साहेब कबीर...
प्रेम न बाड़ी ऊपजे प्रेम न हाट बिकाई।
राजा परजा जेहि रुचे सीस देहि ले जाई॥
भावार्थ:
प्रेम खेत में नहीं उपजता है और न ही प्रेम बाज़ार में नहीं बिकता है, चाहे कोई राजा हो या साधारण जन – यदि प्रेम का रस पाना चाहते हैं, तो वह आत्म बलिदान से ही मिलेगा। मोह के त्याग और अहं के बलिदान के बिना चित में निश्चलता और मन में निर्मलता नहीं आ सकती।
सो दीनता कैसे उपजे....?
....और मालिक को तो दीनता ही प्यारी है।
सो बिना दीनता के पात्र (बर्तन) के, प्रेम के रस को नहीं पाया जा सकता।"
प्रेम स्वंम में मालिक कुल का स्वरूप और बहुत ही गहन-गम्भीर भाव है, यह निश्चल चित और निर्मल मन में ही प्रकट होता है।
'सतगुरु दीजे प्रेम दात मोहे'
🌷🙏🌷
सप्रेम राधास्वामी
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