- आज सुबह सतसंग में पढ़ा जाने वाला दूसरा पाठ:- चलो घर प्यारे ,क्यों जग में नित्त फँसइयाँ हो ॥टेक ॥
देह संग नित दुख सुख सहते ।
मन इंद्री भोगन में बहते ।
सतगुरु दया धार अब कहते ।
चेतो तुम गहो सरन गुसइयाँ हो ॥ १ ॥।
सतगुरु घर का भेद बतावें ।
शब्द संग मन सुरत चढ़ावें ।
काल करम से खूँट छुड़ावें ।
उन सँग पार चलइयाँ हो ॥ २ ॥
अधर धाम सतगुरु का डेरा।
पहुँचे वहाँ जिन धुन घट हेरा ।
सतगुरु दया सुरत ले घेरा ।
प्यारे राधास्वामी चरन समइयाँ हो।।३।।
(प्रेमबानी-3-शब्द-2-
पृ.सं.256,257)
[*राधास्वामी!
आज सुबह सतसंग में पढ़ा जाने वाला पहला पाठ
:-आरत गावे स्वामी दास तुम्हारा।
प्रेम प्रीति का थाल सँवारा।।
(सारबचन-शब्द-6-
पृ.सं.573,574)(चैनई ब्राँच)*
25-12-2021-
आज शाम सतसंग में पढ़ा जाने वाला दूसरा पाठ:-
बिमल चित गुरु चरनन लागा।
दास घट बाढ़ि अनचरागा।।१।।
ढूँढ़ता बहुत फिरा जग में ।
भटक गये सब जिव या मग में ॥ २ ॥
बोलते मुख से ऊँची बात ।
परख नहिं पाई सतगुरु साथ ॥ ३ ॥
संत का मरम नहीं जाना ।
ग्रंथ पढ़ पढ़ हुए दीवाना ॥ ४ ॥
खोजता आया राधास्वामी पास ।
दरश कर हियरे बढ़त हुलास ॥ ५ ॥
बचन सुन आई मन परतीत ।
चरन में गुरु के धारी प्रीति ॥ ६ ॥
भेद सतसँग का मोहि दीना ।
सुरत हुई धुन में लौलीना ॥ ७ ॥
मेहर राधास्वामी पाई आय ।
दिया मेरा सोता भाग जगाय ॥ ८ ॥
गुरु की महिमा अब जानी ।
नाम धुन सुन हुई मस्तानी ॥ ९ ॥
सुरत रस शब्द लेत दिन रात ।
स्वामी की महिमा निस दिन गात ॥ १० ॥
संत के कस कस गुन गाऊँ ।
चरन पर नित नित बलि जाऊँ ॥ ११ ॥
शब्द की गहिरी लागी चोट ।
गही जब सतगुरु की मैं ओट ॥१२ ॥
रहे मन इंद्री थक कर वार ।
काल और करम रहे झख मार ॥१३ ॥
गुरू ने पकड़ी मेरी बाँह ।
विठाया निज चरनन की छाहँ || १४ ||
अँधेरा छाय रहा संसार ।
भेष और पंडित भरमें वार || १५ ||
जीव सब भूले उनके संग ।
हुए सब मैले माया रंग ॥१६ ॥
कहूँ मैं उनको अब समझाय ।
सरन लो सतगुरु की तुम आय || १७ ||
जीव का अपने कर लो काज |
नहीं फिर जमपुर आवे लाज ॥१८ ॥ नहीं कुछ तीरथ में मिलना ।
चित्त नहिं मूरत में धरना ॥१९ ॥
चरन राधास्वामी परसो आय । सहज में सूरत निज घर जाय ॥२० ॥ उमँग मेरे मन में उठती आज ।
करूँ राधास्वामी आरत साज ॥२१ ॥ प्रेम सँग गुरु अस्तुत गाती ।
मेहर राधास्वामी छिन छिन पाती || २२ || जोत का दरशन नभ पाती ।
गरज सुन सुरत गगन जाती || २३ ||
सुन्न में तिरबेनी न्हाती | ।
गुफा चढ़ मुरली बजवाती ॥ २४ ॥
सत्त और अलख अगम पारा ।
चरन राधास्वामी परसाती || २५ ||
(प्रेमबानी-1-शब्द-16- पृ.सं.260,261,262,263)
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