Monday, April 5, 2021

प्रकृति धीर गंभीर

 "प्रकृति कभी जल्दबाजी नहीं करती,फिर भी सारी चीजें पूरी हो जाती हैं।" / कृष्ण मेहता 

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प्रकृति लगातार काम करती रहती है शांति से बिना थके।गीता ने इसीको कर्म का कौशल बताया है।लगातार कर्म बिना फल व्यग्रता के।फल की इच्छा जितनी प्रबल होगी उतनी ज्यादा अस्थिरता आयेगी।

प्रश्न है क्या बिना इच्छा के कर्म नहीं किये जा सकते?

किये जा सकते हैं तब कर्म होते हैं,किये नहीं जाते।

यह जो कर्म का होना है यही प्रकृति का तरीका है।

महापुरुषों ने चलने का उदाहरण दिया है।आदमी कर्ताभाव से प्रयत्न पूर्वक नहीं चलता।कदम स्वत:एक के बाद एक उठते चले जाते हैं और आदमी मंजिल पर पहुंच जाता है।जहां पहुंचना है वहां पहुंचना ही है मगर बीच में इच्छा को लाने की क्या जरूरत है?क्या बिना इच्छा के कोई कर्म हो ही नहीं सकता?प्रकृति दिनरात जो कर्म कर रही है उसके पीछे उसकी क्या इच्छा है?

कोई इच्छा नहीं, वह उसका स्वभाव है।

'प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वश:।'

मनुष्य उसीका हिस्सा है तो उसके अनुसार क्यों नहीं रहता?क्यों नहीं सीखता कि-प्रकृति कभी जल्दबाजी नहीं करती फिर भी सारी चीजें पूरी हो जाती हैं!

न वह रुकती है,न कर्म छोडती है।यह कर्मयोग है।

'तेरी कर्म न करने में भी प्रीति न हो।'

जब कोई इच्छा नहीं है तो कर्म क्यों किया जाय-यह सामान्य व्यक्ति की सोच है।उसे यह पता ही नहीं कि इच्छा से कर्म का कोई लेनादेना नहीं।प्रकृति के कर्म के पीछे कोई इच्छा होती है?नहीं।वह तो उसका स्वभाव है इसलिए कर्म हमारा स्वभाव होना चाहिए।कर्मण्येवाधिकारस्ते... कर्म करते रहें।बस।

रुकने का काम नहीं।

मा फलेषु कदाचन।फल से कोई प्रयोजन नहीं।

 प्रश्न उठ सकता है कि वे कौनसे कर्म हैं जो इच्छा के अधीन होकर किये जाते हैं और वे कौनसे कर्म हैं जो बिना इच्छा के अधीन हुए किये जाते हैं?

तो ऐसा कोई भेद नहीं।वस्तुतः कर्मयोग चित्त की उस अवस्था का सूचक है जिसमें चित्त,इच्छा के अधीन नहीं है।परवश नहीं है,स्ववश है।

हमने स्ववश चित्त को जाना नहीं, हमेशा परवश चित्त को ही जाना है।

इसका मतलब यह नहीं कि स्ववश चित्त जैसी कोई चीज होती नहीं।होती है उसे जानना पडे तब समझ में आ सकता है कि क्यों प्रकृति के सारे कार्य यथासमय स्वत:सहजता से पूर्ण होते हैं जबकि उसमें कोई हडबडाहट नहीं होती।

हममें हडबडाहट क्यों है क्योंकि चित्त कर्मयोग के अनुरूप नहीं है।ऐसा कर्म जो  मूल से,सत्य से जुडा हुआ है।

ट्रेन के छूटने का टाइम हो गया है हमें जल्दी से जल्दी स्टेशन पहुंचना है।घबराहट में,हडबडी में और ज्यादा देरी हो सकती है।सीधे छलांग लगाना असंभव है।व्यवस्थित होकर कार्य करना है तो तत्परता चाहिये,फुर्ती चाहिये।एक सूक्ष्म मस्तिष्क पीछे खडा निरीक्षण कर रहा होता है।कोई तोडफोड नहीं, नुकसान नहीं अन्यथा बडी जल्दबाजी में आदमी अपनी और चीजों की हानि कर लेता है।एंबुलेंस को यथाशीघ्र होस्पिटल पहुंचना चाहिये लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि वह सडक पर चीजें तोडती फोडती चले,लोगों को मारती चले।उनकी जान भी उतनी ही कीमती है जितनी एंबुलेंस में सवार मरीज की।

एंबुलेंस का उदाहरण अच्छा है।उससे सीखा जा सकता है।उसके ड्राइवर में तत्परता होती है-बडी फुर्ती साथ ही सावधानी भी।उसे किसीकी जान बचानी है और किसीकी लेनी भी नहीं है।कमांडो भी एक्शन लेते हैं तो दो चीजों को उन्हें संभालना पडती है।ऐसा नहीं कि एकदम बेहोश होकर कर्म में उतर जाये।

यही रीति है।इसे कर्म का कौशल कहा।सावधानी चाहिये,तत्परता भी।हडबडी या घबराहट के 'कारण' समझकर उन्हें दूर किया जा सकता है,करना भी चाहिये।

किसीको चोट लगने पर पहले फर्स्ट एड भी किया जा सकता है।पहले जो जरूरी है वही किया जाय।

मोह कहता है-जल्दी करो।

सावधानी कहती है-धीरज रखो।वही कर रहे हैं। जल्दबाजी काम बिगाड सकती है यह नहीं भूलना चाहिए।

चित्त का स्ववश होना ही ठीक है,परवश होना ठीक नहीं।स्ववश चित्त हो तो सावधानी होती है,तत्परता- फुर्ती होती है,सूक्ष्म समझ होती है।बतौर सजग निरीक्षक मस्तिष्क अपने काम पर लगा होता है।

हम कहते हैं-यह मुश्किल है तो इसलिए गीता कहती है-हे अर्जुन!तुम योगी बनो।'

योगी अर्थात् वह जो जुडा हुआ है,न कि टूटा हुआ।

यह बडा मूल्यवान सूत्र है।इसका विचार अवश्य करना चाहिए।हमें पता लगाना चाहिए कि क्या होता है जब हम कोई कार्य जुडे रहकर करते हैं और क्या होता है जब हम कोई कार्य टूटे रहकर करते हैं?टूटे चित्त से।

अपने चित्त का निरीक्षण करें तो हम पायेंगे यह टूटा ही रहता है।मोह तोड देता है,सावधानी जोडती है।हडबडाहट तोडती है,तत्परता जोडती है।

जिसने देहमन इंद्रिय रुप में अपने को जीता वह अपना मित्र,जिसने नहीं जीता वह अपना शत्रु।यह कथन सदैव स्मरण रखने योग्य है।

'बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जित:।

अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्।।'

इच्छा 'पर' से जोडती है।यह जोडना नहीं, तोडना है।आदमी को स्वयं से जुडना चाहिये।जो स्वयं से टूटा नहीं, वही स्व में स्थित होकर स्वस्थ हो सकता है।स्वस्थता ही कर्म का कौशल है,स्वस्थता ही कुशलतापूर्वक हर कर्म को संपन्न करना है।

स्वयं से जुडा आसानी से कर्म से जुड जाता है।विद्यार्थी को अध्ययन से जोडने की कोशिश की जाय बजाय स्वयं से जोडने के तो उसमें बाधा आती ही है।उसे स्वयं से ही जोडना चाहिये भले ही देर लगे।यह हो गया तो अध्ययन से जुडना कोई कठिन काम नहीं।इसलिए गीता न उकताये चित्त से योग की सलाह देती है।आवश्यक जो है।

इसमें इच्छा का क्या स्थान है?कोई स्थान नहीं।और यही समझना है बिना इच्छा, मोह,हडबडी के स्वस्थतापूर्वक कोई कर्म हो सकता है या नहीं?

औरों पर आरोप लगाना आसान है,अपनी जिम्मेदारी समझकर अपने को सही अर्थ में सक्षम बनाना मुश्किल है।

मुश्किल है मगर सही है।उसे इस आधार पर नहीं छोडा जा सकता कि कठिन है इसलिए कोशिश नहीं करनी चाहिए।

इसके विपरीत कोशिश करते रहने से कठिन लगनेवाली चीज भी सरल लगने लगती है।किसी भी कार्य को आरंभ करते समय सभी को लगता है यह कठिन है परंतु अभ्यास तथा धैर्य सब कुछ आसान बना देते हैं।कर्म में लगे रहें।एक कर्म नहीं है तो दूसरा खोज निकालें।शांत बैठकर स्वयं से जुडने का अनुभव करना भी कर्म है।प्राथमिकता देने योग्य।यह बडा रचनात्मक कर्म है।इससे वे सारी योग्यताएं आती हैं जो सांसारिक कर्म करनेवाले में होनी चाहिये।

वस्तुतः कर्मयोगी का जीवन सांसारिक तथा आध्यात्मिक इस तरह दो भागों में बंटा नहीं होता।वह जब जो कर्म उपस्थित हो उसे सावधानी से संपन्न करता है,ध्यान से पूरा करता है।ध्यान से प्रत्येक कर्म करने से कर्म भी सही तरीके से होता है और ध्यानसाधना भी हो जाती है अन्यथा आदमी को उसमें भी विचार होता है।समय का सदुपयोग होने से रह जाता है।

मन सोचने का काम करता है तो मन में भी तो "ध्यान से सोचने का कर्म"

 किया जा सकता है तब अनावश्यक विचार,भ्रमित करनेवाले-भटकाने वाले विचार(जिनके मूल में कोई इच्छा होती है) स्वत:छंट जाते हैं।

आरंभ में सफलता नहीं मिलती तो उतावले होने से कोई लाभ नहीं।

'प्रकृति कभी जल्दबाजी नहीं करती,फिर भी सारी चीजें पूरी हो जाती हैं।"

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