Saturday, April 10, 2021

अब हम गुम हुए / बुल्ले शाह

अब हम गुम हुए / बुल्ले शाह


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अब हम ग़ुम हुए प्रेम नगर के शहर
अपने आप को जाँच रहा हूँ
ना सर हाथ ना पैर
हम धुत्कारे पहले घर के
कौन करे निरवैर!
खोई ख़ुदी मनसब पहचाना
जब देखी है ख़ैर
दोनों जहाँ में है बुल्ला शाह 
कोई नहीं है ग़ैर
अब हम ग़ुम हुए प्रेम नगर के शहर

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किससे अब तू छिपता है?

किससे अब तू छिपता है?
मंसूर भी तुझ पर आया है,
सूली पर उसे चढ़ाया है।
क्या साईं से नहीं डरता है?

कभी शेख़ रूप में आता है,
कभी निर्जन बैठा रोता है,
तेरा अन्त किसी ने न पाया है

बुल्ले से अच्छी अँगीठी है,
जिस पर रोटी भी पकती है,
करी सलाह फ़कीरों ने मिल जब
बाँटे टुकड़े छोटे-छोटे तब

क्या करता है, वह क्या करता है

क्या करता है, वह क्या करता है
पूछो दिलबर से वह क्या करता है 

जब एक ही घर में रहता है,
फिर पर्दा क्या करता है? 

वेगवान अद्वैत नदी में,
कोई डूबता कोई तरता है

प्रभु, बुल्ले शाह से आन मिलो,
भेदी है इस घर का वो

बुल्ले नूँ समझावन आँईयाँ

बुल्ले नूँ समझावन आँईयाँ भैनाँ ते भरजाईयाँ
'मन्न लै बुल्लेया साड्डा कैहना, छड्ड दे पल्ला राईयाँ
आल नबी, औलाद अली, नूँ तू क्यूँ लीकाँ लाईयाँ?'
'जेहड़ा सानू सईय्यद सद्दे, दोज़ख़ मिले सज़ाईयाँ
जो कोई सानू राईं आखे, बहिश्तें पींगाँ पाईयाँ
राईं-साईं सभनीं थाईं रब दियाँ बे-परवाईयाँ
सोहनियाँ परे हटाईयाँ ते कूझियाँ ले गल्ल लाईयाँ
जे तू लोड़ें बाग़-बहाराँ चाकर हो जा राईयाँ
बुल्ले शाह दी ज़ात की पुछनी? शुकर हो रज़ाईयाँ'

हीर राँझे दे हो गए मेले

हीर और राँझा का मिलन हो गया।
हीर तो उसे ढूँढ़ने के लिए भटकती रही
किन्तु प्रियतम राँझा तो उसकी बगल में ही खेल रहा था
मैं तो अपनी सब सुध-बुध खो बैठी थी।


साभार- कविताकोश
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2 YEARS AGO

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