"मैनें बातूनी से मौन सीखा है,असहिष्णु से सहिष्णुता और दयाहीन से दयालुता।"
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श्रीमद्भागवत के एकादश स्कंध में एक प्रसंग मिलता है।गुरु दत्तात्रेय जीवन में आध्यात्मिक शिक्षा के लिये चौबीस गुरु बनाते हैं।
ये गुरु सामान्य व्यवहार करनेवाले भी हैं,कुछ ऐसे भी हैं जिनकी जीवनपद्धति दोषपूर्ण है।उसे दोषदृष्टि से देखा जा सकता है।दोषदृष्टि सर्वत्र बहिष्कृत मानी गयी है।यह तभी स्वीकृत है जब किसीसे कुछ सीखा जाय।
जैसे कोई बातूनी हो,बहुत बोलता हो।ऐसे लोग मिल जायेंगे जो बातें कर रहे हैं।घंटे भर बाद घूमकर आयें तो पाते हैं बातें चल रही हैं।फिर कहीं चले गये,काफी देर बाद आये तो पाते हैं उनकी बातें अब भी चल ही रही है।एक व्यक्ति मुख्य वक्ता हुआ है।वह कोई सार्थक,शिक्षाप्रद बात कर रहा हो तो ठीक है पर वे ही निरर्थक,निष्रयोजन बातें।ऐसे लोग मैनें देखे हैं इसलिए कह रहा हूं।तब लगता है कैसी है यह आदत।होश ही नहीं, पूरी बेहोशी छायी हुई है।
स्वयं का ध्यान चला जाय तो आश्चर्य हो कि यह क्या मैं घंटों से बोले जा रहा हूं व्यर्थ की बातें।ध्यान जाय तो मौन के महत्व का पता लगे।
यह तो बातें करनेवाले की बात है,क्या हमारे मन में लगातार बातें नहीं चलती?
हमें लगता है मन की बातों से थकान नहीं होती।
नहीं।होती है।शाम तक दिमाग थककर चूर हो गया होता है।दर असल हमें मन को देखना आता नहीं।मन में स्मृतिरुप विचार एक के बाद एक लगातार "अपने आप" आते रहते हैं।शांत बैठें तो खबर पडे।
हमें शांत,मौन बैठे रहना चाहिए इसकी जगह हम उन आगंतुक विचारों में खो जाते हैं तथा अच्छीबुरी प्रतिक्रिया करने लगते हैं।
हम कहें यह प्रतिक्रिया भी "अपने आप" होती है तो यह ध्यान रखना चाहिए कि ये होती हमारी तरफ से हैं।हमारा तादात्म्य होता है।इसलिए रागद्वेष रहित शांत,मौन होने की जिम्मेवारी भी हमारी अपनी खुद की होती है वर्ना बखेडे में शांति संभव नहीं होती।
दृश्य, मन है,
द्रष्टा, चित्त है या द्रष्टा, मन है तब भी वह चित्त ही है या चित्त से जुडा हुआ है हरदम।मन में हजार दृश्य आते हैं परंतु द्रष्टा अर्थात् चित्त शांत,स्वस्थ रह सकता है।हालांकि वहां भी क्लिष्ट, अक्लिष्ट वृत्तियां हैं।माया द्वारा फंसाने का इंतजाम पक्का है।इसलिए चित् अर्थात् स्वयं के रुप में तटस्थ होकर उन वृत्तियों को देखना,जानना,समझना होता है।तदर्थ स्वयं का रागद्वेष के वश में न होना कितना जरूरी है यह समझा जा सकता है।
दूसरा कहा-असहिष्णु से सहिष्णुता सीखी।स्वयं को तो देखना ही है लेकिन कभी शांति से असहिष्णु आदमी को भी देखें।वह बर्दाश्त न करनेवाला, चिडचिडा, क्रोधी और झगडालू होता है।
क्या यह उसे अच्छा लगता है?
नहीं।
वह चाहे तो जाग्रत रह सकता है(अवेयर) अपनी इन पूर्वसंचित वृत्तियों के प्रति लेकिन वह इन वृत्तियों का औचित्य-समर्थन करता है।
अब अगर किसी बुराई को बुरा न मानकर उसका उल्टे समर्थन किया जाय तो क्या संभावना हो सकती है छुटकारे की।यद्यपि सीधे छुटकारा संभव नहीं, क्योंकि बंधन है गुणों का।स्वीकार भाव चाहिए।अपने असहिष्णु, क्रोधी,चिडचिडे,झगडालू स्वभाव को स्वीकारना होगा।ऐसा करना अपने आपको स्वीकारना है।अपने आपको स्वीकारकर हम हृदय में मूल में आ जाते हैं।सारी रचनात्मक संभावनाएं वहीं बनती हैं,हृदय सबका स्रोत जो है।इसीलिए ऐसा कहा जाता है कि व्यक्ति को तो ठीक वृत्ति को भी हृदय से ही जोडें,न कि बुद्धि से।बुद्धि सूक्ष्म हो तो ठीक है पर इसकी संभावना कम ही होती है।कोई भी वृत्ति हो भयक्रोधलोभमोहचिडचिडापन उसे हृदय से जुडा अनुभव करें तो वे धीमे धीमें हृदय में अर्थात् स्रोत में समाहित होने लगती हैं।छुटकारा अपने आप हो जाता है।यदि उनसे बचे तो यह उनके जनक-हृदय से बचना हुआ।इससे कभी छुटकारा नहीं मिलता।बंधन बना ही रहता है।इसलिए यह बडी ताकत,धैर्य व समझदारी का काम है कि हम अपने हृदय से उठनेवाली हर वृत्ति को वापस हृदय से ही जोडें बजाय मनबुद्धि, आंखकान से जोडने के।वे ध्यान को बाहर ले जाते हैं।उससे गलतफहमी होती है कि कारण बाहर हैं,
आदमी असली कारण स्वयं से अनजान बना रहता है।जानबूझकर, इरादतन कुछ करनेवाला भी स्वयं से अनजान होने के कारण ही ऐसा करता है।जान ले तो फिर कुछ न कर पाये।प्रज्ञाशक्ति प्रकट हो ही जाती है।व्यवस्था ही ऐसी है।जानबूझकर कुछ भी नहीं किया जा सकता।जानकर कौन आग में हाथ डालता है?कोई नहीं।
तीसरी सीखने की बात कही-
दयाहीन से दयालुता।
दयाहीन व्यक्ति अहंकारी अभिमानी होता है लेकिन कमजोर आदमी भी दयाहीन होता है।
भयभीत व्यक्ति कैसा आक्रमण करता है।भय आक्रामक भी बना देता है सिर्फ पलायनकारी ही नहीं।
अवश्य जो व्यक्ति निडर है,निर्भय है उसमें बडा आत्मविश्वास होता है।वह स्वस्थ अधिक होता है,आक्रामक होने की तुलना में।वह तो आक्रामक होते हुए भी आक्रामक नहीं होता अपितु स्वस्थ ही होता है।गीता अर्जुन के रुप में ऐसे ही स्वस्थ योद्धा को निर्मित कर रही है।वह सब समझ रहा है,वह संतुलित है और शक्तिशाली योद्धा भी।वह भलीभांति अपने आप में समाहित है।
वह न दयालु है,न दयाहीन।दया भी एक सात्विक वृत्ति है।उसे जान लेना व उसका उचित उपयोग कर लेना संभव है।
दयावश होकर कुछ करना होश खोना है,अहंकारविमूढात्मा होना है।
"प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वश:।अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।"
-हे अर्जुन!वास्तव में संपूर्ण कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किये हुए हैं तो भी अहंकार से(कर्ताभोक्ताभाव से) मूर्छित हुए अंत:करणवाला पुरुष 'मैं कर्ता हूं'-ऐसे मान लेता है।।गीता ३।२७।।
मैं कर्ता हूँ यह तो अहंभाव है ही,मैं भोक्ता हूँ यह भी अहंभाव है-इसे समझकर होश में रहा जाय तो फिर हम दुख भोगनेवाले न रहेंगे,सुख भोगनेवाले भी नहीं।देहमन अनुभव करेंगे प्रकृति संबंधी अनुकूलता, प्रतिकूलता का मगर भीतर स्वस्थता बनी रहेगी,कोई शिकायत न होगी।शिकायत अहंकार के भोक्ताभाव से है।स्वयं अहंकार नहीं है।स्वयं आत्मा है(सेल्फ)।
"You are the Self.
You are already that.
You exist always.
You are always as you really are.
But you don't realise it.
That is all."
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