ब्रह्मा’ नाम दिया गया तो जो उनके सिद्दातों पर चलते थे उनमें पुरुषों को ब्रह्मा कुमार और स्त्रीयों को ब्रह्मा कुमारी कहा जाने लगा। यह आंदोलन भी एकेश्वरवाद में विश्वास रखता है। विश्वभर में इस आंदोलन के कई मुख्य केंद्र हैं तथा उनकी अनेकों शाखाएँ हैं। इस संस्था का मुख्यालय भारत के गुजरात में माऊँट आबू में स्थित है। इस आंदोलन को बाद में दादी प्रकाशमणी ने आगे बढ़ाया। यह आंदोलन बीच में विवादों के घेरे में भी रहा।
बाबा रामदेव : बाबा रामदेव अपने विचारों, बेबाक कथन और योग के कारण अक्सर चर्चा में रहते हैं। बाबा रामदेव के माध्यम से योग को जो प्रचार मिला है इससे पहले कभी इतना प्रचार नहीं मिला। रामदेव के कारण योग को पूरी दुनिया में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। बाबा ने दुनियाभर की यात्रा कर वहाँ योग शिविर लगाएँ है। देश के कई स्थानों पर योग शिविर का उन्होंने सफलतम आयोजन कर लाखों लोगों को स्वास्थ्य लाभ दिया है।
बाबा रामदेव ऊर्फ रामकृष्ण यादव का जन्म 1965 को हरियाणा में हुआ। नौ अप्रैल 1995 को रामनवमी के दिन संन्यास लेने के बाद वे आचार्य रामदेव से स्वामी रामदेव बन गए। प्रारंभ में दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट की स्थापना की। बाद में योग और आयुर्वेद के प्रचार-प्रसार के लिए पतंजलि योग पीठ की स्थापना की। छह अगस्त 2006 को इसका उद्घाटन किया गया। योग और आयुर्वेद का यह दुनिया का सबसे बढ़ा केंद्र माना जाता है।
राधा स्वामी मत की अवधारणा का जन्म 1861 में हुआ था। इसे वेदों पर आधारित संत मत माना जाता है। इस संगठन में बहुदेववाद, मूर्ति पूजा, माँसाहार और मद्यपान - उक्त चार बातें सख्ती से निषेध मानी गई है। इस संगठन का भारतभर में व्यापक प्रचार-प्रसार है।
दादा लेखराज : दादा लेखराज मूलत: हीरों के व्यापारी थे। आपका जन्म पाकिस्तान के हैदराबाद में हुआ था। दादा लेखराज ने सन 1936 में एक ऐसे आंदोलन का सूत्रपात्र किया जिसे आज 'प्रज्ञापिता ब्रह्मा कुमारी ईश्वरीय विद्यालय' के नाम से जाना जाता है। सन् 1937 में आध्यात्मिक ज्ञान और राजयोग की शिक्षा के माध्यम से इस संस्था ने एक आंदोलन का रूप धारण किया।
जब दादा लेखराज को ‘प्रजापिता ब्रह्मा’ नाम दिया गया तो जो उनके सिद्दातों पर चलते थे उनमें पुरुषों को ब्रह्मा कुमार और स्त्रीयों को ब्रह्मा कुमारी कहा जाने लगा। यह आंदोलन भी एकेश्वरवाद में विश्वास रखता है। विश्वभर में इस आंदोलन के कई मुख्य केंद्र हैं तथा उनकी अनेकों शाखाएँ हैं। इस संस्था का मुख्यालय भारत के गुजरात में माऊँट आबू में स्थित है। इस आंदोलन को बाद में दादी प्रकाशमणी ने आगे बढ़ाया। यह आंदोलन बीच में विवादों के घेरे में भी रहा।
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बाबा रामदेव ऊर्फ रामकृष्ण यादव का जन्म 1965 को हरियाणा में हुआ। नौ अप्रैल 1995 को रामनवमी के दिन संन्यास लेने के बाद वे आचार्य रामदेव से स्वामी रामदेव बन गए। प्रारंभ में दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट की स्थापना की। बाद में योग और आयुर्वेद के प्रचार-प्रसार के लिए पतंजलि योग पीठ की स्थापना की। छह अगस्त 2006 को इसका उद्घाटन किया गया। योग और आयुर्वेद का यह दुनिया का सबसे बढ़ा केंद्र माना जाता है।
एतमादुद्दौला का मकबरा
सम्राज्ञी नूरजहां ने अपने पिता की स्मृति में आगरा में एतमादुद्दौला का मकबरा बनवाया था। यह उसके पिता घियास-उद-दीन बेग़, जो जहांगीर के दरबार में मंत्री भी थे, की याद में बनवाया गया था। मुगल काल के अन्य मकबरों से अपेक्षाकृत छोटा होने से, इसे कई बार श्रंगारदान भी कहा जाता है। यहां के बाग, पीट्रा ड्यूरा पच्चीकारी, व कई घटक ताजमहल से मिलते हुए हैं।
इतिमद-उद-दौला का मकबरा नूरजहां के पिता मिर्जा गियास बेग को समर्पित है। इतिमद-उद-दौला उनकी उपाधि थी। यमुना नदी के किनारे स्थित इस मकबरे का निर्माण 1625 ईसवी में किया गया था। बेबी ताज के नाम से मशहूर इस मकबरे की कई चीजें ऐसी हैं जिन्हें बाद में ताजमहल बनाते समय अपनाया गया था। लोगों का कहना है कि कई जगह यहां की नक्काशी ताजमहल से भी ज्यादा खूबसूरत लगती है। इस मकबरे एक अन्य आकर्षण मध्य एशियाई शैली में बना इसका गुंबद है। यहां के बगीचे और रास्ते इसकी सुंदरता को और भी बढ़ाते हैं।
यह मकबरा भारत में बना पहला मकबरा है जो पूरी तरह सफेद संगमरमर से बनाया गया था। इसकी दीवारों पर पेड़ पौधों,जानवरों और पक्षियों के चित्र उकेरे गए हैं। कहीं कहीं आदमियों के चित्रों को भी देखा जा सकता है जो एक अनोखी चीज है क्योंकि इस्लाम में मनुष्य का सजावट की चीज के रूप में इस्तेमाल करने की मनाही है। अपनी खूबसूरती के कारण यह मकबरा आभूषण बक्से के रूप में जाना जाता है।
इतिमद-उद-दौला का मकबरा नूरजहां के पिता मिर्जा गियास बेग को समर्पित है। इतिमद-उद-दौला उनकी उपाधि थी। यमुना नदी के किनारे स्थित इस मकबरे का निर्माण 1625 ईसवी में किया गया था। बेबी ताज के नाम से मशहूर इस मकबरे की कई चीजें ऐसी हैं जिन्हें बाद में ताजमहल बनाते समय अपनाया गया था। लोगों का कहना है कि कई जगह यहां की नक्काशी ताजमहल से भी ज्यादा खूबसूरत लगती है। इस मकबरे एक अन्य आकर्षण मध्य एशियाई शैली में बना इसका गुंबद है। यहां के बगीचे और रास्ते इसकी सुंदरता को और भी बढ़ाते हैं।
यह मकबरा भारत में बना पहला मकबरा है जो पूरी तरह सफेद संगमरमर से बनाया गया था। इसकी दीवारों पर पेड़ पौधों,जानवरों और पक्षियों के चित्र उकेरे गए हैं। कहीं कहीं आदमियों के चित्रों को भी देखा जा सकता है जो एक अनोखी चीज है क्योंकि इस्लाम में मनुष्य का सजावट की चीज के रूप में इस्तेमाल करने की मनाही है। अपनी खूबसूरती के कारण यह मकबरा आभूषण बक्से के रूप में जाना जाता है।
agra- dayalbagh
Sunday, May 16, 2010
मेरा शहर, आगरा......
कहते हैं कि किसी इंसान का बचपन जिस शहर में गुज़रा हो उसकी यादें हमेशा के लिए उसके ज़हन में अपना आशियाँ बना लेती हैं | अपने शहर कि एहमियत का अंदाजा दरअसल हमें उस वक़्त होता है जब हम उसकी सीमाओं से दूर कहीं किसी दूसरे शहर, किसी दूसरे देश में अपने लिए बुनियादी ज़मीन तैयार कर रहे होते हैं | उस समय हर चीज़, हर नज़ारा, आपको अपनी मिट्टी की याद दिलाता है, फिर चाहे वो "परदेसी ज़ुबान" हो या फिर जुबान को लुभाने वाला "स्वाद", "मौसम" हो या फिर अपने ही आयु-वर्ग के युवाओं की "मस्ती" | कितनी भी कोशिश कर लो अपना शहर, अपना गाँव, अपनी गलियाँ बरबस याद आ ही जातीं हैं |
मै रहनेवाला भले ही मथुरा का हूँ, लेकिन मेरा बचपन आगरा में बीता है और यही कारण है की मेरी रूह को आगरा में वैसा ही चैन-ओ-सुकून मिलता है जैसा लोगों को काशी, काबा, मक्का मदीना, शिर्डी में मिलता है | आगरा की याद आयी तो जैसे मेरा जी भारी हो गया और आँखों से आंसू ही छलक उठे, दिल हल्का करने के लिए याद आयी अपनी जादूई छड़ी यानी की अपना ब्लॉग | इस बार अपने ब्लॉग के माध्यम से हसरत पूरी करनी है आपको आगरा के बारे में बताने की | वैसे जितना भी कहूँगा आगरा के बारे में, मुझे कम ही लगेगा क्यूंकि वो शहर मेरे दिल के इतना करीब है कि अलफ़ाज़ भले ही ख़त्म हो जाएँ मेरे पास मगर उसकी दास्ताँ ख़त्म न होगी |
शुरुआत करें भौगोलिक द्रष्टि से तो यमुना किनारे बसा आगरा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश का राजस्थान कि सरहद से लगने वाला एक महत्वपूर्ण जिला है | मथुरा, हाथरस, फिरोजाबाद, मैनपुरी और इटावा, आगरा के पडौसी जिले हैं |
एतिहासिक द्रष्टि से देखें तो आगरा न सिर्फ उत्तर प्रदेश के लिए बल्कि हिन्दुस्तान और समस्त विश्व के लिए से एक अनुपम एतिहासिक धरोहर है | मुगलों कि राजधानी रहे आगरा में देखने के लिए यूँ तो बहुत कुछ ऐसा है जो इतिहास में दिलचस्पी रखने वालों को लुभाता है लेकिन ताज महल, सिकंदरा, फतेहपुर सीकरी, आगरा फोर्ट, राधा स्वामी समाधी व एतमाद-उद-दौला का अपना एक सहज आकर्षण है |
आधुनिक दुनिया के सात आजूबों में शामिल, बेइन्तेहाँ प्यार की अद्वुतीय निशानी ताज महल के बारे में तो पहले ही इतना कुछ लिखा और कहा जा चुका है कि हम सब उसके एक-एक पहलू और उसकी खूबसूरती के एक-एक मायने से भली भाँती परिचित हैं |
ताज महल के बाद आगरा को सुशोभित करती मुग़ल काल कि दूसरी सबसे बड़ी धरोहर है सिकंदरा | ये वो जगह है जहाँ मुग़ल काल के सबसे प्रसिद्ध बादशाह जलाल-उद-दीन "अकबर" सुपुर्द-ए-ख़ाक हैं, जहाँ उनकी कब्र है |
इसके बाद बारी है फ़तेहपुर सीकरी की, यह असल में अकबर के द्वारा स्थापित किया हुआ एक छोटा सा गाँव है | येह कभी अकबर की राजधानी हुआ करता था | फतेहपुर सीकरी छोटा लेकिन बेहद खूबसूरत है | दुनिया का सबसे बड़ा दरवाज़ा "बुलंद दरवाज़ा" यहीं बना हुआ है | बुलंद दरवाज़ा के अलावा फतेहपुर सीकरी की खूबसूरती को चार चाँद लगाते हैं - दीवान-ए-आम, दीवान-ए-ख़ास, हज़रा-ए-अनूप तालाब, जामा मज़जिद, नौबत खाना, पच्चीसी अदालत, पन्च महल, बीरबल का घर और ख्वाजा सलीम चिस्ती की मज़ार |
मुग़ल कालीन धरोहरों से आगे चलते हुए हम पहुँचते हैं आगरा के दिल में और आगरा का दिल है "दयालबाग" | दयालबाग में है "राधा स्वामी समाधी, स्वामिबाग" यह वह मंदिर है जहाँ "हुज़ूर स्वामी महाराज - श्री शिव दयाल सिंह सेठ जी" की अस्थियाँ रखी हुई हैं | यह मंदिर अटूट आस्था का केंद्र है | इस मंदिर का निर्माण फरवरी, सन १९०४ में प्रारम्भ हुआ था, जोकि अभी तक लगातार जारी है | श्रद्धालुओं की मानी तो इस मंदिर की निर्माण प्रक्रिया कभी ख़त्म नहीं होगी और यूँहीं लगातार बदस्तूर जारी रहेगी |
मै रहनेवाला भले ही मथुरा का हूँ, लेकिन मेरा बचपन आगरा में बीता है और यही कारण है की मेरी रूह को आगरा में वैसा ही चैन-ओ-सुकून मिलता है जैसा लोगों को काशी, काबा, मक्का मदीना, शिर्डी में मिलता है | आगरा की याद आयी तो जैसे मेरा जी भारी हो गया और आँखों से आंसू ही छलक उठे, दिल हल्का करने के लिए याद आयी अपनी जादूई छड़ी यानी की अपना ब्लॉग | इस बार अपने ब्लॉग के माध्यम से हसरत पूरी करनी है आपको आगरा के बारे में बताने की | वैसे जितना भी कहूँगा आगरा के बारे में, मुझे कम ही लगेगा क्यूंकि वो शहर मेरे दिल के इतना करीब है कि अलफ़ाज़ भले ही ख़त्म हो जाएँ मेरे पास मगर उसकी दास्ताँ ख़त्म न होगी |
शुरुआत करें भौगोलिक द्रष्टि से तो यमुना किनारे बसा आगरा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश का राजस्थान कि सरहद से लगने वाला एक महत्वपूर्ण जिला है | मथुरा, हाथरस, फिरोजाबाद, मैनपुरी और इटावा, आगरा के पडौसी जिले हैं |
एतिहासिक द्रष्टि से देखें तो आगरा न सिर्फ उत्तर प्रदेश के लिए बल्कि हिन्दुस्तान और समस्त विश्व के लिए से एक अनुपम एतिहासिक धरोहर है | मुगलों कि राजधानी रहे आगरा में देखने के लिए यूँ तो बहुत कुछ ऐसा है जो इतिहास में दिलचस्पी रखने वालों को लुभाता है लेकिन ताज महल, सिकंदरा, फतेहपुर सीकरी, आगरा फोर्ट, राधा स्वामी समाधी व एतमाद-उद-दौला का अपना एक सहज आकर्षण है |
आधुनिक दुनिया के सात आजूबों में शामिल, बेइन्तेहाँ प्यार की अद्वुतीय निशानी ताज महल के बारे में तो पहले ही इतना कुछ लिखा और कहा जा चुका है कि हम सब उसके एक-एक पहलू और उसकी खूबसूरती के एक-एक मायने से भली भाँती परिचित हैं |
ताज महल के बाद आगरा को सुशोभित करती मुग़ल काल कि दूसरी सबसे बड़ी धरोहर है सिकंदरा | ये वो जगह है जहाँ मुग़ल काल के सबसे प्रसिद्ध बादशाह जलाल-उद-दीन "अकबर" सुपुर्द-ए-ख़ाक हैं, जहाँ उनकी कब्र है |
इसके बाद बारी है फ़तेहपुर सीकरी की, यह असल में अकबर के द्वारा स्थापित किया हुआ एक छोटा सा गाँव है | येह कभी अकबर की राजधानी हुआ करता था | फतेहपुर सीकरी छोटा लेकिन बेहद खूबसूरत है | दुनिया का सबसे बड़ा दरवाज़ा "बुलंद दरवाज़ा" यहीं बना हुआ है | बुलंद दरवाज़ा के अलावा फतेहपुर सीकरी की खूबसूरती को चार चाँद लगाते हैं - दीवान-ए-आम, दीवान-ए-ख़ास, हज़रा-ए-अनूप तालाब, जामा मज़जिद, नौबत खाना, पच्चीसी अदालत, पन्च महल, बीरबल का घर और ख्वाजा सलीम चिस्ती की मज़ार |
फ़तेहपुर सीकरी के बाद आगरा में मुग़ल साम्राज्य की एक और अद्भुत इमारत है आगरा फोर्ट यानी की आगरा का "लाल किला" | पहले हुमायूं, फिर अकबर, जहांगीर,शाह जहान से लेकर औरंगज़ेब तक की ज़िन्दगी का एक बड़ा हिस्सा इसी इमारत की चार-दीवारी में बीता है | इस इमारत का खूबसूरत होना लाज़मी है | आगरा फोर्ट में बने अंगूरी बाघ, मच्छी भवन, मीना मज़जिद, मोती मज़जिद, जहाँगीरी महल और शीश महल इस किले को मनमोहक आकर्षण प्रदान करते हैं |
अब बारी है एतमाद-उद-दौला की, यह एक मज़ार है | यह मज़ार है मिर्ज़ा घियास बेग की, जो रिश्ते में जहाँगीर की बेगम के पिता और मुमताज़ महल के दादा हुआ करते थे | यह मजार अपनी अनुपम शिल्प कला और बेजोड़ पर्शियन नक्काशी के चलते बेहद खूबसूरत लगती है |
मुग़ल कालीन धरोहरों से आगे चलते हुए हम पहुँचते हैं आगरा के दिल में और आगरा का दिल है "दयालबाग" | दयालबाग में है "राधा स्वामी समाधी, स्वामिबाग" यह वह मंदिर है जहाँ "हुज़ूर स्वामी महाराज - श्री शिव दयाल सिंह सेठ जी" की अस्थियाँ रखी हुई हैं | यह मंदिर अटूट आस्था का केंद्र है | इस मंदिर का निर्माण फरवरी, सन १९०४ में प्रारम्भ हुआ था, जोकि अभी तक लगातार जारी है | श्रद्धालुओं की मानी तो इस मंदिर की निर्माण प्रक्रिया कभी ख़त्म नहीं होगी और यूँहीं लगातार बदस्तूर जारी रहेगी |
अरे ! एक जगह के बारे में तो में आपको बताना ही भूल गया, यह जगह है "मरियम टॉम्ब" | मरियम टॉम्ब एतिहासिक द्रष्टि से कम आशिकी की द्रष्टी से ज्यादा महत्वपूर्ण है | इसे आप "आशिकों का अड्डा" भी कह सकते हैं | यह वो जगह है जहाँ प्रेमी जोड़े स्कूल-कोलेज बंक करके और घर से बहाने करके मिलते हैं |
अब रुख करते हैं "आधुनिक" आगरा "शहर" का | मेरी स्कूलिंग शहर के सबसे बहतरीन स्कूलों में से एक आगरा पब्लिक स्कूल से हुई है, यह शहर की भागदौड़ से तकरीबन २०-२५ की.मी. दूर आगरा-मथुरा रोड पर अरतौनी नाम के गाँव में है | मेरा स्कूल आगरा का शायद सबसे बड़ा स्कूल था | लगभग २०० एकड़ में फैला बेहद विशाल, हरा भरा, शांत और सुन्दर माहौल |
सारा दिन स्कूल के माहौल में बेधड़क अठखेलियाँ करते करते कब बीत जाता पता ही न चलता | शाम को ४ बजे घर पहुँचते ही शुरू हो जाती थी फिजिक्स, मैथ्स और कैमिस्ट्री के टयूशनों पर निकलने की तैयारी | यूँ तो टयूशनस का टाइम शाम ६ बजे का होता था मगर में और मेरी मित्र मंडली घर से हमेशा १-१.३० घंटा पहले ही निकल जाया करते थे इसकी वजह थी की हमारे टयूशनस विजय नगर और गाँधी नगर में थे | ये न सोचिये की ये हमारे घर से कुछ ज्यादा ही दूर थे, असली वजह तो थी रास्ते में पड़ने वाली भगत हलवाई की चाट और मधु की आइस-क्रीम | मधु की आइस-क्रीम में कुछ अलग ही बात थी और भगत हलवाई की चाट का तो कोई मुकाबला ही नहीं |
चलते हैं संजय पैलेस | यह आगरा का एक अति-व्यस्त व्यावसायिक केंद्र है | यहाँ स्थित संजय टॉकीज़ शहर के मशहूर सिनेमाघरों में से एक है | संजय टॉकीज़ कभी दर्शकों की पहली पसंद थी, लेकिन बदलते दौर के साथ मल्टीप्लेक्स कल्चर के आ जाने से लोग अब फतेहाबाद रोड स्थित पैसिफिक मॉल और टी.डी.आई. मॉल स्थित क्रमशः फन सिनेमा और बिग सिनेमा में जाना पसंद करते हैं | युवाओं में लोकप्रिय ठिकानों की बात करें तो पहला नंबर आता है सदर मार्केट का, यहाँ आपको हर देसी-विदेशी ब्रांड के शोरूम मिल जायेंगे | रजा मण्डी को फैशन स्ट्रीट मान सकते हैं | यहाँ आपको लेटेस्ट फेशन सबसे सस्ते दामों में मिलेगा | इसके अलावा पेसेफिक मॉल, टी.डी.आई मॉल, पी.एफ.सी, कमला नगर, सजय पेलेस, डोल्फिन, गोकुलम आदि युवाओं में खासे लोकप्रीय हैं |
फिर से चलते हैं आगरा के स्वाद की ओर | मिठाइयों के शौक़ीन हैं तो आगरा में आपकी खिदमत में मौजूद हैं हीरालाल से लेकर देवीराम और बीकानेरिवाला से लेकर जी.एम.बी. तक | वैसे तो मिठाई के लिए दशाप्रकाश भी एक अच्छा ओप्शन है मगर यहाँ की मिठाईयों से ज्यादा यहाँ का साउथ इंडियन डोसा ज्यादा स्वादिष्ट और मशहूर है | समोसा खाना हो तो खंदारी जाकर खाएं, यकीनन आपको खंदारी की दुकानों के समोसों का स्वाद लुभाएगा |
देसी घी में बने हुए परांठे खाने हों तो दिल्ली की परांठे वाली का विकल्प भी आगरा में मौजूद है, यहाँ आप जा सकते हैं रामबाबू परांठेवाले के पास | शुद्ध देशी घी में बने विविध प्रकार के परांठे, एक ही परांठे में पेट फुल |
फास्ट फ़ूड के शौक़ीन हैं तो संजय पेलेस स्थित केक हॉउस या फिर हरी पर्वत स्थित पेंट्री प्लानेट जा सकते हैं, मुझे व्यक्तिगत तौर पर पेंट्री प्लानेट का चीज़ बर्गर बेहद पसंद है | मेरे स्कूली जीवन में मिली पॉकेटमनी का एक बड़ा हिस्सा इन्ही बर्गरों पर खर्च हुआ है |
आगरा ब्रज छेत्र से कुछ ही दूरी पर है और इसलिए यहाँ की जीवन शैली में वहाँ की छाप दिखाई देती है......यहाँ के नाश्ते में भी | सुबह सुबह गरमा-गरम जलेबियाँ, कचोडीयाँ और बेड़अईयाँ | कचोडीयों और बेड़अईयों के साथ गरमा गरम आलू की सब्जी और जलेबियों के साथ दही या दूध का कुल्लड इनके स्वाद को कई गुना बढ़ा देता है |
पान के शौक़ीन हैं तो विजय नगर में बांके पान भण्डार जायें और वहां बैठे बांके भैया से पान का बीड़ा बनवाएं और खाएं| बांके भैया के द्वारा बनाया हुआ पान अच्छे अच्छों की बंद अकल के तालों को खोल दे | इस पान के स्वाद की पहुँच दिल्ली, मुंबई तक है, लोग स्पेशल ऑर्डर देकर पान यहां से मंगवाते हैं |
अब आपकी मुलाक़ात करवाते हैं हरे भर आगरा से | दिन की सेहत भरी शुरुवात करनी हो तो पालीवाल पार्क के हरे भरे माहौल में सैर करने का मज़ा ही कुछ और है | यहाँ के छोटे से झील नुमा तालाब में आप बोटिंग का लुफ्त भी उठा सकते हैं | तकरीबन एक किलोमीटर के रेडियस में फैला पालीवाल पार्क अपने आँचल में समेटे हुए है अति प्रसिद्ध बी.आर. अम्बेडकर यूनिवरसिटी | पालीवाल पार्क आगरा के फेंफडे की तरह काम करता है, अत्यधिक प्रदूषण ग्रस्त शहर के वातावरण को ये पार्क काफी हद तक बेलेंस करता है | शहर का एक और बड़ा हरित केंद्र है सुभाष पार्क |
पढाई लिखाई की बात करें तो आगरा को आप तकनीकी शिक्षा एवं कला वर्ग में अध्यन करने के लिए एक अत्यंत महत्वपूर्ण केंद्र मान सकते हैं | दयालबाग एजुकेशनल इंस्टिट्यूट आगरा में सभी संस्थानों का सिरमौर है | राधा स्वामियों द्वारा संचालित यह कोलेज हर लिहाज से अव्वल है | चाहे तकनिकी कोर्सेज़ हों, वाणिज्यिक कोर्सेज़ या दूसरे कोई भी कोर्सेज़, बेहद सस्ता और पढाई के लिहाज से बेहतरीन | जितने खर्चे में आप यहाँ से चार साल की डिग्री करेंगे उससे कहीं अधिक खर्चा किसी दूसरे प्राइवेट कोलेज में आपको सिर्फ एक सेमेस्टर में ही करना होगा | यहाँ एडमीशन लेने के लिए छात्रों को कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है | अगर यहाँ एडमीशन न हो तो आप आनंद, हिन्दुस्तान, आर.बी.एस, सेन्ट जोन्स कोलेज, आगरा कोलेज जैसे मशहूर कोलेजों में पढ़ाई कर सकते हैं |
मौसम की बात करें तो आगरा में गर्मियों में गज़ब की गर्मी और सर्दियों में कडाके की सर्दी पड़ती है, सावन में मौसम सुहाना बना रहता है |
मेरी मानिए तो एक बार आगरा ज़रूर आयें | मेरा शहर है, मै तो तारीफ़ करूँगा ही लेकिन जब खुद देखेंगे तो मुरीद हो जायेंगे इस शहर के, इसकी खूबसूरती के और इसके अद्वुतीय आथित्य के |
मुझे लगता है इस बार के लिए इतना ही काफी है | अब इज़ाजत चाहूँगा |
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