यह सुखद है कि फिल्म आखेट के साथ इसके गीत-संगीत पर भी सबका ध्यान गया है। इसमें दो गाने हैं। 1. सैंया सिकारी सिकार पर गए... (गायकः Anurag Ojha) और 2. सैंया सिकारी सिकार हो गए... (गायिकाः श्वेता जायसवाल)। ये गाने एक सिक्के के दो पहलू हैं और इन्हें लिखा है Anupam Ojha ने। इन दिनों जब फिल्मी गीतों में तुकबंदियां तक बची नहीं रह गई हैं, अनुपम ओझा ने भावनाओं को मार्मिक शब्दों में पिरोया है। सुंदर बिंब रचे हैं। ये गीत ठुमरी की तर्ज में बंधे हैं और डॉ.विजय कपूर ने इन्हें संगीतबद्ध किया है। सुनते हुए कब ये गीत आपके भीतर उतर जाते हैं और आप अनजाने ही इन्हें गुनगुनाने लगते हैं, पता नहीं लगता। पढ़िए, दैनिक जागरण, पटना के पत्रकार दिलीप ओझा ' मिथिलेश' की नीचे दर्ज टिप्पणी...
कालजयी रचना, गायन भी. भविष्य यह कि यह गीत ही एक दिन आपलोगों की पहचान बनेगा. लोग कहेंगे-- अनुपम जी,..अरे सैंय्या शिकारी वाले... अनुराग जी.... सैंय्या शिकारी वाले... क्या खूब लिखा, क्या खूब गाया भाई.. आदमी जीवन भर काम करता है, लेकिन उसमें से कुछ ऐसा अद्भुत होता है, जिस कृति पर इतराता जा सकता है, गर्व किया जा सकता है, इससे आगे कुछ ऐसा भी जो व्यक्ति की पहचान का तत्व बन जाता है. इस कृति में मुझे ऐसा ही तत्व दिखाई दे रहा है, जो आपलोगों की पहचान बनने की क्षमता रखता है. शब्द रचना कमाल की है.. सांची सनेहिया तार-तार कर गये...बैरी कंगनवा कटार हो गये, बांहों के बंधन में, सांसों के चंदन में, घायल के अइसन उपचार हो गये(गजब का कांट्रास्ट)..महके महुवा वन में...क्या उपमा है. आखिर जुल्मी सजनवा लाचार हो ही जाता है. हारमोनियम भी कमाल का बजा है, श्वेता के साथ हारमोनियम के साथ तबला भी अच्छा बजा है लेकिन अनुराग के साथ तबला की ध्वनि थोड़ी कंजूसी करती दिखाई दी.
आज इस गीत को सुनकर पुरानी यादों में डूब गया. पटना से मैं गांव पहुंचा था. दिन- तारीख याद नहीं है. आदतन घनश्याम भाई के पास पहुंचा. गांव पर रहने का मतलब ही होता था कि 80 फीसद समय घनश्याम भाई के साथ गुजारना. 20 फीसद में पूरा गांव. उनका मूड कुछ उखड़ा था. यह तो बिना पूछे मैं समझ गया. लेकिन वजह जानने के लिए सवाल करना पड़ा. पता चला अनुराग का इंटर का रिजल्ट अपेक्षित नहीं है. उन्होंने मामला मुझे सौंपा. मैं अनुराग को लेकर सामने बागीचे में उतर गया. मित्रवत व्यवहार की जमीन तैयार किया और सवाल किया- किस चीज में मन रमता है?? उसने कोई जवाब नहीं दिया. कुछ पल के बाद यही सवाल फिर दोहराया. इस बार जवाब मिला-- गीत-संगीत में. गवनई में. मैंने कहा - बहुत अच्छा.. लेकिन इस बात की गारंटी होनी चाहिए कि अगर इसी क्षेत्र में मौका दिया गया तो नाम रौशन कर दोगे. अनुराग ने भरोसा दिलाया- अच्छा करूँगा. इसके बाद हमलोग बागीचे से दलान में आ गये. चौकी पर बैठ अनुराग को उपदेश भी दिया-- जरूरी नहीं की साइंस में महारथ हो. डुमराँव के खान साहब तो शहनाई के बल पर ही आसमानी उड़ान भरे. जिस रस्ते चलो, बस यही उड़ान हमें चाहिए. इसी बीच घनश्याम भाई घर से निकल हमारे पास आ गए. मैंने अनुराग को वहां से जाने के लिए कहा. भाई से बात करनी थी. मैंने कहा- अनुराग का संगीत की पढाई के लिए बनारस भेज दिया जाए. मेरा फैसला सुन घनश्याम भाई हैरान रह गये. बहुत देर तक दोनों भाई खामोश रहे. भाई मेरे ऊपर बहुत भरोसा करते थे, शायद अपने से भी ज्यादा. उन्होंने कहा- तो यही किया जाए?? मैंने कहा-- हां. उस दिन का फैसला आज सूर्ख मेंहदी की तरह चटख दिख रहा है. घनश्याम भाई नहीं है... लेकिन बच्चे ने अपने को साबित कर दिखाया है. वह स्वर्ग से देख लें. पोस्ट लिखने का असली मकसद यह कि बच्चे के करियर का फैसला उसकी अभिरुचि के अनुसार हो तो बेहतर.
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