💐💐ओशो नमन।💐💐💐💐💐
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रामकृष्ण घंटों तक बेहोश हो जाते थे। किसी ने इसकी ठीक से खोज नहीं की कि बात क्या थी? बुद्ध कभी बेहोश नहीं हुए रामकृष्ण जैसे। रामकृष्ण बेहोश हो जाते। रामकृष्ण के परमात्मा का अनुभव आंख का तो नहीं है। क्योंकि आंख खुली रहे, होश चाहिए। रामकृष्ण का अनुभव मोहम्मद का भी नहीं है। गंध का भी नहीं है। रामकृष्ण का अनुभव सूफियों के संगीत का भी नहीं है, मीरा के संगीत का भी नहीं है। कृष्ण की बांसुरी का भी नहीं।
यह मैं तुमसे पहली बार कहता हूं कि रामकृष्ण बेहोश हो जाते थे क्योंकि उनका अनुभव परमात्मा का, स्वाद का है। यह बात कभी कही नहीं गई है। इसलिए इसके लिए प्रमाण तुम कहीं भी नहीं खोज सकोगे। परमात्मा को चखा रामकृष्ण ने। वह स्वाद का अनुभव है। और स्वाद एकदम बेहोशी में ले जाएगा, क्योंकि स्वाद इतनी भीतरी इंद्रिय है! सभी इंद्रियां बाहर हैं स्वाद के मुकाबले--कान बाहर, नाक भी, आंख भी; स्वाद बहुत गहरे में है।
और इसका कारण है। क्योंकि रामकृष्ण भोजन के बड़े प्रेमी थे, इसीलिए। चर्चा चलती ब्रह्मज्ञान की, बीच-बीच में उठकर चौके में शारदा को पूछ आते थे, 'क्या बन रहा है?' शारदा तक को संकोच लगता था, कि 'लोग क्या कहेंगे? तुम ब्रह्मचर्चा छोड़कर बीच में चौके में आते हो?' थाली लेकर शारदा आती तो रामकृष्ण बैठे नहीं रह जाते थे, एकदम खड़े हो जाते थे, थाली में झांकते, क्या है?
स्वाद से ब्रह्म को जाना था। भोजन उनके लिए ब्रह्म था। उपनिषदों ने जहां कहा है, अन्न ब्रह्म है। वह किसी ने स्वाद से जानकर कहा होगा, नहीं तो अन्न को कोई ब्रह्म कहेगा? सुनकर हमको भी थोड़ा बेहूदा लगता है। अन्न ब्रह्म! भोजन ब्रह्म! लेकिन किसी ने स्वाद से जाना होगा।
और बड़े मजे की बात है कि रामकृष्ण इतने दीवाने थे भोजन के, और उनको जब बीमारी हुई तो कंठ का कैंसर हुआ। फिर यह आखिरी परीक्षा थी स्वाद की। होनी ही चाहिए। रामकृष्ण को ही हो सकती है। रामकृष्ण का कंठ अवरुद्ध हो गया। फिर आखिरी दिनों में वे भोजन नहीं कर पाते थे। कैंसर हो गया था।
विवेकानंद ने एक दिन रामकृष्ण को कहा कि 'परमहंस देव! आप एक शब्द तो कह दें परमात्मा को, जिससे आप इतने निकट से जुड़े हैं; कि हटाओ इस कंठ-अवरोध को। और कितना प्यारा था भोजन आपको! स्वाद में आप कितना रस लेते थे! और हम पीड़ित होते हैं कि आप भोजन कर नहीं पाते। पानी तक भीतर ले जाना मुश्किल है।'
तो रामकृष्ण कहते, 'एक दिन मैंने उससे कहा तो उसने कहा, इस कंठ से बहुत भोजन कर लिया, अब दूसरे कंठों से कर। अब मैं तुम्हारे कंठों से भोजन का रस ले रहा हूं। उसकी बड़ी कृपा है, उसने यह कंठ अवरुद्ध कर दिया। अब सभी कंठ मेरे हैं। अब जहां भी कोई स्वाद ले रहा है, मैं ही स्वाद ले रहा हूं। अब मैं तुमसे भोजन करूंगा।'
निश्चित ही रामकृष्ण ने परमात्मा को स्वाद की भांति जाना, और फिर सारी इंद्रियां में उसी में डूब गईं। कभी छह घंटे, कभी आठ घंटे, कभी छह दिन रामकृष्ण बेहोश पड़े रह जाते। वे स्वाद में लीन! बुद्ध ने परमात्मा को आंख से जाना होगा। आंख के लिए होश चाहिए, स्वाद के लिए लीनता चाहिए।
*** बिन बाती बिन तेल ( प्रवचन # 18)
*** ओशो
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